उद्धरण : प्रो. कृष्ण कुमार
चयन और प्रस्तुति : राकेश कुमार मिश्र
प्रो. कृष्ण कुमार प्रसिद्ध शिक्षक और लेखक हैं। वे दिल्ली विश्वविद्यालय से एक लंबे समय तक जुड़ें रहे हैं। राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद(एन.सीई.आर.टी) के निदेशक रह चुके हैं। भारत और पाकिस्तान में शिक्षा पर उनकी दो पुस्तकें, मेरा देश तुम्हारा देश (2007) और शांति का समर (अनुवादक: लतिका गुप्ता) चर्चित रही हैं। उनकी इधर की पुस्तकों में चूड़ी बाज़ार में लड़की (2017), कुछ सत्य, कुछ सुंदर (2017) और काठगोदाम (2018) तथा बच्चोंके लिए पूड़ियों की गठरी (2017) शामिल है। पढ़ना, ज़रा सोचना (जुगनू प्रकाशन, 2019) उन्होंने तक्षशिला के बाल साहित्य सृजनपीठ कार्यक्रम के तहतलिखी है। यहाँ प्रस्तुत उद्धरण उनकी इसी पुस्तक पढ़ना, ज़रा सोचना से चयनित हैं।
अध्याय एक और दो : पढ़ना, बचपन और साहित्य (1), पढ़ना और पढ़ाई (2) से—
कहीं न कहीं लेखक की उपस्थिति पढ़ने में शामिल रहती है, यह एक छोटा–सा मगर महत्वपूर्ण निष्कर्ष हमें मिला।
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पढ़ने का रहस्य यही है कि उसके ज़रिए हम लिखने वाले के मन में की बात जान सकते हैं।
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पढ़ना एक खिड़की की तरह है जो फिलहाल बन्द पड़ी है मगर हमारे प्रयास से खुल सकती है। जो पढ़ नहीं सकता, उसके लिए वह खिड़की बन्द ही रहेगी।
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जब हम पढ़ते हैं तो किसी न किसी का लिखा हुआ पढ़ते हैं। हम यह मानकर चल सकते हैं कि लिखनेवाले ने जो कुछ लिखा है, किसी न किसी पाठक को ध्यान में रखकर लिखा है।
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पढ़ना एक निजी प्रक्रिया है। लिखे या छपे हुए शब्दों से हम जो भी अर्थ निकालते हैं, वह हमारा दिया हुआ अर्थ होता है।
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‘पढ़ाई’ में ‘पढ़ना’ महज एक प्रारम्भिक क्रिया है। असली काम उसके बाद ही चालू होता है जिसे ‘मेहनत करना’ कहते हैं।
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पढ़ना मूलतः जिज्ञासा के सहारे आगे बढ़ने वाला काम है। ‘पढ़ाई’ और ‘पढ़ना’ एक प्लेटफॉर्म से छूटकर बिल्कुल विपरीत दिशाओं में जानेवाली गाड़ियाँ बन जाती हैं।
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हमारे समाज में घर में किताबें रखना सामान्य होने का लक्षण नहीं माना जाता।
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किताबों को आमतौर पर साधनवादी दृष्टि से देखा जाता है। साधनवादी दृष्टि से आशय है किसी लक्ष्य को पाने के साधन की तरह देखना, न कि अपने आप में लक्ष्य मानना।
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बच्चों से अब यह अपेक्षा की जाने लगी है कि वे अपना सारा समय ऐसी चीजों में खर्च करें जो उन्हें जीवन में आगे बढ़ने में मददगार हों।
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अध्याय तीन और चार: वाचन और पाठ (3), पढ़ना, सोचना और डिजिटल ज़माना (4) से—
वाचन का संबंध पाठ से है, इसमें कोई संदेह नहीं है, और दोनों शब्द इस बात की याद दिलाते हैं कि पढ़ना पहले के समय में उतना आम नहीं था जितना आज माना जाने लगा है।
