व्याख्यान::
फ़रीद खाँ 

[यह व्याख्यान चर्चित कवि एवं पटकथा-लेखक फ़रीद खाँ ने इंद्रधनुष द्वारा 25 मई 2024 को पटना में आयोजित “कथा – पटकथा कार्यशाला” में दिया था। यह कार्यशाला पटना स्थित आइ एम ए हॉल में आयोजित की गयी थी और इसमें बड़ी संख्या में युवा लेखकों और छात्रों ने भाग लिया। ]

भारत के लोगों को कथा लिखने में और कथा कहने में महारत हासिल है। घर घर में कथा होती है। इसलिए कथा लिखने या कहने में दिक्कत नहीं होती है। दिक्कत होती है सिनेमा माध्यम के लिए लिखने में यानी कथा दिखाने में। हालांकि हमारे यहाँ नाटक की समृद्ध परंपरा रही है फिर भी मैं यह कह रहा हूँ।पटकथा पर आपको ढेरों किताबें मिल जाएंगी। कुछ इंटरनेट पर भी मिल जाएंगी इसलिए यहाँ किताबी बातें नहीं करूँगा। मुंबई के शुरुआती दिनों में मुझे एक टीवी सीरियल में संवाद लिखने का काम मिला। किसी भी नये लेखक को सबसे पहले संवाद लिखने का ही काम मिलता है, इसके अपवाद हो सकते हैं, क्योंकि कथा और पटकथा लिखने के लिए अनुभवी लेखकों को काम दिया जाता है और संवाद सबसे आख़िरी में लिखना होता है जिसमें सामान्य तौर पर सिर्फ़ भाषा पर काम करना होता है। तो जब मैं संवाद लिखने लगा तो बार बार मुझे फ़ीडबैक मिल रहा था कि आप बहुत ‘हिंदी टाइप’ लिख रहे हैं। थोड़ा बोल चाल की भाषा में लिखिए। मैंने पूछा, ‘हिंदी-टाइप’ मतलब? तो बताया गया कि ऐसा लग रहा है जैसे किताब पढ़ रहे हैं। मैं इस बात पर झुंझला रहा था। दूसरी जगह से भी ऐसा ही फ़ीडबैक आया। तो मैं परेशान हो गया। काम छिने जाने की तलवार हमेशा लटकी रहती है। तब एक ज्ञानी सज्जन, जो मुझे और मेरी पृष्ठभूमि को जान चुके थे, मुझ से मिले और उन्होंने बताया कि दिक्कत भाषा की नहीं है।  “दिक्कत हिंदी साहित्य पढ़ कर या लिख कर आने वालों के साथ होती है। वे जयशंकर प्रसाद या मोहन राकेश की तरह लिखने और बोलने लगते हैं। सिनेमा या टीवी दृश्य के साथ साथ श्रव्य माध्यम भी तो है। सुनने के माध्यम में बोलने की भाषा जब तक नहीं लिखी जाएगी तब तक उसका कोई अर्थ नहीं है। साहित्यिक हिंदी में ‘अमूमन’ ध्वन्यता का अभाव है।” उन्होंने इसका उदाहरण भी दिया – अब “अधिकार सुख कितना मादक और सारहीन है” [नाटक : चन्द्रगुप्त, ले. जयशंकर प्रसाद] यह उनके नाटक की पहली पंक्ति है। यह पढ़ने में अच्छी लगती है। इससे अच्छी अभिव्यक्ति दुर्लभ है, मैंने अपने कविता-लेखन में भी इसका उपयोग किया है, पर नाटक पढ़ने की चीज़ तो है नहीं। इसीलिए जयशंकर प्रसाद के नाटक सामान्यतः नहीं खेले गये। अपवाद स्वरूप बी.वी. कारंथ और गोरखपुर में गिरीश रस्तोगी ने उनके नाटक किये।पर वे अपवाद ही रहे। उसी तरह सिनेमा की स्क्रिप्ट भी पढ़ने की चीज़ नहीं है। यह पोपुलर मीडियम है। इसमें ऑडियो है। डायलाग है। संवाद है। यानी दो या दो से अधिक लोगों की बातचीत है।”  तब मुझे महसूस हुआ कि मैंने अपने लिए कुछ बाधाएं खड़ी कर रखीं हैं। मेरे भीतर लोकप्रिय साहित्य या लोकप्रियतावादी साहित्य का ज़बरदस्त विरोध था या निषेध था।आप ख़ुद देखिये, यहाँ गुलशन नंदा और सुरेन्द्र मोहन पाठक को दोयम दर्जे का भी लेखक नहीं मानते हम। लेकिन बेहतर उदाहरण होगा गीतकार शंकर शैलेन्द्र का जिन्होंने अद्भुत गीत लिखे लेकिन साहित्य समाज उनको कवियों की सूची में रखता ही नहीं है। मुझ से भी जब भी कोई पूछता है कि अपने प्रिय कवि का नाम बताईये तो उसमें कभी शंकर शैलेन्द्र का नाम नहीं होता था। जबकि उर्दू में लोकप्रिय साहित्य और लोकप्रियतावादी साहित्य की लंबी परंपरा रही है। जैसे ग़ज़ल इसीलिए लोकप्रिय है क्योंकि उसमें संबोधन और बात करने का अंदाज़े बयान है और उसमें गंभीर साहित्य भी लिखा या कहा गया है।
तो यहाँ यह याद रखना है हमें कि सिनेमा एक दृश्य – श्रव्य माध्यम है।

