कविताएँ ::
रौशन पाठक

गेहूँ का मैदान

एक बड़े से गेहूँ के मैदान में जहाँ तक देखो गेहूँ ही दिखता है।
मैंने दसों दिशाओं में देखा है, भूरे रंग सा है आसमान
गेहूँ के रंग सा— गेहुँआ रंग। गेहूँ हो चला है आसमान।
मेरे भूरे बाल, तुम्हारे भूरे बालों से थोड़े ज़्यादा भूरे है और गेहूँ के भूरे रंग से थोड़े कम भूरे।
कई सारी शरद ऋतुओं को पार करने पर अब गेहूँ उगे खेत
खेत नहीं, मैदान लगते हैं।
मैदान— जहाँ चाँदनी रात में गेहुँआ चाँद, रोटी की तरह दिखता है।
कभी-कभी बहुत डर लगता है कि कहीं
आंतों को भाने न लगे इसका कोई विदेशी वर्जन।
सच कहूँ तो प्रेम करते वक़्त तुम मुझे धान लगी
छरहरी, भूरी और अंदर से सफ़ेद।
मगर धान केवल धान लगा। कोई उपमा, कोई विशेषण नहीं।

तुम लगी मुझे कभी
आठ सौ अश्वमेध-श्यामकर्ण हासिल करने वाली माधवी
कभी पुत्र-वियोगी, कभी गालव का प्यार, ययाती का वचन
तो कभी ऍल पचिनो के होंठो में दबी हुई सिगरेट का मंज़र।
मगर धान केवल धान लगा। कोई उपमा, कोई विशेषण नहीं।
जॉर्डन नदी के सूखने पर भी उगेगी ये फ़सल
मरते-मरते भरेगी पेट यही फ़सल
जीते हुए मेरे पिता की भी आस था यही गेहूँ
जैसे प्रोमीथियस के लिए आग
जैसे सिसीफस के लिए ज़िंदगी
जैसे नाबोकोव के लिए वेरा

आज़ादी माँगते हुए यरूशलम की गलियों में बहा हुआ खून भी
लाल नहीं, गेहुँआ होगा,
मैं सारे मारे गए यहूदियों, मुसलमानों, हिंदुओं…
और जानवरों के संग बहना चाहूँगा
जॉर्डन, गंगा या नील नदी में।
मैं चाहूँगा मैं अपने पिता की तरह बनूँ
और मेरे हृदय से अमलतास और सीने से उग आए गेहूँ।
बिना किसी उपमा, किसी विशेषण के।

बिना किसी उपमा, किसी विशेषण के
मैं कहलाऊँ भूख लगने पर प्यार और गेहूँ माँगने वाला इंसान।

मिलना-बिछड़ना

सुंदरता की कोई परिभाषा नहीं होती।
माँ कहती है, बहू के आने से घर स्वर्ग बन जाता है
नेरुदा कहते हैं, पूरी धरती स्वर्ग की दुर्गंध से भरी पड़ी है।
क्या नेरुदा माँ को जानते थे…?
माँ नहीं जानती होगी उन्हें!
मेरे जन्म के उन्नीस साल बाद शायद
उन्होंने उनका नाम पहली दफ़ा सुना होगा मेरे मुँह से।
काफ्का, पाश, ब्रेख्त, लोर्का और शायद मार्केज़ का भी।
और भूल गयी होगी।
माँ को शायद ही किसी का नाम याद रहा हो।
बरक्स याद रहा किसी के माथे पर बचपन के कटे का निशान
आँखों का भूरा रंग
नथुनों पर बेढंगा सा नग
दहेज़ वाली सस्ती पलंग,
उसके साथ नहियर-और पास से-संबंध रखने वाले लोग
और कभी-कभी किसी के ओल्ड फैशन हार का नागिन की तरह
गले से वक्ष तक लटकने वाला किस्सा।
मैंने सीखने से पहले जानने की कोशिश की।
जानना और सीखना दो क्रियाएँ हैं।
प्यार में हुआ विपरीत।
मगर माँ साथ रहीं, नहीं भी तो, उनकी आदत।
सपने में भी नहीं लगा मगर कईयों के नाम भूल गया।

कईयो से उम्र में बहुत छोटा मगर आँखें देखते हुए मुझे बड़ा बनना था।
(ऐसे ही किसी समय पर लगता है, काश! समय प्रीत होता और केवल मुझे ही जवान करता।)
उनके देखते मैं छिपता, मेरे देखते ही वो गड़ा लेती अपनी आँखें मेरी आँखों से
जैसे जलती सिगरेट दाग़ दी हो किसी ने सीने में।

बची रही स्मृति में कुछ के सीने की धड़कन
गले की हड्डी में जमे पसीने की गंध
प्यार किए गए रास्ते
और कभी-कभी उनके कमरे, जिसके चारों ओर एक डर रहता था।

