कविताएँ ::
प्रत्यूष चन्द्र मिश्रा
ताकत
मैं एक पहाड़ के पास गया और पाया कि अगाध
करुणा से भर गया हूँ मैं
मैं एक नदी के पास गया और पाया कि उसकी कोमलता
मेरे भीतर प्रवेश कर रही है
मैं खेत के पास गया और देखा
नमी उतर रही है मेरे भीतर
मैं जंगल के पास गया और पाया कि
एक दुर्लभ संगीत से मेरी आत्मा के तार झंकृत हो रहे हैं
विस्मय से भर कर जब मैंने निहारा आकाश को
खुद को पाया विशालता के आगोश में
एक पक्षी, एक पशु और एक पेड़ ने
मेरे दिल के कोने में बनाई जगह
और अंत में जब मैं एक मनुष्य के पास गया
तो पाया कि मेरे भीतर बची हुई है प्रेम करने की ताकत।
गुम हुई किताबें
पिछले कुछ दिनों से खोज रहा था एक किताब
जिसे वर्षों पहले खरीदा था मेले में
मैं बहुत हैरान-परेशान उसे खोजता रहा लगातार
लेकिन वह नहीं ही मिली।
वह खो गई इस तरह जैसे मेले की भीड़ में खो जाता है कोई बच्चा।
फिर जो खोजना शुरू किया
तो एक-एक कर कई गुम हुईं किताबों के बारे में पता चला
पीछे वाले रैक में रखी थी ‘हिन्द स्वराज’
अब मिल नहीं रही
किसी मित्र की कृपा बरसी होगी उसपर
बहुत दिन हुए ‘एनहिलेशन ऑफ़ कास्ट’ पर भी नजर नहीं पड़ी
‘कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो’ की पुरानी प्रति भी मित्रों की सदाशयता का शिकार हुई थी
जो खोजने चला तो पाया कि कविता की कई किताबें अपनी जगह पर नहीं थीं
उपन्यास गायब थे कहानियाँ खो गई थीं अपने पात्रों समेत
बस उनकी कहीं धुंधली कहीं गहरी रेखाएं दर्ज थीं स्मृतियों के बियावान में
इन सब किताबों में सब विचार लेखकों के ही थे ऐसा कतई नहीं था
इन किताबों के भीतर थे जो विचार
उनसे ‘मुठभेड़’ की एक पूरी दास्तान मौजूद थी इन किताबों के भीतर
नेहरु ने जो खत लिखे थे इंदिरा को उस किताब में मैंने दर्ज किये थे कई बिंदु
‘वोल्गा से गंगा’ वाली किताब में मैं कितनी बार चौंका था
अब उसकी नई प्रति में इसका कोई हिसाब नहीं
किताबें जो हमारे पास होती हैं वे सिर्फ लेखकों की भावनाओं का इजहार भर नहीं होतीं
उनमें मनुष्यता की एक सार्वभौमिक पहचान समाहित होती है
बहुधा वे संवाद को आमंत्रित करती हैं
किताबों के हाशिये पर हम दर्ज करते हैं अपना गुस्सा और प्रेम
मार्कर से लगाते हैं लाल-नीले निशान
पेन्सिल से खींचते हैं आड़ी-तिरछी रेखाएं
इन गुम हुईं किताबों में हमारी वे तमाम स्मृतियाँ होती हैं
जिनका कोई हिसाब तो कई बार हमें भी मालूम नहीं होता
गुम हुईं किताबें नये ज़माने की किताबों की तरह नहीं होती
जिन पर हम कुछ लिख नहीं सकते
गुम हुईं किताबों की पंक्तियाँ, कोई विचार
कोई कथानक छिटककर हमारे वर्तमान में दाखिल होता है
और हम एकाएक चौंक पड़ते हैं
यही वह सिरा होता है जब हमारी स्मृतियों के बीज
भविष्य के गर्भ में लेते हैं जन्म
गुम हुईं किताबें हमें अतीत की गलतियों के बारे में बताती हैं
बताती हैं अपने आस-पास और दुनिया जहान के बारे में
कोई ज्योतिषी तो नहीं होतीं ऐसी किताबें
पर कभी-कभी वे भविष्य का पता भी बताती हैं
गुम हुई किताबें रैक पर पड़ी किताबों से अक्सर ज्यादा परेशान करती हैं.
खाली घर
गाँव के किनारे झाड़ झंखाड़ से भरा यह एक खाली घर है
काफी दिन हुए अब इस घर में कोई नहीं रहता
धूल और गन्दगी ने इस घर में बना लिया है साम्राज्य
इस घर के चूल्हे फूटे हुए हैं और उनसे कोई धुआं नहीं उठता
बिल्लियाँ जब-तब बैठती है इस चूल्हे में
गली के कुत्ते आते हैं इस घर में थकान मिटाने
गिलहरियाँ करती है धमाचौकड़ी इस घर में
गिरगिट बदलते हैं दिन में कई बार रंग
अक्सर देखे जाते हैं इस घर में विषैले जीव
जिनके नाम से ही कांप जाते हैं बच्चे
टूटे हुए छप्पर पर बिखरी हुई बेतरतीब लत्तरें
पूरे घर में मकड़ियों का जाल और उनसे उलझने वाला कोई नहीं
सब कुछ बिखरा हुआ इस घर में और अब किसी के काम का नहीं
कभी इस घर में भी रहती थी रौनक
चूल्हों से आती थी छौंक-बघार की महक
बच्चों की धमाचौकड़ी से गुलजार रहता था घर
कौवे लाते थे मेहमान के आने की खबर
आँगन गूंजता रहता था अक्सर सोहर और विदाई के गीतों से
पहिरोपना और नवान्न के जलसे में शामिल रहता था पूरा गोतिया-दियाद
अब इन सारी स्मृतियों का कोलाज भर है यह घर
घर के खत्म होने से खत्म होती है एक सभ्यता भी
गायब होता है एक जीवन संगीत सूख जाता है जीवन वृक्ष
खत्म होता है एक इतिहास और भूगोल भी
कोई भी घर अकेले कभी खत्म नहीं होता।
पुल
गाँव जाने वाली नदी पर
अब पुल बन गया है
बारहों मास चलती है गाड़ियाँ
किसी भी मौसम में कोई दिक्कत नहीं
खाई को पाट दिया है इस पुल ने
अब नदी के पानी को नहीं छूते हमारे पांव
नाव की भी कोई जरूरत नहीं हमें
मछलियों घोंघों केकड़ों को नहीं देख पाते हम
भींगे हुए बालू पर पानी की लकीर अब दूर का दृश्य है
पुल ने शहर के बिलकुल पास ला दिया है हमारे गाँव को
पुल ने दूर कर दिया है नदी से हमको।
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प्रत्यूष चन्द्र मिश्रा सुपरिचित कवि हैं। ‘पुनपुन एवं अन्य कविताएँ’ शीर्षक से इनकी एक कविता की किताब दीपक अरोड़ा स्मृति पांडुलिपि सम्मान के तहत बोधि प्रकाशन (जयपुर) से प्रकाशित-पुरस्कृत है। इसके अतिरिक्त रचनाएँ प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में नियमित प्रकाशित-प्रशंसित होती रही हैं। प्रत्यूष पटना में रहते हैं, उनसे pcmishra2012@gmail.com पर बात हो सकती है।