इसलिए अपवादों को अगर छोड़ दें तो गीत और संवाद लेखन में उर्दू जानने वाले लेखक ज़्यादा कामयाब रहे हैं, हिंदी लेखकों की अपेक्षा। लेकिन ……… कब तक ? जब तक गीतों और संवादों का महत्त्व था। पर अब उर्दू वाले भी उतने कामयाब नहीं हैं।जितने कभी सलीम जावेद या गुलज़ार हुआ करते थे। ऐसा क्यों ? क्योंकि जब तक कहानी कहने और सुनने की बात थी तब तक कोई दिक्कत नहीं थी लेकिन जैसे ही कहानी देखने और दिखाने की बात आई ….. जब शेखर कपूर ने बैंडिट क्वीन बनाई या दक्षिण से रामू जैसे फ़िल्मकार आए या उसके बाद अनुराग कश्यप, इम्तियाज़ अली, तिग्मांशु या विशाल भारद्वाज जैसे फ़िल्मकारों ने आकर परिदृश्य बदल दिया, तो अभिनय और स्क्रीनप्ले पर ज़्यादा ज़ोर दिया जाने लगा। इसलिए अब यह जानना ज़रूरी हो गया था कि स्क्रिप्ट लिखने वाले को कौन सी प्रतिभा विकसित करनी है। एक बात चलते चलते यह ज़ेहन में रख लेना चाहिए कि सिनेमा में केवल लेखक ही लेखक नहीं होता।लेखक के अलावा निर्देशक भी लेखक होता है, सिनेमाटोग्राफ़र भी लेखक होता है, एक्टर भी लेखक होता और अंत में एडिटर भी।अंतिम समय तक अलग अलग तकनीशियन अपने अपने स्तर पर कहानी को उत्कृष्ट बनाने की कोशिश करते रहते हैं। कथा दिखाने की हमारे पास जो विधाएं या माध्यम हैं वे हैं – नाटक, फ़िल्म, और कुछ हद तक ग्राफ़िक नॉवेल और कॉमिक्स।पर फ़िलहाल हम जीते जागते चरित्रों की बात करेंगे इसलिए कॉमिक्स और ग्राफ़िक नॉवेल को यहाँ छोड़ते हैं। एक हद तक नाटक में कथा कहते भी हैं और कर के भी दिखाते हैं।जिसे हम दृश्यों के रूप में देखते हैं।लेकिन ज़्यादा से ज़्यादा यथार्थवादी दृश्यों में कहानी दिखाने और दर्शकों को उसका अनुभव करवाने का काम केवल फ़िल्मों में ही होता है। अब हम दिखाने और अनुभव करवाने की दिशा में चलते हैं। आपने देखा होगा कि फ़िल्म की स्क्रिप्ट को इंग्लिश में स्क्रीनप्ले कहते हैं और हिंदी में पटकथा कहते हैं। यह अनुवाद है। फ़्रेंच में स्क्रीनप्ले को सीनारियो भी कहते हैं। स्पेनिश में भी।पर मुझे लगता है कि हिंदी में इसके लिए ‘पटकथा’ अनुवाद ग़लत है। आईये, ‘स्क्रीनप्ले’ शब्द के स्रोत को समझने के लिए इसका संधि विच्छेद करते हैं – स्क्रीन और प्ले। प्ले क्या होता है? स्टेज [मंच] पर जो प्ले होता है उसे प्ले कहते हैं और स्क्रीन [पर्दा या पट] पर जो प्ले होता है उसे स्क्रीनप्ले कहते हैं। इस हिसाब से हिंदी में देखिये, मंच पर जो नाटक होता है उसे नाटक कहते हैं तो पट [पर्दा] पर जो नाटक होता है उसे पट-नाटक कहना चाहिए था।पर जिसने भी या जिस भी दौर में यह अनुवाद हुआ वह निश्चित ही नाटक, नौटंकी, भड़ैती आदि को निकृष्ट मानता होगा। उस पर एक विशेष प्रकार का पवित्रतावाद हावी होगा। वरना सिनेमा तकनीक और माध्यम से निकला हुआ शब्द पटकथा तो नहीं ही हो सकता है। तो इसके अनुवाद में एक पवित्रतावाद है।इस पवित्रतावाद को पुष्ट करने के लिए बस एक उदाहरण – स्वतंत्र भारत में जब आकाशवाणी की स्थापना हुई तो सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने निर्णय लिया कि इस में फ़िल्मी गाने नहीं बजाए जाएंगे। क्योंकि यह सतही संगीत होता है। तब रेडियो सीलोन पर बिनाका गीतमाला शुरू किया गया और वह जब ज़बरदस्त हिट हुआ तब मंत्रालय को अपनी ग़लती का अहसास हुआ होगा। तब विविध भारती की स्थापना की गई। तो सिनेमा के ‘हिंदीकरण’ में भी यही पवित्रतावाद रहा होगा।

