कविताएँ ::
अभिनव श्रीवास्तव

विवशता

जबकि वापसी की
सब संभावनाएं खुली थीं
मैं वापस नहीं लौटा

जबकि बहुत कुछ था मेरे
पास कहने को
मैं चुप रहा

जबकि याद रखने को था
बहुत कुछ
मैंने सब कुछ विस्मृत
हो जाने दिया

जबकि रोक सकता था मैं तुम्हें
क्षितिज के उस पार जाने से
मैंने तुम्हें
जाने दिया!

जीवन एक अभ्यास था

लौटने से ज्यादा रुकने का
कहने से ज्यादा चुप रहने का
याद रखने से ज्यादा भूल जाने का

और पाने से ज्यादा
तुम्हें खो देने का.

एक दिन

एक दिन
मैं सहसा निकल पडूंगा
घर से और
दुनिया की हर अस्वीकृत
चीज को लगा लूंगा गले

पढूंगा खारिज
कर दिए गए शब्द
सुनूंगा तिरस्कृत संगीत
यात्राएं करूंगा
निषिद्ध क्षेत्रों की

छूकर लौटूंगा
वीरान हो गयी
इमारतों की ठंडी ईंटें
उन घासों को सहलाऊंगा
जिनमें अब नहीं बचा
नुकीलापन

एक दिन मैं
सहसा निकल पडूंगा
और देर तक निहारूंगा
उस सावंली देह वाली
लड़की की आंखें
जिसमें बरसों से सुरक्षित हैं
कई अस्वीकृत दुःख

एक दिन मैं
निकलूंगा सहसा बाहर
और ले लाऊंगा
उस दुःख को
अपनी अंजुरियों में भर
ताकि पसीजता रहूं
अपने स्वीकृतियों के संसार में
हर दिन
थोड़ा-थोड़ा!

दुविधा

शब्द जिनके नहीं निकलते अर्थ
रास्ते जो कहीं नहीं जाते
हाथ जो हमेशा छूट जाते हैं
प्याले जो अक्सर टूट जाते हैं

सब के सब अंततः आते हैं
मेरे हिस्से में

मैं इसे उपलब्धि कहूं
या अपनी विडंबना?

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अभिनव शिव नादर विश्वविद्यालय में शोध कर रहे हैं और इससे पहले दिल्ली विश्वविद्यालय से संबद्ध रहे. उनकी कविताओं के प्रकाशन का यह प्रथम अवसर है. उनसे abhinavas30@gmail.com पर बात हो सकती है.

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