कविताएँ : अग्निपुष्प
अनुवाद : अंचित एवं बालमुकुन्द
१. क्या चुनूँ?
रात का श्रृंगार चुनूँ
या कि भोर का हरसिंगार
आकाश में छितराए तारे चुनूँ
या कि टूटा हुआ सितार।
ऊँचा ताड़ का पेड़ चुनूँ
या कि काँटों से भरा खजूर
या नुकीली ईख चुनूँ
या कि बबूल का सघन वन।
खर-पतवार चुनूँ या कि
तिजोरी का खुला हुआ ताला
सब तरफ़ फैले घोटाले चुनूँ
या कि षड्यंत्र भरा हवाला।
स्वप्न में खिले हुए पारिजात चुनूँ
या कि धूल में लिथड़े निर्माल।
उफनती नदी का कछार चुनूँ
या कि टूटी हुई नाव में मझधार
फिर अपना अकर्मण्य हाथ चुनूँ
या कि पास रखा हथियार।
२. तुम ही थी
कार्तिक पूर्णिमा की
भीगी हुई दूधिया रात में
एक ही रास्ते पर
खिले हुए कचनार
और साथ ही महकते हरसिंगार-
दोनों के बीच मैं और तुम
अपने-अपने एकांत में खड़े
कचनार की छाया में
हरसिंगार से, आलिंगनबद्ध।
तुम अपनी सुगंध दे रही हो
मैं अपना रंग।
ऐसा ही था हमारा रास्ता
सुगंध से उन्मत
रंग से सराबोर।
यही था मेरी मुक्ति का मार्ग मेरे रंग में
मुक्ति के मेरे इस अनथक रण में
तुम ही थी, तुम ही थी।
३. ये आँखें
सागर जैसी ये गहरी आँखें
उस पर अफ़ग़ानिस्तान के
काले-काले धुएँ से भरे मेघ।
पालविहीन नाव
लहरों को चीरती चलती है
डुबकी लगाती है गहरे तल में
ढूँढने के लिए मूँगा और मोती
लेकिन नाव से टकराता है नरमुंड।
ये आँखें जिधर तन कर देखती हैं
एक साथ होता है
गांव, शहर, गुफा और कंदरा में –
नरसंहार का अष्टयाम
मुठभेड़ का मनगढ़ंत नाम।
मोती-मूँगा छोड़ कर
आँखें ढूँढती हैं
अपनी अपनी लाश
जलता हुआ अपना गाँव।
जंगल शांत होता है
जब उठता है दावानल इन आँखों में,
जंगल जलते रहते हैं
चिड़िया उड़ती है आकाश में
लोग किसी एकांत गुफा में समा जाते हैं।
जिस दिन इंद्रधनुष हो जाती हैं ये आँखें
एक ही साथ हरसिंगार झरता है
सागर में तूफ़ान उठता है
जले हुए जंगलों में लोग कतारबद्ध हो जाते हैं।
४. दादागिरी
अपनी धरती पर
अपनी ही धरती पर
अपनी फसल मैंने आज काटी है
आप व्यर्थ ही तमतमायें हैं।
मैंने इसके लिए दिन रात बिताए हैं
चाँद नहीं रुकता आकाश में
लहरें नहीं रुकतीं समुद्र में
नए पत्ते का उगना नहीं रुकता है किसी पेड़ पर
किसी भी प्रतिबंध से।
बारूद के ढेर पर बैठ कर
शांति के लिए
आपकी ये कैसी दादागिरी है
ये कैसी साझी बिरादरी है?
५. काल
अपना ही रोपा हुआ
एक विशाल पेड़
सूर्य के अवसान के साथ साथ
आपको भूतहा लगेगा।
आप ही के बनाये घर के सारे खंभे
बिस्तर पर पड़ते ही
आपके ही शरीर पर गिरने लगेंगे।
यादों के रास्ते पर बढ़ते पैर
अतीत की तरफ़ जाते लगेंगे।
यथास्थिति के विरोध में उठे आपके हाथों की तरफ़
कई सारी घाव भरी उँगलियाँ उठने लगेंगी।
६. कालचक्र
मनुष्य कब मशीन हो जाता है
मशीन में पिस कर कब चूर-चूर
यह समझ नहीं पाता है।
भूमंडलीकृत बाज़ार की आवश्यकता के हिसाब से
यह मशीन सामान बनाता रहता है।
कब और कहाँ इस मशीन का मोल
घट या बढ़ जाता है – यह समझ नहीं पाता है।
मशीन बना यह मनुष्य
कब और कैसे
कबाड़ख़ाने तक पहुँच जाता है
यह समझ नहीं पाता है।
७. नया रास्ता बनाएँ
आओ और पास आओ
कुछ कदम संग-संग
इसी अनजान महानगर में चलो
मेड़ पर जैसे
कतार में चलते हैं लोग।
इस स्याह सड़क पर
परछाईं हम सब की टकराये
ताकि भीतर चुपचाप बैठा हुआ मन बाहर निकले
जैसे नई दूब निकलती है खेत में।
आओ, और पास आओ
चलो उस नुक्कड़ की तरफ़,
डूबते हुए सूरज को रोक दें
अफ़वाह के अंधकार को राख कर दें
भले ही एक आदमी भर रास्ता हो-
इसी सुनसान में
एक नया रास्ता बनाएँ।
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प्रख्यात कवि, पत्रकार और समकालीन जनमत के प्रथम संपादक अग्निपुष्प का निधन ३ मई २०२५ को हो गया। सन् १९५० में जन्मे अग्निपुष्प जी ने कविताएँ मुख्यत: मैथिली में लिखीं और उनका कविता संग्रह ‘सहस्त्रबाहु’ मैथिली में प्रकाशित है। उन्होंने राजकमल चौधरी की चर्चित कविता ‘मुक्ति प्रसंग’ का मैथिली अनुवाद भी किया है और वे कई मैथिली पत्रिकाओं से जुड़े रहे। ऐसे समय में जब मैथिली साहित्य यथास्थितिवाद से ग्रसित था, अग्निपुष्प, हरेकृष्ण झा, कुणाल आदि ने प्रगतिशील धारा को मैथिली से जोड़ा और साहित्य और समाज को गंभीर प्रश्नों की तरफ़ उन्मुख किया। अग्निपुष्प जी मैथिली कविता के “अग्निजीवी” पीढ़ी के कवि थे।
प्रस्तुत अनुवाद, ई-मिथिला पर छपीं, उनकी मैथिली कविताओं पर आधारित हैं। मैथिली में उनकी कविताएँ यहाँ पढ़ी जा सकती हैं- हमर संगी जे हमर विचार अछि