जिन जगहों पर सिनेमा का आविष्कार और विकास हुआ उन जगहों पर सिनेमा की शब्दावली सिनेमा की तकनीकी विशेषताओं से विकसित हुईं।जैसे सिनेमा में स्क्रीन होती है और उस पर प्ले होता है इसलिए स्क्रीनप्ले शब्द अस्तित्व में आया। अब स्क्रीनप्ले या पट-नाटक को समझने के लिए हमें दृश्यों को समझना चाहिए। सिर्फ़ दृश्यों को। जिसमें संवाद न हों तो बेहतर है। इससे समझना आसान होगा। इसके लिए हमें छोटी फिल्मों में ‘बायपास’, और बड़ी फ़िल्मों में, ‘पुष्पक’ और चार्ली चैपलीन की फ़िल्में देखनी चाहिए। इन फ़िल्मों से आपको स्क्रीन पर प्ले या नाटक क्या होता है, समझ में आता है। इन फ़िल्मों को देख कर आप समझ सकते हैं कि प्ले या नाटक में कार्य अथवा एक्शन एक अनिवार्य शर्त है। मंच पर खेले जाने वाले नाटक में या परदे पर उस कार्य [एक्शन] को घटित होता हुआ हम देखते हैं। उससे दर्शक के रूप में अनुभव प्राप्त करते हैं। ये सब कुछ एक या एक से अधिक जीवित किरदारों के द्वंद्व से संभव होता है। मंच के नाटक में जहाँ हम एक तरफ़ जीवित अभिनेताओं को देखते हैं तो दूसरी तरफ़ सिनेमा में उन अभिनेताओं की तस्वीर को देखते हैं जो यथार्थ का आभासी अनुभव करवाता है। तो अब एक सरसरी नज़र डालते हैं स्क्रीनप्ले या पट-नाटक कैसे लिखते हैं?

लिखना शुरू करने के पहले कई बार मन में फ़िल्म के विषय के संबंध में विचार आता है। हालांकि मेरा मानना है कि कहानी के विचार के साथ साथ ही उसके विषय अथवा थीम का विचार आता है पर कई बार थीम पहले आ जाता है। इसका कोई बंधा बंधाया सिद्धांत नहीं है। फिर भी लिखने के पहले कोई ऐसी बात या मुद्दा सोचना पड़ता है जिसको सुनते ही फ़िल्म का अनुमान हो जाए। उस बात को ‘वन लाइन’ या प्रीमाईस [PREMISE] कहते हैं। प्रीमाईस [PREMISE] का मतलब आधार है। यानी फ़िल्म के आधार का बयान। इसे वन लाइन से समझते हैं। वन लाइन का आशय एक पंक्ति या एक वाक्य से नहीं है। बल्कि कहानी अथवा स्क्रिप्ट के अति संक्षिप्त सारांश से है। वन लाइन ही PREMISE है। वन लाइन यानी जिस तरह हमारी रीढ़ की हड्डी एक लाइन में होती और हमारे शरीर के आकार प्रकार को आधार देती है वैसे ही वन लाइन स्क्रिप्ट या पट-नाटक का आधार है या रीढ़ की हड्डी है। इसी पर फ़िल्म का ढांचा खड़ा रहता है। इसे लिखते समय फ़िल्म के मुख्य किरदार और उसका मुख्य द्वंद्व समझ में आना चाहिए या कहानी के अनोखेपन का ज़िक्र होना चाहिए। कई बार किरदार ही बहुत अनोखा होता है। जैसे ‘ब्लैक’ की नायिका। जैसे ‘स्पर्श’ का नायक। जैसे ‘तारे ज़मीन पर’ का बच्चा। कुछ भी। कुत्ता या मक्खी या डायनासोर कोई भी अनोखापन हो सकता है। कुल मिला कर यह अपनी कहानी और स्क्रिप्ट लिखने के पहले की स्पष्टता है। ताकि आप उससे इधर उधर न भटकें। फ़िल्म के निर्माता और कई बार निर्देशक भी केवल वन लाइन ही सुनना चाहते हैं। यह एक तरह का ‘सेलिंग पॉइंट’ है। वैसे तो वन लाइन स्क्रिप्ट लिखने के पहले बना लेनी चाहिए लेकिन कई बार लिखने के बाद भी वन लाइन बनाते हैं ताकि उस वन लाइन के हिसाब से काट छांट किया जा सके। कुछ वन लाइन के नमूने देखते हैं:

1
एक बादशाह [अकबर] अपने ताज की प्रतिष्ठा बचाने के लिए उस बेटे [सलीम] के बलिदान के लिए भी तैयार हो जाता है जिसे उसने बड़ी मन्नतों और मुरादों के बाद हासिल किया था क्योंकि उसका बेटा अपनी कनीज़ [अनार कली] से इश्क़ कर बैठा था और बग़ावत पर आमादा हो गया था। 

उपरोक्त वन लाइन में ‘मुग़ले आज़म’ के तीनों मुख्य किरदार और उनका द्वंद्व समझ में आ जाता है।

2

धीरे धीरे डूबते जलपोत पर रोमियो – जूलियट

यह टाइटैनिक का वन लाइन है। इसमें मुख्य किरदार और उनके द्वंद्व शेक्सपीयर के नाटक ‘रोमियो जूलियट’ वाले ही हैं बस उनके परिवेश या पृष्ठभूमि बदल गई है जो इसका अनोखापन है और वह है ‘पानी का जहाज़’ जिस पर पूरी कहानी घटित होती है।बदले हुए परिवेश और पृष्ठभूमि में रोमियो जूलियट के फ़िल्मान्तरण में कथा और पात्र बदलते चले गये।

3

फ़िल्म ‘मदर इण्डिया’ के ढाँचे में ‘गंगा जमुना’

यह ‘दीवार’ फ़िल्म की वन लाइन है। इसके लिए सुनने वाले को ‘गंगा जमुना’ और ‘मदर इण्डिया’ फ़िल्मों की जानकारी होनी चाहिए।

4

फ़िल्म ‘मेरा गाँव मेरा देस’ के ढाँचे में ‘सेवेन समुराई

यह ‘शोले’ का वन लाइन है।

इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि वन लाइन एक तरफ़ लेखक को अपने काम से भटकने नहीं देता है और दूसरी तरफ़ निर्माता – निर्देशकों को चुटकियों में स्क्रिप्ट समझ में आ जाती है। यह अभ्यास कहानी, उपन्यास और नाटक लेखन में भी किया जा सकता है।