पर्दे, बिस्तर, आईने-जिसमें ख़ुद को देख कभी घृणा होती, तो कभी प्रेम आता
बिना प्रेम किए भी हम लोगों को चाहने लगते हैं,
हम नहीं चाहते वे भीग जाएँ हमारी यायावरी में, हम उनके साथ होना चाहते हैं बस।
चाहते हैं कोई रेत से ढूँढ दे वो सुई जिसने ना मिलने की कसम खा रखी है।
और चला जाए जैसे कोई आया ही नहीं।
हाँ! प्यार का सिसीफस। पर्वत को पता ही ना चले कि सज़ा काटने कोई उस तक आया भी…
चूमने से पहले मुझे सब अच्छे लगे,
चूमने के बाद खूबसूरत लगा कभी किसी का शर्माना, काले-चितकबरे गाल पर गड्ढे पर जाना और
बिन्दी का हौले-हौले स्ट्रेच मार्क्स की तरह छिपे जगहों से बाहर निकलना।

सच कहूँ तो सब अच्छे लगे।
सच कहूँ तो कोई अच्छा न लगा।
जिनके बाल लंबे थे, मेरे संग कहानियाँ छोटी रहीं
जिसने नाखूनों को रंगा, वो घिस गयी विशेषणों में
जिसने सुनी कविताएँ , उन्हें लगा मैं रंगरेज
किसी ने भौंहों को चूमा, किसी ने बांटी अपनी कत्थई लिपस्टिक वाली सिगरेट
किसी के पर्स में मैं रख आया नेरुदा की विषाद कविताएँ
झुमके पहनाते हुए किसी के गालों पर पढ़ा पूरा साहित्य

चलते-चलते प्यार हुआ इक दफ़ा उससे,
जिसने मेरी कविताओं की झूठी तारीफें की थी
जिसने बिखरे बालों को सुन्दर कहा था,
होठों को ज़ालिम, नज़रों को बेपरवाह, और दिल को पत्थर भी।
हाँ, खूबसूरत सब लगे। जो नहीं लगे,
उनसे मिलना-बिछड़ना अभी बाकी रहा…

नमक के गीत

1.

प्रेम हमेशा से मेरे शरीर में नमक की तरह रहा
महीन, कमोबेश, और टुकड़ों में।
घुलता जाता-घुलता जाता मानो समंदर का साहिर हो।
अब तो कुछ होना, ना होना भी मायने नहीं रखता।
कटोरे में दो कौर भात की आस में रिसता रहा बदन
जैसे बारिश में उसका वाला कमरा – खालिस-लोथड़े माँस की तरह, बिना खून-पानी का।
तुम हमेशा से रही वो बीज
जिसके रहते रहा मेरे खाने में स्वाद।
सीझता रहा एक-एक माँस का टुकड़ा मेरे बदन का
और बरकरार रहा जिगर का नमक।
इसी नमक ने मुझे बनाये रखा प्रेमी, हत्यारा, और सूअर।
इसी नमक ने मेरे अंदर के आडंबर को तोड़ा
इसी ने सिखायी कुकुरमुत्ते की चाल।

ये नमक तुम ही पैदा करती हो
गले की हड्डियों में तैरता है ये नमक
तुम मेरा किसान हो
तुम हो बाजरा, गेहूँ , धान और लोहा।
तुम करियाई-मलीन होठों पर
पसरी मुस्कान हो। तुम कहानीकार हो।
नमक की कहानियाँ तुमसे ही पैदाहुईं।
मैं इस बार हूँ, तुम हर दफ़ा होगी।
होगा तेल, पानी, और नमक।

2.

उसी नमक का एक ईश्वर है, एक पहरेदार, और एक सूअर।
तीनों हत्यारे हैं।
सबसे बड़ा हत्यारा ईश्वर है।
जिसके जिगर में नमक नहीं।
जिसके खाने में स्वाद नहीं।
जिसने प्रेम किया ही नहीं।
पहरेदार फ़ासिस्ट है।
नमक का दारोगा। सबसे बड़ा चोर।
ये हत्यारे को बचाता है और सूअर से नमक का झूठा सौदा करता है।
पहरेदार गुलाब है। हत्यारा और उसका रंग सुर्ख़ लाल है।
सूअर लापता है। जिससे कोई प्रेम नहीं करता।
जिसके लिए कोई नहीं सोचता, किसी ने उसके लिए नहीं रखा लोटे में पानी।
सूअर नमक की आस में मरा।
वो भूखा सूअर इंसान की मौत मरा।
हूप-हूप करते हुए, गालियाँ देते हुए, फिर से पैदा न होने के लिए…
नमक की भीड़ कम हो गयी, कुत्तों ने भौंकना बंद कर दिया
शायद बारिश होगी…
पहरेदार अब ईश्वर से सौदा करेगा।

3.

मुझे प्यार है,
मैं तुम्हारी हड्डियों से नमक निकालने से पहले सूअर बन जाना चाहूँगा।
मुझे यक़ीन है तुम्हारा नमक गाय और सूअर में फर्क़ नहीं करेगा
मैं नमक के पहाड़ों पर नमक के गीत गाऊँगा।

सुनो,
तुम्हारे होंठों में नमकीनियत है
और ये लोक, ठगा हुआ कबीर।

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रौशन पाठक शांतिनिकेतन में स्नातकोत्तर के छात्र हैं और कविताएँ लिखते हैं। उनसे pathakroushan2004@gmail.com पर बात हो सकती है।