नए पत्ते::
कविताएँ: सार्थक दीक्षित
राष्ट्रीय प्रवक्ता
वो सबसे अधिक जानकारी रखने वाले लोग थे
उन्हें मालूम थीं सबसे बेहतर और अधिक तकनीकें
जिनसे वो कर सकते थे
प्रधानसेवक के सेवा-भाव का बचाव
उनके शब्दकोश में थे सबसे अधिक नफरती शब्द
वो संविधान के अनुच्छेद ’19’ के असली झंडाबरदार थे
जो जहाँ जी आता वो बोल देते
‘मार डालना’, ‘काट डालना’ थे उनके लिए आम शब्द
जो समाचार चैनलों की डिबेट से लेकर उनकी रैलियों तक गूंजते मिलते
जिनमें बैठकर सबसे शांतिप्रिय देश के नेतृत्वकर्ता ने बजायीं थीं तालियाँ
वो धर्म के विशेषज्ञ थे और युद्ध के समर्थक
रात जब भरे पेट वो टेलीविजन पर आते तो कर देते ये ऐलान
कि उनकी सरकार ने राशन देकर कर दिया है इस देश का कल्याण
और अब भूखे पेट कोई नहीं सोता
ना ही पिछली सरकारों के जैसे होता है कोई बच्चा कुपोषण का शिकार
ग़र भूले-बिसरे कभी कोई ढीठ पत्रकार दिखा भी देता ख़बर
‘फलाँ जगह लोग पर्याप्त भोजन को तरस रहे’
तो वो हमारे पूर्वजों की याद दिलाते हुए कहते
कि महाराणा प्रताप ने मुगलों से लोहा लेते हुए घास की रोटियाँ खाई थीं
उनके इसी जवाब ने उन्हें दिलाया था प्रमोशन
और बनाया था पार्टी का राष्ट्रीय प्रवक्ता
वो बोलने के आदी थे और सुनने के विरोधी
उनके हिसाब से देश की सारी समस्याओं की जड़ वामपंथी थे
और सारे दंगों की मुख्य वज़ह “इन्कलाब जिंदाबाद” का नारा।
समाचार देखते हुए
अपने पूर्वजों को लेकर मैं कुछ अधिक नहीं जानता
मेरी समझ मेरे पिताजी के बाप
यानी मेरे दादाजी तक सीमित है
जिनका जीवन
मास्टरी की कमाई बचाकर
दो ल़डकियों का ब्याह और
तीन लड़कों के लिए ज़मीन करने में कट गया
और पिताजी का सुबह छह से शाम छह तक की
नौकरी से चार लोगों का पेट पालने में।
मगर आज समाचार देखते हुए मैंने जाना
अपने कुछ नए और अनजान पूर्वजों के बारे में
जो महान और बहुत रईस थे
मेरी समझ के बिलकुल ही विपरीत।
मुझे बताया गया
वो मेरी ही जाति के लोग थे और कहा गया
मुझे अपने उन पूर्वजों को लेकर गौरवान्वित होना चाहिए
कि ‘हम फ़लां व्यक्ति के वंशज हैं’
मुझे पता होनी चाहिए उनके बारे में
हर एक बात
उनकी महानता के बारे में
उनके बनाए गए साम्राज्य के बारे में
ताकि बगल में बैठे मेरे दोस्त से
जब मैं कर रहा हूँ चर्चा
अर्थिक बदहाली के ऊपर
तो कर सकूं झूठा गर्व
अपने उन महान पूर्वजों का जिक्र छेड़ कर
और ना पहुँच पाऊँ
इस क्रूर, पूँजीवादी समाज के सवाल तक
जिसका बोझ तुम्हारी और मेरी पीढ़ियों के बाद
तुम और मैं ढो रहे हैं मेरे दोस्त।
बचे दिन
तुम्हारे इस कमरे से चले जाने के बाद
बची उदासी को ओढ़ कर मैं सोच रहा हूँ
तुम्हारे जीवन से चले जाने के बाद के दिन कैसे होंगे?