इसका फ़ायदा होगा। अब स्क्रीन प्ले या ‘पट – नाटक’। यह तीन हिस्से में तैयार होता है।

  • पहला हिस्सा है – कहानी [स्टोरी]. असल में इसे प्लॉट्स या कथा वस्तु कहना चाहिए
  • दूसरा है [और हॉलीवुड के हिसाब से तीसरा भी] –  [पट – नाटक] स्क्रीनप्ले
  • तीसरा है – संवाद [डायलाग] जिसके बिना हिंदी फ़िल्म की स्क्रिप्ट पूरी नहीं होती

एक आध पश्चिम की फ़िल्मों में भी संवाद [डायलाग] का क्रेडिट देखा है पर यह अपने देश का एक सामान्य चलन है।

फ़िल्म की कहानी :

अब यहाँ यह समझना ज़रूरी है कि फ़िल्म के सन्दर्भ में कहानी क्या है ? कहानी फ़िल्म के लिए कच्चा माल है यानी प्लाट है। तो अगर लिखने के पहले यह तय कर रखा है कि यह कहानी फ़िल्म के लिए लिखी जा रही है तो उसे कच्चे माल की तरह ही लिखना चाहिए।  मैटर ऑफ़ फैक्ट की तरह। इसमें पात्रों का चरित्र चित्रण अलग से सूची बना कर भी लिखा जाता है। तो कच्चे माल से क्या मुराद है? मान लीजिये आपने बहुत महान साहित्यिक रचना पर स्क्रिप्ट लिखने की ठानी है।साहित्यिक रचना आपको बहुत पसंद है। उसको लेकर आपका सम्मान भी है। पर फ़िल्मान्तरण करने के पहले उसके आभा मंडल से हमें निर्ममतापूर्वक निकलना होता है। मैं उसकी आत्मा छोड़ने की बात नहीं कर रहा हूँ। अगर आत्मा छूट गई तो सारी कसरत बेकार है। साहित्यिक कृति से तो साहित्यिक रचना आपको उपयोगी किरदार और उनके उपयोगी कार्य [एक्शन] निकालने होते हैं। फिर उनको जोड़ने के क्रम में, जहाँ जहाँ प्रासंगिक हो, नये एक्शन भी लिखने होते हैं। क्योंकि उस साहित्यिक कृति में कई बार आपको एक्शन के विचार तो तो मिलेंगे लेकिन एक्शन नहीं मिलेंगे। जैसे उपन्यास ‘देवदास’ के अंतिम हिस्से में यह बात सूचना की तरह दर्ज है कि देवदास रेल गाड़ी से लाहौर गया, लाहौर से मद्रास और बॉम्बे भी गया और अंत में पारो के गाँव गया। लेकिन बिमल राय निर्देशित फ़िल्म ‘देवदास’ में ट्रेन के इस पूरे दृश्य को देवदास की बेचैनी का रूपक बना कर फ़िल्मान्तरण किया गया है। यह फ़िल्मान्तरण उपन्यासकार ने नहीं, पट-नाटककार ने किया है। ज़ाहिर सी बात है निर्देशक की सहमति से, क्योंकि फ़िल्मान्तरण की बागडोर उसी के हाथ में होती है। अब कार्य या एक्शन को समझने की कोशिश करते हैं।

सिनेमा में हम क्या देखते हैं ? दृश्य। याद रखिये, दृश्य तो पेंटिंग में भी होता है। लेकिन हम ठहरे हुए दृश्यों की बात नहीं कर रहे हैं, चलते फिरते हिलते डुलते दृश्यों की बात कर रहे हैं। सिनेमा में ढेरों दृश्य एक साथ मिल कर एक कहानी का अनुभव करवाते हैं। तो हम दृश्य किसके माध्यम से देखते हैं ? किरदारों के माध्यम से। जिन्हें अभिनेता निभाते हैं। एक भी पल ऐसा नहीं होता सिनेमा में जब परदे पर कोई किरदार न हो। जैसे साहित्य की कहानी में एक भी पन्ना ऐसा नहीं होता जिसमें शब्द न हों। तो अगर किरदार होंगे तो वे बोले चाहे चुप रहें लेकिन उनका होना तभी सार्थक होगा जब वे कुछ करेंगे। इसका मतलब क्या हुआ ? मतलब यह हुआ कि वे कोई कार्य या एक्शन करेंगे। मतलब यह हुआ कि चुनी गई कहानी से हम साहित्यिक वर्णन हटा देंगे और किरदारों के कार्य रख लेंगे। नहीं तो पात्र का कार्य या एक्शन हम ख़ुद बना भी लेंगे। शतरंज के खिलाड़ी के अंतिम दृश्य का वर्णन जिस तरह प्रेमचंद ने किया है उसे फ़िल्माया नहीं जा सकता जबकि प्रेमचंद के शब्दों से दृश्य उभरता है पर उसमें कार्य या एक्शन नहीं है। सत्यजीत राय ने जो अंत किया है उसमें एक्शन है। समझने के लिए एक बार कहानी पढ़ें फिर फ़िल्म देख लें और विस्तार से समझने के लिए जवरीमल्ल पारख की किताब – ‘साहित्य, कला और सिनेमा : अंतः संबंधों की पड़ताल’ ज़रूर पढ़ें। मैंने बहुत सारी बातें उस किताब से पढ़ कर ही कही हैं। उपन्यास ‘साहब बीबी ग़ुलाम’ में पूरा उपन्यास नहीं बल्कि केवल किरदारों की आपसी कहानी [समीकरण और द्वंद्व] ली गई है। उसी में किरदारों के एक्शन हैं।

