कविताएँ ::
आदित्य रहबर
मीडिया
वो आदमी के जैसा दिखता है
लोग कहते भी हैं
उसके हाथ, देह और चाल-ढ़ाल भी
बिल्कुल आदमी जैसे ही हैं
समाज के लोगों ने उसे आईने की संज्ञा दे रखी है
कहते हैं— सब कुछ स्पष्ट दिखता है उसमें
मगर हम भूल गए कि आईना कांच का है
जो अब सत्ता के पत्थर के चोट से टूट चुका है
और उसके छोटे-छोटे टुकड़े
हर दिन हमारी संवेदनाओं, मानवीय मूल्यों और समाज के आँखों में चुभने लगा है
जिसकी पीड़ा दबा दी जाती है
लोकतंत्र का हवाला देकर
उसकी खुद की एक न्यायालय भी बन गई है
जो सड़कों पर जब चाहे न्याय करने के लिए एक भीड़ इकट्ठी कर देता है
सड़कों पर भेड़ियों से ज्यादा डर
मुझे अब मीडिया से लगने लगा है
ना मालूम कब, कहाँ और कैसे आपको नोच लें
ये कयास लगाना बेहद कठिन है !
संगीत
चूल्हे पर पकता भात
और उससे निकलता संगीत
सभ्यताओं के विकास क्रम में
सुना गया सबसे सुंदर संगीत है
पेट की भूख
एक ऐसी महफिल है
जहाँ इसे बड़े अदब के साथ सुना गया।
आत्मसमर्पण
मुझे भी युद्ध लड़ना है
किंतु मेरे पास ना ही मिसाइलें हैं
और ना ही सैनिकों का जत्था
मुझे नहीं जीतना है कोई देश
ना ही कोई क्षेत्र विशेष !
जबकि कुछ नहीं है मेरे पास
सिवाय प्रेम के
तो रख दूंगा अपने हाथ
तुम्हारे हाथों पर और कर दूंगा आत्मसमर्पण
हर बार जंग जीतने के लिए लड़ी जाए
जरूरी तो नहीं !
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आदित्य रहबर की कविताओं ने इधर अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता से सबका ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया है। कठिन सचों को कहतीं उनकी कविताएँ आदमी के संघर्ष से अपनी देह तैयार करती हैं और आदमी के ही संघर्ष में ख़ुद को खपा देना चाहती हैं। आदित्य से adityakumarsoldier@gmail.com पर सम्पर्क किया जा सकता है।