गद्य : उत्कर्ष
बंदीगृह के झरोखे से :: भाग :१
यहाँ कोई गौरैया नहीं दिखाई देती. यहाँ कोई कोयल भी नहीं. हालाँकि जिसने कभी गौरैया ना देखा हो, या कोयल की कूक भी ना सुनी हो, इस अनुभव के स्वाद को कैसे जान सकता है! यहाँ दीवारें इतनी लम्बी हैं कि सूरज दोपहर को थोड़ा ही झाँक सकता है भीतर, जैसे रौशनी को छाँटने की कवायद में उम्मीद के पर कतरे गए हों. यह है भी महल तो क्या, अट्टालिकाएँ भी हैं तो क्या, दीवारें तो इतनी बड़ी हैं कि विशेषण एकदम छोटा हो जाए.
बंदी साँसे गिन रहा है. एक एक कर. ऐसा नहीं कि बाहर शोर नहीं है. सालों से एक जैसा ही शोर. एक जैसा ही सन्नाटा. लेकिन इससे परे, उसके पास अपनी साँसों के कदमताल से संजीदा शायद और कुछ भी नहीं. शायद उम्मीद! लेकिन वह भी दीवार की छोटी सूराख में से निकलने का प्रयत्न कर रही है. बंदी सोच रहा है. हाँ, सोचने की छूट उसे है. मन के लिहाफ़ में भले ही अँधेरे का ज़ोर है, लेकिन विचार कई, करवट ले रहे हैं. जैसे दुनिया में बंदीगृह हैं कई, कई तरह के, लेकिन पुरुष के अहम् के भीतर बैठा वो बड़ा सा बंदीगृह कितना विशाल! कि कह नहीं सकते एक शोक-गीत में इसकी परिधि के विस्तार की कथा! वो एक सवाल पूछना चाहता है? कई सवाल उसके भीतर जंग खाए बैठे हैं. सवाल पूछता है तो जैसे ध्वनि किसी गोलाकार गुफ़ा में सिफ़र की ओर दौड़ लगाती है.
“मनुष्य, तुम जो कोई भी हो. मेरे ही प्रतिरूप हो. तुमने क्यूँ बनाया बंदीगृह? बाहर अपने मन के उतना ही विशाल, जितना अपनी सूक्ष्मता में भीतर तुम्हारे. तुमने इस बंदीगृह की कितनी परतें बना डाली हैं. जहाँ से मैं देख रहा हूँ. तुम्हारी हर परत में कुछ न कुछ ज़ब्त है. कहीं कोई पतंग अटकी पड़ी है. किसी में कोई आवाज़ दफ़्न है. कहीं से कोई सवाल झाँकता है. तो कहीं अधखुली नींद में से कोई खंडहर निकल भागने की कोशिश कर रहा है. क्या तुम अपने गीत अकेले सुनने के आदी हो चुके हो? क्या तुमने अपनी सीमितता से समझौता कर लिया है? खैर…”
झरोखे से कोई आवाज़ ताक रही है बाहर. वही दृश्य. उजड़ रहे घर की जगह पर बन रही ईमारत. ईमारत की उजाड़ जगह पर कोई और निर्मित्ति. सभी में ऊँची दीवारें. ये जो इमारतें बन रही हैं, इनसे पहले खड़ी हो रही हैं ऊँची दीवारें. आवाज़ जितनी भी आवाज़ लगाए, दीवारों से टकराकर अपनी ही प्रतिध्वनि में गुम हो जाएगी.
इन कमरों में मौसम का भी पता नहीं चलता. न बरसात में सीलन ही होती है, न ही गर्मियों में इनकी दीवारें गर्म. जाड़े में कुहरे जैसी कोई चीज़ नहीं. ये सब तो सत्य है न? या फिर अर्धसत्य जो तुम देखना चाहते हो? या वो भ्रम जो तुम कभी स्पष्ट कर ही नहीं पाए? मैं सुन सकता हूँ दूर से सन्नाटे में से छन के आ रही है भूख की सिसकियों की आवृत्ति. मेरे पास तो तुम्हारी दी हुई रोटियाँ हैं लेकिन वो दीवार के पार जा नहीं सकतीं. जा भी सकीं तो भूख उससे नज़रें न मिला पाएगी और भले ही भूख़ कितनी बड़ी भूख़ ही सही, ख़ाली पेट सो जाएगी.
क्यूँ मिलाया तुमने रोटियों में इत्र? खैर…
दीवार के कोने में रेंग रही है एक छिपकली. दूसरे कोने में कोई और. झरोखे से भीतर आती-जाती रहती हैं छिपकलियाँ. इनके लिए उतनी जगह भी काफ़ी है. शायद इसलिए भी कि उनके आने-जाने पर किसी को कोई आपत्ति नहीं. जहाँ तक उनका प्रवेश बंदीगृह के निर्माणकर्ता के कक्ष में न हो! बंदी सोचता है. ऊँघता है. उठकर सोचता है फ़िर वही कि ये विचार भी छूट न जाए…
” सूक्ष्मता कितनी आज़ाद जगह होती होगी. प्रकृति में कितने ही सूक्ष्म जीव. जिन्हें हम देख नहीं सकते. और इसीलिए उनपर नहीं बिठा सकते पहरे! लेकिन मनुष्य इतना सीमित क्यूँ रहे, बनाया उसने सूक्ष्मदर्शी यंत्र, बिठाया उसने आँखों के सामने सूक्ष्मता को अपने पर्याय के समक्ष भी.”
बंदी स्त्री और पुरुष की नियतता से परे है. वो कोई भी है. है तो बंदी. बंदी एक वो जो बाहर है. एक वो जो भीतर बंद. बाँधनेवाला बाँधने की ज़िद में बंदी. बंधा हुआ बस उतना ही जितनी छोटी रस्सी, या जितना लघु वह मान लेता है बंदीगृह को!
बहुत बरसात पड़ रही है. इसका ज्ञान इसलिए क्यूँकी आज एक दीवार टूट गई बाढ़ के दबाव से. ऐसी बाढ़ जिसपर बाँधनेवाला अंकुश न लगा सका और बाढ़ में घिर गया और ऊबकर डूब गया अपनी सीमित गहराई के अनंत प्रश्न के भँवर में.
क्रमशः
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उत्कर्ष कविताएँ लिखते हैं. प्रस्तुत गद्य में लेखक ‘बंदीगृह’ की सूक्ष्म और विराट, दोनों परतों को चेतन और अवचेतन रूप से समझने की कोशिश करते हुए दिखाई पड़ते हैं. साथ ही, यह गद्य ‘बंदीगृह’ की परिभाषाओं के नए इलाके में घूमता हुआ भी प्रतीत होता है. उत्कर्ष से yatharthutkarsh@gmail.com पर सम्पर्क किया जा सकता है.