सिनेमा चूंकि व्यावसायिक विधा है इसलिए उसे लागत निकालने के लिए लोकप्रिय भी होना पड़ता है। इसलिए दुनिया जहान के लोकप्रिय तत्त्वों का इसमें समावेश किया जाता है ताकि ज़्यादा से ज़्यादा दर्शक इसे देखें। इसलिए हमें हमेशा ऐसी कहानी की तलाश में रहना होता है जो सभी को नहीं भी तो ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को पसंद आए। इसीलिए हमें कहानियों के स्रोत के बारे में भी जागरूक रहना पड़ता है। कहानियों का सबसे बड़ा स्रोत तो हमारा अनुभव संसार ही है। अनुभव संसार से निकली कहानियों से ज़्यादा मौलिक कुछ नहीं हो सकता। फिर भी यह देखना बहुत ज़रूरी है कि इस दुनिया में कौन कौन सी कहानी या किस किस तरह की कहानी आज भी लोकप्रिय है। इसमें सबसे पहले आपको अपने पौराणिक आख्यान दिखेंगे। रामायण, महाभारत, लोक कथाएँ, दंत कथाएँ, जातक कथाएँ, पंचतंत्र, कथा सरित सागर, इतिहास और साहित्य आदि। इन तमाम साहित्य को पढ़ना भी कथा लिखने का प्रशिक्षण प्राप्त करना ही है। फिर आप ख़ुद ही महसूस करेंगे कि किसी कहानी को सामयिक बना कर पेश किया जा सकता है तो किसी कहानी के किसी पात्र को लेकर कोई दूसरी बिल्कुल नई कहानी रची जा सकती है। जैसे श्रीमद्भागवत महापुराण की कहानी है – कच और देवयानी की। उस कहानी का आधा हिस्सा इस्तेमाल करके हृषिकेश मुखर्जी की ‘नमक हराम’ और जेम्स कैमरून की ‘अवतार’ बनाई गई है या राजा ध्रुव की कहानी पर हिंदी फ़िल्म ‘त्रिशूल’। इन सभी कहानियों का अपने काल के हिसाब से रूपांतरण किया गया है। रूपांतरण करने के क्रम में वह कहानी नई कहानी बन जाती है क्योंकि उसमें आप अपना अनुभव पिरोयेंगे। पुरानी फ़िल्मों को नये अंदाज़ में लिखना और दो फ़िल्मों की कहानी मिला कर एक कहानी बनाना भी कहानी के अच्छे स्रोत हो सकते हैं। वन लाइन में हमने देखा भी है।

तो कहानी कैसे लिखेंगे ? सूचना की तरह। कच्चे माल की तरह। Matter of fact,  उसे ‘साहित्यिक’ बनाने के लिए निर्देशक, छायाकार, अभिनेता और संपादक हैं हमारे पास और सिनेमा तो वैसे भी निर्देशक का माध्यम है, उसी की रचना है। आप अगर साहित्यिक लिखेंगे तो कोई रोक नहीं लेगा, पर उसकी ज़रूरत सिनेमा माध्यम में नहीं है। दो माध्यमों के बीच के इस द्वंद्व को रेखांकित करने वाला एक मज़ेदार किस्सा जो बचपन में सुना था, पेश है – एक बार एक चित्रकार और एक उर्दू के शायर के बीच बहस हो गई कि शायरी बड़ी चीज़ है या चित्रकला ? उर्दू के शायर कुछ भारी पड़ रहे थे। तो उर्दू शायर ने ‘मीर’ का शेर दिया – नाज़ुकी उनके लब की क्या कहिये/ पंखुड़ी इक गुलाब की सी है – और कहा कि इस पर पेंटिंग बना कर दिखाओ।पेंटर ने कैनवास पर एक ख़ूबसूरत होंठ बनाया और बग़ल में गुलाब की एक पंखुड़ी। इस पर शायर ने कहा – होंठ और पंखुड़ी तो बना लिया लेकिन इस तस्वीर में ‘की सी’ कहाँ बना पाए ? मीर के शेर की सारी ख़ूबसूरती तो ‘की सी’ में है। तो समझने की ज़रूरत यह है कि ‘की सी’ केवल साहित्य में ही हो सकता है। दूसरे माध्यम में रूपांतरण करते हुए माध्यम की अपनी विशेषता का ध्यान रखना चाहिए। उसमें ‘की सी’ तो छोड़ना ही पड़ेगा। फ़िल्मों के लिए घटित होती हुई कहानियाँ लिखनी चाहिए या रूपांतरण में उसे घटित होने में तब्दील करना चाहिए ताकि दर्शकों को दो पात्रों के बीच घटित होने वाले द्वंद्व वर्तमान में घटते हुए दिखें।

पटकथा अथवा पट-नाटक :

सामान्य तौर पर फ़िल्में या ज़्यादातर कथाएँ तीन अंकीय ढाँचे में लिखी और बनाई जाती है – आरंभ, मध्य और उपसंहार। आरंभ में फ़िल्म का, उसके पात्रों का और फ़िल्म की दिशा का परिचय होगा। मध्य में कथा की जटिलताएं या द्वंद्व उजागर होंगे और उपसंहार में सारे द्वंद्व समाप्त होंगे या एक ख़ूबसूरत मोड़ पर छोड़ कर कथा समाप्त कर दी जाती है।

