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कविताएँ ::
अपूर्वा श्रीवास्तव

कई सदियों की उदासी

पीढ़ी दर पीढ़ी उतरती है उदासी
स्त्रियों के भीतर

जिम्मेदारियाँ सौंपते हुए पुरखिनें
सौंप देती हैं
अपने हिस्से की उदासी भी
जैसे उन्हें सौंपा गया होगा कभी

जिसे ढोते
वे बनती गईं वह
जो होना उनके होने में कभी नहीं था शामिल

मेरे भीतर भी बैठी है कई सदियों की उदासी
जिसे साझा करती हूँ मैं
कविताओं संग

कागज़ सोख लेता है उसे
और शब्द लगा लेते हैं गले

सोचती हूँ
जाते हुए क्या देकर जाऊँगी
कुछ किताबें, बस?

पृथ्वी के उस पार

दुःख ढूंढता है ―
कंधा
जैसे माँ अपनी माँ को
पिता एकांत
और
ढूंढती हूँ मैं
तुमको।

पशु भी रहते हैं झुंड में
अपनी प्रजाति के अन्य पशुओं के साथ
उग आती है बहुत-बहुत घास
किसी एक ही स्थान पर

सबका ईश्वर भी रहता है
ऊपर, एक साथ

पृथ्वी सी ही
पृथ्वी का दुःख निवारने को
क्या, पृथ्वी के उस पार रहती होगी
एक और पृथ्वी?

आकृति

उजली रात डूब रही है
निबिड़ मौन में
हृदय में उठ रहा ज्वार ठंडा पड़ रहा
ऊंघ रही आत्मा
चढ़ बैठा है रात्रि-कार वट वृक्ष के पीठ पर

स्मरण हो आती है
तुम्हारी चीख
उस चीख में दबा मेरे नाम का पहला अक्षर
अ.. आ.. आ…
(हाँ मुझे मालूम है तुम करते होगे याद अपनी उन प्रेमिकाओं को भी जिनसे प्रेम करते रहना संभव नहीं हो पाया)

नीरस जान पड़ता है हिय
छाती पर लोटने लगते हैं कई-कई साँप
आँखों में चुभ-चुभ रहा आकाश
समग्र तारों को पिरोकर पुतलियों ने
बना डाली तुम्हारी तस्वीर

इस तुमुल कोताहल के बीच
ताकती हूँ तुमको
ताकती हूँ अविरत

इतने में कूद पड़ा एक टिमटिमाता तारा
पृथ्वी के गर्भ में
बिखर गयी आकृति

तारे से कुछ नहीं मांगा मैंने
सब है―
जरूरत की प्रत्येक वस्तु
कमी है तो केवल सिर टिकाने को
तुम्हारे कंधे की

मेरे मृणाल
मेरे अवलंब
कहो कितनी बार स्वयं चलकर आएगा प्रेम
तुम्हारी चौखट पर?

•••
अपूर्वा श्रीवास्तव हिंदी की सबसे नई पीढ़ी से आती हैं। अपूर्वा बगोदर, झारखण्ड से हैं और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से स्नातक की पढ़ाई कर रही हैं। उनसे apurwa2602@gmail.com पर बात हो सकती है।

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