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बंगाल और केरल में जितनी संख्या में किताबें पढ़ी जाती हैं, वह उत्तर भारत में अनोखी लगती है। हिंदी में किताबें बहुत मात्रा में प्रकाशित होती हैं, पर एक पुस्तक की कुल पाठक संख्या दो हज़ार पार कर जाए तो बहुत बड़ी बात मानी जाती है।
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अंग्रेज़ी व यूरोप की अन्य भाषाओं में एक किताब लाखों में बिके और पढ़ी जाए, यह कोई असामान्य बात नहीं है। भारत में मराठी, मलयालम और बांग्ला में किताबें पढ़ने का चलन हिंदी से ज़्यादा है।
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वाचन की संस्कृति में ध्वनि का महत्व होता है। यह महत्व मौखिक संपर्क की अनिवार्यता के कारण होगा, ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है। यदि एक व्यक्ति कुछ पढ़कर दूसरों को सुना रहा है तो इस स्थति में सुनने वालों के बीच संबंध बनता है।
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क्या ‘पढ़ना’ सिर्फ एक कौशल है; बेहतर प्रश्न होगा कि क्या ‘पढ़ना’ एक विशेष तरह का कौशल है जिसे सीखने का उद्देश्य केवल दक्षता पाना नहीं है?
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सबसे बड़ा प्रश्न इस संदर्भ में यही है कि पढ़ने की शिक्षा में ‘सोचना’ शामिल है या नहीं। शिक्षा में यदि सिर्फ पढ़ना शामिल है और सोचना नदारद है, तो तरह-तरह की सामाजिक दुर्घटनाएँ होना लाज़िमी है। इन दुर्घटनाओं में दूसरे की बात समझे बिना अपनी प्रतिक्रिया दाग देना, पढ़कर अर्थ की जगह अनर्थ समझ बैठना, मर्म से वंचित रहना और पढ़ते वक्त दस अन्य बातों पर ध्यान जाने देना शामिल हैं। ये दुर्घटनाएं पहले भी होती थीं, पर आज पहले से ज़्यादा हो रही है। इसका मुख्य कारण है रफ्तार पर ज़ोर, जो डिजिटल युग में यकायक बढ़ गया है।
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अमरीकी संज्ञानविद मेरीयेन वुल्फ़ ने अपने और अन्य लोगों के शोध के आधार पर अपनी हाल की पुस्तक रीडर, कम होम (Reader Come Home)(2018) में लिखा है कि डिजिटल माध्यमों से पढ़ने में एसे कुछ महत्वपूर्ण तत्व अपेक्षाकृत कमज़ोर स्थिति में नज़र आते हैं जो कागज़ पर छपी हुई किताब या अन्य सामग्री पढ़ने में संभव बनते हैं। गहन रूप से पढ़ना जो समीक्षाई सोच को संभव बनाता है, डिजिटल माध्यमों के आदी विद्यार्थियों में विकसित करना मुश्किल पाया गया है।
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सूचनापरक लाभ के लिए डिजिटल माध्यमों पर पढ़ सकना और साहित्यिक अनुभव और संज्ञानात्मक विकास के लिए पारंपरिक माध्यम, जैसे किताब को धीरे-धीरे ध्यान देते हुए पढ़ना, ये दोनों ही ज़रूरी हैं।
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जो लोग बच्चों के साथ काम करते हैं, वे इतना अवश्य कर सकते हैं कि पढ़ने का माहौल बनाने के काम में सोचने का माहौल बनाने पर भी ध्यान दें।
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पढ़ने का मकसद यदि किताब पढ़ने की आदत का विकास है, तो इसके लिए चर्चा करने को एक औपचारिक अनिवार्यता न बनाना ही श्रेयकर है।
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राकेश कुमार मिश्र हिंदी के कवि और गद्यकार हैं। हाल के दिनों में उन्होंने किताबों और लेखकों की विशिष्टाओं पर कई लेख भी लिखे हैं और साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में अपना नाम बना रहे हैं। उनसे rakeshansh90@gmail.com पर बात हो सकती है।