आरंभ का मतलब होता है सेटअप। इसमें मुख्य किरदार और उसकी चारित्रिक विशेषता दिख जानी चाहिए। उसी विशेषता के साथ आगे उसका द्वंद्व उजागर होगा। हालाँकि इसका कोई सिद्धांत नहीं है फिर भी सेटअप दस मिनट का होता है, अगर दो घंटे की फ़िल्म हुई तो। तीन घंटे वाली फ़िल्मों में कई बार आधे घंटे का भी सेटअप होता था।

फ़िल्म ‘दृश्यम’ में सेटअप को लेकर एक प्रयोग देखने को मिलता है। उसमें पहले फ़िल्म मेकर [लेखक – निर्देशक] ने सेटअप किया, उसमें जब प्ले शुरू हुआ तो मुख्य पात्र अपने दूसरे पात्रों के लिए एक कहानी सेटअप करता है। फिर उसका प्ले शुरू हुआ। फिर लेखक और निर्देशक के प्ले के साथ साथ किरदार का प्ले भी साथ साथ चलता है।

फ़िल्म के मध्य भाग में किरदारों के द्वंद्व अपने परिपक्व रूप में सामने आते हैं। इसमें किरदार की पीड़ा और संघर्ष साथ साथ चलते हैं। कई बार किरदार अपनी विशेषताओं के कारण अपने लिए बाधाएं खड़ी कर लेते हैं और फिर उन्हीं बाधाओं से निकलने का उसका संघर्ष होता है। इसमें बाधाएं अक्सर व्यक्ति के रूप में अगर होती हैं तो उनसे जुड़ना या चिह्नित करना आसान हो जाता है।  हालांकि बाधाएं कई बार प्राकृतिक आपदा भी होती हैं। जुरासिक पार्क में इंसान ने ख़ुद ही अपने लिए मुसीबत की रचना की डायनासोर के रूप में। उससे छुटकारा पाने की कोशिश फ़िल्म के मध्य भाग में, उपसंहार के पहले तक चलती है।

अंत में, कहानी का उत्कर्ष [Climax] होता है। कहानी के ग्राफ़ में सबसे ऊँचा शिखर। उस बिन्दू तक पहुँच गये, मतलब सब कुछ हासिल कर लिया, ऐसा अहसास दर्शकों में आना चाहिए। मध्य भाग में बाधा और उससे संघर्ष जितना मज़बूत होगा अंत या उत्कर्ष उतना ही रस की उत्पत्ति करने वाला होगा। इसकी अवधि सबसे छोटी होती है।

‘ट्विस्ट इन द टेल’

हालांकि अक्सर दर्शक यह अनुमान लगा लेता है कि किस तरह का अंत होने वाला है इसलिए उन्हें बांधे रखने के लिए ‘ट्विस्ट इन द टेल’ यानी ‘पूरा हाथी निकल गया, पूँछ रह गई’ वाली जुगत भिड़ानी होती है। यह एक ऐसा नाटकीय मोड़ होता है जिससे कहानी के शिखर पर पहुँच कर यह संदेह पैदा हो कि शायद लक्ष्य की प्राप्ति न हो। ऐसा करने से दर्शक केवल बौद्धिक स्तर पर ही नहीं बल्कि भावनात्मक स्तर पर भी अनुभव प्राप्त करता है। अनुभव कराना ही लक्ष्य होना चाहिए सिनेमा का। उसी से मनोरंजन भी होता है और बौद्धिक रूप से आप दर्शकों को झकझोर भी सकते हैं।

कई महान फ़िल्मों में ‘ट्विस्ट इन द टेल’ नहीं भी होता है पर मुनाफ़ा कमाने के उद्देश्य से बनाई गई फ़िल्मों में यह आसानी से देखा जा सकता है। अभी फ़िलहाल ‘शोले’ का ट्विस्ट इन द टेल याद आ रहा है।  अंत के हिस्से में जब गब्बर की हार हो चुकी है, वीरू उसको मारने ही वाला है कि तभी ठाकुर उसको रोक देता है कि मैं मारूंगा – ठाकुर, जिसका हाथ कटा हुआ है, गब्बर को मारने के लिए आगे बढ़ता है। दर्शकों को लगता है कि यह कैसे मारेगा? उनकी तरफ़ से गब्बर पूछता है – तू मुझे कैसे मारेगा मैंने तो तेरे दोनों हाथ काट दिए हैं? तो ठाकुर का संवाद है – साँपों को हाथों से नहीं पैरों से कुचला जाता है। फिर हम देखते हैं कि ठाकुर के जूते में नुकीले कांटे निकल आये और वह उनसे ही गब्बर को मारने लगता है। दर्शक तालियाँ बजाते हैं।

स्टेप आउट लाइन

स्क्रिप्ट या पट-नाटक लिखने के पहले स्टेप आउट लाइन लिखना होता है यानी एक या दो पंक्ति में हर सीन का सारांश। यह एक तरह से छोटे छोटे नोट्स होते हैं जिन्हें लेखक, निर्माता, निर्देशक, कैमरामैन, एडिटर, आदि सन्दर्भ पुस्तिका की तरह देखते हैं। कई बार यह पूरी स्क्रिप्ट लिखने के बाद भी बनाई जाती है ताकि एग्ज़ीक्यूटिव प्रोड्यूसर और प्रोडक्शन डिपार्टमेंट के लोगों को शूटिंग के पहले और शूटिंग के दौरान और बाद में भी सुविधा हो। वास्तव में स्क्रिप्ट को फ़िल्म बनाने का ग्राउंड प्लान या ब्लू प्रिंट भी कह सकते हैं। अब कुछ शब्दों से परिचित हो लेना चाहिए।

