कविताएँ ::
सुमन शेखर
हममें से किसकी किस्मत बेहतर है?
जिसे सबसे ज़्यादा आज़ादी का हक़ है
उसके लिए तैयार की गईं
पारदर्शी भभकती ज़ंजीरें
जो झूलती जाती हैं जन्म से मरण तक
सभ्यता की हानि उसी समय होनी शुरू हुई
जब स्त्री पर लगाये गये ताले, नक़ाब और दीवारें
जीने की सुरक्षा,
हँसने-खेलने की सुरक्षा
उड़ने-गाने की सुरक्षा
चयन करने की सुरक्षा
उसके सपनों की सुरक्षा
देह और कोख की सुरक्षा
कहाँ है!
न घर में सुरक्षा, न बाहर ही संतोष
पिता-पति-भाई के नाम ख़राब होने से बचने की राह पर
हर घड़ी डर, ख़ौफ़ से भरी
पतले महीन धागे पर चलती हैं स्त्रियाँ
कितनी मुश्किलें हो सकती हैं,
इसे समझने के लिए जीना होगा वैसा का वैसा जीवन
घुटन और दवाब से भरा हुआ
जानवरों पर फिर भी केवल एक लगाम होती हैं साहब
और स्त्री!
शोषण की सबसे पहली शुरुआत घर में करने वाले
अपने डरों की ज़िम्मेदारी आस-पास से क़ुबूल करवाते हैं
जिसे क़ाबू में रहना था
उसने बनाये क़ानून
जिसे जीना था बेख़ौफ़
फँसी है क़ानून और दरिंदों की नकेल से
संदेह, असुरक्षा और डर से घिरी पल-पल
एक लड़की जो चीखती रही रात के अंधेरे में
जाने कौन सी दुनिया, कौन से सपने में होगी गुम
जब उसका हुआ होगा बलात्कार
नींद और सपने के ख़ौफ़ को बाँटते-बाँटते हुआ होगा मरण
बदन पर डाले गए तेज़ाब और बज-बजाती उँगलियाँ
निचोड़ा गया खून
फाड़ डाले नींद में सोती लड़की की दोनों टांगें
आँखों में उतारा गया काँच
बदन से निचोड़े गये कपड़े
सब हुआ ख़त्म अचानक से
उसकी सिसकी, उसका डर, उसके बंधन,
और उसका शाप भी स्त्री होने का
दिन में देवी की पूजा हो
रात को उसे नोंच खाने की ऐंठन
क्या अब भी काम से थककर
नींद में सोना गुनाह था लड़की का!
जाते जाते वह ज़रूर मुस्कुराई होगी कहते हुए—
जाने का समय आ गया है*
वह समय आ गया है
जब मुझे मरने के लिए और
तुम्हें जीने के लिए जाना होगा
हममें से किसकी किस्मत बेहतर है?
केवल वही बता सकता है।
सारी कमेटियाँ, नीतियाँ और क़ानून
बंद दरवाज़े के भीतर अब भी जुटी है
कि कैसे बचाई जाये शाख़ पौरुषता की
नारे, वादे, झंडे, देश की सुरक्षा, बेटी की सुरक्षा, सब दिखावे हैं।
बलात्कारी के कृत्य को ‘पशुता’ कहना पशुओं के साथ नाइंसाफ़ी है**
सुअर तक ऐसी हरकत नहीं करता, आदमी करता है
जो इस संसार के अवरोधों को झेल जाता है***
वही महामानव है
जन्म से शुरू हुए लड़ाई में
आख़िर कब तक और किस दम तक जूझना होगा इन्हें!
(*सुकरात, **परसाई, ***नीत्शे)
बीते हुए दिन का कलाकार
(एक)
समय गुज़रा और वह भूले में शामिल होता गया
न उसने जीना आसान पाया
न मौत ही मौत ही तरह आई
मौत आने से पहले
उसे बहुत धीमी आंच पर सेंकती रही
कला जैसे-जैसे छूटती गयी
ज़िन्दगी ने उतना ही अधिक निचोड़ा
उसकी प्रतिभा ने उसे ज़िन्दगी दी
उसकी प्रतिभा ही उसका हिंसक बनी।
(दो)
एक अदद सी ख़ुशी के लिए
कई ख़ुशी के मौक़े मसलता रहा
उसकी धूल पर कई अजन्मी स्मृति का स्वाहा
माँ से किया वादा –
“कम से कम तुम्हें कभी अपनी कला में इस्तेमाल न करूँगा”
और इस वादे पर माँ की मंद मुस्कान..
अपने जल्दी ही भांप जाते हैं अपनों के झूठे वादे का दोष
वादा निभाना नही आया लेकिन करना भी नही छोड़ा।
(तीन)
ख़ुद को मैंने देखा ख़ुद के विपरीत हमेशा
जैसे उत्तरी ध्रुव को चाह हो दक्षिण को छूने की
जैसे आकाश को इच्छा हो धरती पर सर टिकाने की
जैसे मन की इच्छा हो सारे सपनों की पूर्ति
बहुत कुछ भी मुमकिन नहीं,
फिर भी इच्छाएँ पालना जुर्म तो नहीं!