तुम्हारे आने के साथ पहले प्रेम की स्मृतियाँ चली गयीं हैं
जिन्हें लेकर अक्सर मैं दुख का फ़रेब कर लिया करता था
तुम्हारे जाने के बाद का ख्याल ही
मेरे मन को उदासी से भर दे रहा है
तुमसे प्रेम में पड़ जाने के बाद
मैं इस वाक्य को सिरे से खारिज़ कर रहा हूँ
कि प्रथम प्रेम ही सच्चा प्रेम है
फिर भी प्रिय मैं तुमसे कहता हूँ
ये एक झूठे व्यक्ति की कविता है
मेरा द्वारा कविता में लिखे गए प्रेम में ना सही
तुम उस प्रेम में विश्वास रखना
जो तुम्हारे माथे को चूमते वक्त
मेरी आंसुओं से भरी आँख में तुमने देखा होगा
तुम्हारा चला जाना उन सब जगहों की खूबसूरती का
चला जाना होगा
जो मैंने तुम्हारे साथ देखी थीं
तुम्हारे साथ सुने गानों के भाव का
साथ देखे हुए कितने सपनों का चला जाना होगा
और इन सबसे बढ़कर
महज मेरी कुछ कविताओं से नहीं
मेरे बचे जीवन से प्रेम का चला जाना होगा
इसलिए प्रिय मैं तुमसे कहता हूँ
रुक जाओ, ताकि बचा रहे
मेरी कविताओं में ही नहीं मेरे जीवन में भी प्रेम।
निस्तब्धता
माँ घर की अधिकतर चर्चाओं में चुप रहती हैं
उन चर्चाओं में भी जहाँ बोलने को उनके पास हमसे अधिक
और बेहतर बातें होतीं हैं
माँ बहस के वक्त भी चुप रहती हैं
उनको हर बात का प्रत्युत्तर देना नहीं आता
ना ही उनके पास खुद को सही साबित करने के कोई तर्क हैं
हम जब अपने दोस्तों का जिक्र कर रहे होते हैं
वह तब भी चुप रहती हैं
मैं कभी कभी सोच में पड़ जाता हूँ
कि माँ भी एकदम से अपनी किसी सहेली का नाम लेकर
कोई किस्सा क्यूँ नहीं सुनाने लगतीं
फिर मुझे लगता है
माँ के चुप्पी भरे स्वभाव ने उनकी कोई सहेली बनने ही
नहीं दी होगी
माँ बीमार होती हैं तो भी चुप्पी साधे रहती हैं
बेलन पर पकड़ दर्द के किसी स्तर में ढीली नहीं पड़ती
माँ अगर कभी दर्द, बीमारी और इलाज के लिए बोलती भी हैं
तो रात हमारे खाने का इंतज़ाम करने के बाद
माँ की चुप्पी या तो कुछ गैर ज़रूरी बातें
जैसे घर में खत्म हो रहे राशन और हमारी शाम को खाने की
इच्छा पर टूटती है,
नहीं तो एकांत में बहते आंसुओ पर
कभी जब मैं माँ की चुप्पियों पर गहनता से सोचता हूँ
तो समझ आता है
कि माँ ने ये चुप्पियां खुद नहीं चुनी हैं
बल्कि उनपर थोप दी गयी हैं
जीवन के अलग अलग स्तर पर अलग अलग लोगों द्वारा
मैं पाता हूँ कि माँ भी उसी क्रम का हिस्सा रहीं हैं
जिसमें भारतीय औरतों के आधे तर्क, आधी सोच, आधी आवाज़
घरवालों के शादी तय करते वक्त खत्म हो जाती है
और पूरी, ससुराल पहुँचते-पहुँचते।
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सार्थक दीक्षित हिंदी कविता की सबसे नयी पीढ़ी से आते हैं और बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी में द्वितीय वर्ष के छात्र हैं। उनसे 262anshuman@gmail.com पर बात हो सकती है।