एक्शन पॉइंट या क्रिया बिंदु – जहाँ सेट अप ख़त्म होगा और कहानी शुरू होगी उस जगह को एक्शन पॉइंट कहते हैं। यह इसलिए महत्वपूर्ण है कि मुख्य किरदार के जीवन में ऐसी कौन सी घटना घटेगी जहाँ से उसका एक्शन या उसकी क्रिया शुरू होगी।

कैरक्टर्स इंट्रो या नये किरदारों का परिचय – मुख्य किरदार या किसी भी किरदार का प्रवेश न सिर्फ़ ज़रूरत के हिसाब से होना चाहिए बल्कि उसकी अपनी विशेषताओं के साथ भी होना चाहिए ताकि दर्शकों को वह याद रहे। ध्यान रहे, केवल प्रासंगिक चीज़ें ही याद रहती हैं। बेवजह कोई किरदार न तो फ़िल्म में होना चाहिए। न बेवजह किसी दृश्य में किसी किरदार का प्रवेश ही होना चाहिये।

प्लॉट पॉइंट या कथा बिन्दू – पूरी फ़िल्म में जो तीन अंक आरंभ, मध्य और अंत होते हैं, उसके हर एक अंक में एक ऐसा नाटकीय बिन्दू आयेगा जिसके बाद ही आगे का अंक शुरू होगा और ग्राफ़ ऊपर की तरफ़ चढ़ता जाएगा।

टर्निंग पॉइंट या नाटकीय मोड़ – हर दृश्य के साथ कहानी का ग्राफ़ ऊपर ही बढ़ता है। फ़िल्म के हर अंक में एक या दो ऐसे नाटकीय मोड़ ज़रूर होने चाहिए जो कहानी के हर पात्र को प्रभावित तो करता ही है दर्शकों में भी उत्सुकता बनाए रखता है। एक फ़िल्म में पाँच या छः ऐसे नाटकीय मोड़ हो सकते हैं।

ट्विस्ट एंड टर्न्स या घुमावदार और मरोड़दार – हर दो बड़े नाटकीय मोड़ के बीच में जो दृश्य आते हैं वे किसी पहाड़ी सड़क की तरह घुमावदार और मरोड़दार होने चाहिए मतलब यह कि सामने क्या आने वाला है इसका अनुमान पहले से न हो। कई बार दर्शकों को ऐसे दृश्य या ट्विस्ट एंड टर्न्स पसंद आते हैं जिनका अनुमान उन्होंने पहले से कर भी रखा हो और उसमें कुछ नया भी हो। यानी आधा दर्शकों की धारण और आधा उनकी धारणाओं के विपरीत।

कन्फ्लिक्ट या द्वंद्व या संघर्ष या टकराव – बिना द्वंद्व के नाटकीय तनाव की रचना नहीं हो सकती। यह द्वंद्व एक व्यक्ति के मन के अंदर हो सकता है, दो व्यक्तियों के बीच हो सकता है, एक समूह या दो समूहों के बीच हो सकता है, सामाजिक द्वंद्व, राजनीतिक द्वंद्व, व्यवस्थागत द्वंद्व, परिस्थितिजन्य द्वंद्व, जातिगत द्वंद्व, सांप्रदायिक द्वंद्व, दो राष्ट्रों के बीच का द्वंद्व, दो वर्गों के बीच का द्वंद्व आदि।द्वंद्व ही एक्शन या क्रिया पैदा करता है और उसी से कहानी आगे बढ़ती है।

इंटरवल या मध्यांतर – हालांकि कई ऐसी फ़िल्में देखने को मिल जाती हैं जिनमें मध्यांतर नहीं होता है पर सामान्य तौर पर यह होता ही है। इसलिए लेखक और निर्देशक ऐसे किसी नाटकीय मोड़ पर मध्यांतर करते हैं जिससे फ़िल्म की कहानी में जानने की उत्सुकता बढ़ जाए। तब ही मध्यांतर में थियेटर से बाहर गया दर्शक वापस देखने आएगा।

एंटी क्लाईमेक्स – प्रति उत्कर्ष – क्लाईमेक्स या उत्कर्ष या चरम बिन्दू फ़िल्म में रचे गये तर्क संसार में दिया गया लक्ष्य होता है। कई बार वह लक्ष्य पहले से पता होता है और कई बार उसका केवल अनुमान होता है। जैसे ‘चक दे इण्डिया’ का लक्ष्य हमें पहले से पता है कि टीम इण्डिया को वर्ल्ड कप जीतना है। कैसे जीतना है, यह देखने वाली बात होगी या ‘शोले’ में गब्बर को पकड़ना है, ज़िंदा या मुर्दा। लेकिन ‘जब वी मेट’ में दर्शकों को पता नहीं होता है इसका क्लाईमेक्स क्या होने वाला है क्योंकि नायिका तो किसी और के प्रेम में है और नायक शहर लौट कर अपने व्यापार में रम जाता है, फिर नायिका लापता हो जाती है, तो हम क्लाईमेक्स का दम साध कर इंतज़ार करते हैं कि क्या होने वाला है और कैसे होने वाला है, आदि आदि। लेकिन एक ‘एंटी क्लाईमेक्स’ या प्रति उत्कर्ष भी होता है। इसमें पहले दर्शकों को क्लाईमेक्स क्या होना चाहिए इसकी उम्मीद जगा दी जाती है। पर अंत में क्लाईमेक्स जैसा सोचा था वैसा नहीं होता है। हॉलीवुड की फ़िल्म ‘प्राईमल फ़ीअर’ इसका बेहतरीन उदाहरण है। एक मासूम सा दिखने वाले लड़के पर क़त्ल का इलज़ाम है लेकिन वह ‘स्प्लिट पर्सनालिटी’ का रोगी निकलता है और फ़िल्म का नायक वकील इसी बुनियाद पर उसे क़त्ल की सज़ा से बचा लेता है। दर्शक ख़ुश होते हैं लेकिन अंत होने के कुछ पल पहले नायक वकील महसूस करता है कि वह लड़का ‘स्प्लिट पर्सनालिटी’ का ढोंग कर रहा था, ख़ुद को बचाने के लिए।  उसे तो असल में जघन्य अपराध की सज़ा मिलनी ही चाहिए थी।