देखा जब दूर खड़ा होकर, ज़मीन ढीली पड़ गई
क्या होना था और क्या होता गया!
दोनों के बीच की दूरी में लंबी दूरी
इतना भयंकर सूखा पड़ा आँखों में
रोने पर आँसू नहीं ग्लानि निकले।
खोई हुई पांडुलिपि की तलाश
इतना जीकर भी कहीं पहुँच पायेंगे!
खोई हुई पांडुलिपि की तलाश में उठती है तेज़ सांस
सोया था बरसों से, जागा बस उसी समय
जाने कहाँ-कहाँ से गुज़रे और कितना-कितना जिया
पांडुलिपि भरी है दृश्यों से, जिसमें दर्ज़ है—
सर्दिले बिस्तर में पहाड़ों से छिटककर घुप्प से छुपती रौशनी
फड़फड़ाती चिड़ियों को उड़ता देख दोनों का एक साथ चहकना
तेज़ धूप से बचकर छाँव में एक-दूसरे के मुँह में डालना निवाला
पहाड़ की ऊँचाई से एक-दूसरे का नाम चिल्लाना, सुनने के लिए कान तेज़ करना
बारिश में बेधड़क बेपरवाह दौड़ना, छुपना, नहाना, काँपना
कोनों-कोनों तक की चाय की चुस्की और क़िस्सों का बांचना
सिहरती शामों में गर्म नाश्ते के लिए
गाँव भर के दुकानों को खटखटाना और भाग जाना
शांत रातों में, लापरवाह बारिश में डोलते पेड़ को देखना
खंडहरनुमा मकान में थकान को बदन से झाड़ना
कहीं दूर से कड़कती बिजली देख, थोड़ा और पास खिसक आना
आसमान में तैरते हैं तारे खोये खोये रात भर
टूटता जाता है कुछ भीतर सुबह की विदा को सोचकर
पिछली सारी दुनिया के भार से विमुक्त दुनिया का बसेरा
दर्ज है इस पांडुलिपि में
‘इस यात्रा का कोई अंत नहीं’
इसी उम्मीद में जिये हुए की पांडुलिपि बार-बार खुलती है
धीमे आँखें बंद किए पल पल की जुगाली करता हूँ
हवा में पन्ने पलटते हैं
बदन में झुरझुड़ी दौड़ जाती है
‘पन्ने पीले पड़ चुके’ दुहराता है मन
याद आता है सूक्ति वाक्य
‘जिया हुआ सुख आता है याद दुख की तरह’
तमाम नैतिकता चैतन्य की छाया है
भाव और आधार शब्द के कोप से जल रहे हैं
शब्द भूल चुका है अपनी गरिमा
शब्द भूल चुका है आत्मा के क्षरण की सीमा
पास बैठे, दूर बैठे
हर तरफ से उठती है जलते शब्दों की लपट ही लपट
शब्दों का जंगल जितना जलता है,
उतना ही बढ़ता भी जाता है
शब्द के पैरों तले लहूलुहान आत्मा रौंदी जाती है
हासिल कुछ भी नहीं
अपनी चोट को कम करने के लिए फेंका गया तीखा शब्द
वापस और तीखे धार के साथ गिरता है
युद्ध चलता रहता है किसी बड़े हानि के आ गिरने तक
हर शब्द के पीठ पर जंगल है
यातना, पीड़ा और हताशा का जंगल
जंगल उगा है दोनों की ही आत्मा पर
हर शब्द दोनों की ही आत्मा को पैना
और पैना,चोटील करता जाता है
धीरे-धीरे लहू से सनी आत्मा
उस वन में फंस कर लिथरने लगती है
तमाम नैतिकता चैतन्य की छाया है
शब्दों की गरिमा
न कह कह पाने वालों से सीखनी चाहिए
एक पागल बाबा ने कहा था—
धर्म और पूजा पाठ निजी घटना है
और कर्तव्य बहुत ही बेढंगा सा शब्द
किसी से प्रेम करना और निभाना अगर कर्तव्य है
तो सिवाय दुख, रोष, हानिबोध के हासिल कुछ भी नहीं
प्रेम पाने-देने की लालसा में
प्रेम, करुणा और उल्लास ही छूटते हैं सबसे पहले
कर्तव्य व्यक्तिगत भावनाओं के ज़ाहिर का क्षरण है
हँसना और जीना भी कर्तव्य हैं क्या!
ईश्वर महा दैत्य है
दैत्य से लड़ने के लिए दैत्य की ज़रूरत नहीं बंधु
बातों का आधार सटीक और मौलिक न हो
तो सारी लड़ाई शोषण तक आ टिकती है बराबरी से
कहना न पड़ेगा कि शोषण के भी मत भिन्न हैं।
कहाँ हैं वे आँखें!
