कविता : संजय कुन्दन
एक था कवि
एक था अकवि
दोनों एक ही शरीर में रहते थे
कवि कविताएं लिखता
और बिखरा देता
अकवि उन्हें सहेजता
और भेज देता पत्रिकाओं में
कवि दिन भर भटकता
शहर की गलियों में
रात भर जागता एक तारे के साथ
और डूब जाता उसी के साथ
अपने ही भीतर के बियाबान में
अकवि सज-धज कर गोष्ठियों में जाता
संपादकों से मिलता
उन्हें शराब पिलाता
आलोचकों, वरिष्ठ कवियों की परिक्रमा करता
उन पर अपने शब्द
फूल और अक्षत की तरह चढ़ाता
कवि अकसर किसी पीड़ित आदमी के
दुख के बुखार में तपता रहता
कभी किसी खौफनाक खबर की चोट से लहूलुहान
कई दिनों तक चुप रहता
और छेनी- हथौड़ा लिए भाषा को
तराशता रहता
अकवि रोज अलग-अलग
मुद्राओं की अपनी तस्वीर
फेसबुक पर डालता
वह हर लेखक की हर टिप्पणी
और हर रचना को
आंख मूंदकर लाइक करता
एक दिन उसे अहसास हुआ
असली काम तो वही कर रहा है
फिर कवि तो मुफ्त का नाम कमा रहा है
उसने कवि को साफ कह दिया
कि कल से वह कविता भी लिखेगा
अकवि की कविताएं धड़ाधड़ छपने लगीं
पुरस्कार उसकी झोली में पके आम
की तरह टपकने लगे
आने लगे साहित्य उत्सवों के आमंत्रण
वह सरकार से भी सम्मानित हुआ
और क्रांतिकारियों का भी लाडला बना
इस बीच उस कवि का क्या हुआ
वह कहां गया
किसी को नहीं मालूम.
[ संजय कुन्दन कवि-कथाकार हैं. इनसे sanjaykundan2@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है. ]
Lajawab
अच्छी कविता भाई, सामयिक, सोशल मीडिया और कवियों के सतहीपन को उजगर करती, वेबसाईट भी सुंदर कवित्वपूर्ण लगी, बधाई
शुक्रिया सर