सब-प्लाट – सब प्लाट क्यों ? क्योंकि पहले जिस पहाड़ी रास्ते के घुमावदार और मरोड़दार सड़क के रूपक से जो बात कही गई है वह सब-प्लाट से ही संभव है। नायक नायिका या मुख्य किरदार के अलावा जब हम दूसरे किरदारों का प्रवेश करवाते हैं तो किसी प्रसंग या कहानी के माध्यम से ही करते हैं।  वह आसमान से टपक कर तो आएगा नहीं। ‘एनीमल’ में तृप्ति डिमरी एक मकसद लेकर आती है वह ‘एनीमल’ का सब प्लाट है।

कैरेक्टर या किरदार – मुख्यतः दो तरह किरदार चिह्नित किये गये हैं। पहले – आर्कटाइप – जैसे नायक, नायिका और खलनायक जो अनोखे और सामान्य जीवन में दिखने वाले किरदारों से अलग हों, जो ऐसा कुछ कर जाएँ जो आम जन की उम्मीद से बाहर है। दूसरे – स्टीरियो टाइप – यानी प्रचलित धारणा के अनुसार या सामान्य जीवन में दिखने वाले किरदारों की तरह। नायक – नायिका अथवा खलनायक सहायक।

किरदार का अंतर्द्वंद्व – जो किरदार अपने निरंतर अपने स्वभाव और दुनिया के हालात के बीच जूझते रहते हैं उनमें यह देखा जा सकता है। जैसे – ‘डेनिश गर्ल’ में नायक अपने अंदर धीरे धीरे एक स्त्री की खोज करता है। उस प्रक्रिया में वह निरंतर अपने आपसे लड़ता है।

दो किरदारों का द्वंद्व – दो किरदारों के बीच के द्वंद्व ही कहानी को आगे लेकर जाता है। फिर से ‘डेनिश गर्ल’ का उदाहरण – नायक, जोकि स्त्री बनना चाहता है, की पत्नी उसका पूरा सहयोग करती है लेकिन इस क्रम में उसके हिस्से केवल ‘खोना’ आता है जबकि नायक के हिस्से में ‘पाना’ आता है। यानी नायक तो वह बन जाता है जो वह बनना चाहता था लेकिन नायिका का पति खो जाता है और वह अकेली पड़ जाती है।

चारित्रिक विरोधाभास – ऐसे किरदारों की कहानी सिनेमा में फ़ौरन स्वीकार्य हो जाती हैं। जैसे पान सिंह तोमर, जो फ़ौज में था और इसके विपरीत डाकू बन जाता है। यानी कहाँ एक तरह वह राज्य की तरफ़ से लड़ने वाला योद्धा था और कहाँ वह राज्य के ख़िलाफ़ लड़ने लगा।

विरोधाभासी परिस्थितियां – जैसे राजा के घर में सन्यासी – बुद्ध या महावीर का उदाहरण ठीक होगा। फ़िल्म ‘धर्मपुत्र’ में – जैविक रूप से मुसलमान माँ का बेटा हिन्दू परिवार में पलने के कारण और विभाजन के सांप्रदायिक राजनीतिक हालात के कारण मुसलमानों से नफ़रत करने लगता है और अपनी जैविक माँ को मारने पर आमादा हो जाता है।

फ़्लैश बैक – यानी वह युक्ति जिसके सहारे हम दर्शकों को बताते हैं कि अभी या सिनेमा के वर्तमान के पहले क्या हुआ था। इसका इस्तेमाल अक्सर कोई नया नाटकीय मोड़ या रहस्योद्घाटन के लिए किया जाता है। जैसे ‘धर्मपुत्र’ के नायक को यह पता चलना कि जिस मुस्लिम औरत को मारने के लिए वह आगे बढ़ रहा है वह कोई और नहीं उसकी माँ है।

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परिशिष्ट :
नाटक या प्ले [स्क्रीनप्ले में भी] में चार तत्व होते हैं- आख्यान, गान, अभिनय और रस
तभी नाटक या उसके किरदार जीते जागते लगेंगे।
जबकि कथा में केवल आख्यान और रस होता है, अभिनय और गान नहीं होता इसलिए कथा देखी नहीं जा सकती।

नाटक के ये चार तत्त्व – आख्यान, गान, अभिनय,और रस के स्रोत हैं : ऋग्वेद से संवाद
सामवेद से गान, यजुर्वेद से नाट्य, अथर्ववेद से रस।

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पढ़ने की सलाह:

  1. मनोहर श्याम जोशी की किताब ‘पटकथा’; प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन
  2. जवरीमल्ल पारख की किताब ‘साहित्य, कला और सिनेमा: अंतः संबंधों की पड़ताल; प्रकाशक: वाम प्रकाशन

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