(उदय प्रकाश को पढ़ते हुए)
ऑफिस में काम करती हुई लड़की
आठ घंटे की शिफ्ट में आठ सौ बार नंगी होती है
अपने ही साथियों के सामने
उसके केबिन से बाहर के दरवाज़े तक
लंबी-लंबी रस्सी तनी है आँखो की
एक लड़की
जो सड़क पर गुड्डे बेचती है
अभी अभी उसका हुआ है बलात्कार एक महँगी कार वालों के हाथ
एक बच्ची
जो घर में खेल रही है छुप्पन-छुपाई का खेल
स्कूल से जल्दी लौट आने पर
उसे उसके रिश्तेदार ने छुआ है अभी-अभी गली के मुहाने पर
एक बुढ़िया
जो शाम से बैठी थी मस्जिद के सामने हाथ फैलाए रोज़ की तरह
उसकी हथेली पर गिरा है सफ़ेद गाढ़ा द्रव
कुछ लड़के अभी-अभी अपनी पेंट की चैन चढ़ाकर निकले हैं
एक औरत
जिसके साथ सुबह से शाम तक हुआ है बलात्कार
कई-कई बार आँखों और हथेलियों से
वह अब भी चलने को लाचार है
आँखें फेरते हुए भेड़ियों से भरे
इस बीहड़ जंगल में
एक लड़की
जिसने बहुत यक़ीन के साथ
रात को अपने दोस्तों के साथ पहली बार शराब की एक घूँट ली बंद कमरे में
सुबह उसकी देह दर्द से भरी और गीली पाई गई, और दोस्त ग़ायब
एक मॉडल
जो बीते कई दिनों-सालों से जूझ रही है ख़ुद को बचा पाने
और कहीं ठीक-ठाक सी फ़िल्म में दिखे जाने के लिए
ऑफिस और कैफ़े में हर मीटिंग में सामने वाले की नज़र
मॉडल की जाँघ और सीने को कुतरती जाती हैं
शादी कर बिस्तर पर अभी-अभी गिरी लड़की
जिसने अब तक बचाये रखी थी अपनी अस्मिता और
कुंवारेपन से देखे थे अपनी पहली रात के हसीन सपने
कुण्डी चढ़ाकर पल भर में ध्वस्त हो गई अपने मर्द के हाथों
नहीं पूछ सकती है कोई भी सवाल
नहीं उठा सकती है उँगली कहीं और सिवाय ख़ुद के
यही तो देखा है बचपन से
सदियों से सेंक-पका रही है अपनी देह को निवाले के लिए
नहीं है कोई वजूद उसके दुख का कहीं
सन्नाटे में बड़बड़ाती हुई लड़कियाँ किसी भी उम्र में
दुनिया के किस कोने में हैं सुरक्षित!
कहाँ है वह हाथ जो बचा सके लुट जाने से!
कहाँ हैं वे आँखें,
जिसे देख बच जाये संतोष और सुरक्षा की उम्मीद!
क्या कोई भी लड़की बच पाई है शेष
लिजलिजाती-बजबजाती नज़रों से
छोटे-छोटे दैनिक बलात्कारों से!
कहाँ रह गई है कमी!
मृत्यु
दिन-ब-दिन ख़र्च होती ज़िन्दगी
बढ़ती जाती है मृत्यु के दरवाज़े की तरफ़
सांसों के गुबार के पूरे ख़त्म होने तक
मृत्यु बैठी रहती है इंतज़ार में
कि उसकी बारी आए
और एक झटके में ख़त्म कर दे सारी लीला
उबले ख़ून सी बहती नदी
उफ़ाने मार कर लांघ रही है भीतर नसों को
गर्म, बहुत गर्म
इतनी गर्म
कि ज़ोर गर्माइश पर
मौत तक पहुँचने के पहले ही
खींच जाती है गाड़ी की चेन
और ज़िंदगी की गिनती
सदियों की मौत में रेंगते ओझल हो जाती है
मैं भी सांसों के एक-एक बुलबुले को
छोड़ना-पकड़ना चाहता हूं अपना हक़ जानकर
मेरी मौत स्वभाविक होते-होते
कब अस्वभाविक मौत की तरफ़ मुड़ जाएगी
मुझे नहीं मालूम
जिस तरह जाते-जाते हुए
कोई आँखों से ओझल हो जाता है
मैं वैसे नहीं जाऊंगा
मेरा जाना इतना अस्वभाविक होगा
जैसे हवा का भरा गुब्बारा था
सो फूट गया
और इतनी बड़ी सी दुनिया में
गिनती के जो कुछ मेरे होंगे
चुनकर फेंक आएंगे मेरे जीवन के टुकड़े।
सुमन शेखर कवि और अभिनेता हैं। विभिन्न नाटकों और फ़िल्मों में अभिनय करने के अलावा इनकी कवितायें प्रमुख पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं। उनसे shekhers914@gmail.com पर बात हो सकती है।