कविताएँ ::
अमन त्रिपाठी

इ.

कितना असली दिन निकला है
त्वचा पर गिर रही है धूप
रंध्रों में मचलती है हवा
बादल छाया टांगे विचर रहे हैं
लालबांध के पेड़ मस्ती में कलरव करते हैं
कंधों की लकीरों पर डूबता सूरज
ऐसे गिराता है किरणें
मानो चाकू की धार पर

मैं दिन भर बेमक़सद भटकता रहता हूँ
या एक हसरत लिए
एक असली स्पर्श की इच्छा लिए
पसीने और थकान से अविचलित
आम के टिकोरों पर मुग्ध होता
उनकी हरी त्वचा और किशोर गंध पर मरता हुआ
दुआ करता हूँ
यह दिन मुझसे ऊब न जाए कहीं

पर मैं इन सरल वाक्यों में कितना छिपूँ
साफ साफ क्यों न कहूँ कि तुम्हारा ही इंतज़ार कर रहा हूँ
तुम्हारी ही एक झलक के लिए
धूप, लू और बरसात में भटकता रहता हूँ
मुझे बहुत मतलब नहीं कैसा है सूरज कैसी है हवा कैसे पेड़
मुझे मतलब है इससे कि जब इनके बीच तुम हँसोगी
तो ये भी हँसेंगे, मैं भी हँसूँगा
मुझे मतलब है इससे कि एक पेड़ के नीचे खड़े होकर
जब एक स्त्री मुझसे सरलता से कहेगी—
चिड़िया हैं, हनुमान हैं, गोरू हैं, तुम हो
पूरा चिड़ियाखाना खुला है मेरे सामने—
तो तुम क्या उसी तरह मगन और संतुष्ट हो जाओगी जीवन से
जितना मैं हो जाऊँगा उस वाक्य पर तुम्हें हँसते देखकर?

वरना तो मेरा क्या है
खिली है धूप, बह रही है हवा, बीत रहे हैं असली-नकली दिन।

स्टेशन

बहुत अकेला लगता है इस बजर भीड़ में
ऐसा लगता है जैसे कुछ छूट गया है
बहुत दिनों से
बहुत दिनों से निकला नहीं हो अपने बाहर
कुछ तो अंदाज़े होते हैं भ्रम होते हैं
लोग अजनबी अपने-से लगने लगते हैं
ऐसी शिकस्ताहाली में दिल थाम के बैठा
यही सोचता है
जो छूट गया वो जान नहीं पाओगे क्या है
वह इसी अँधेरे दिल के गहरे कोनों अँतरों में
छुप बैठा है पर जान नहीं पाओगे
साइत मान नहीं पाओगे
क्या भूल गया है छूट गया है क्या आख़िर
क्या पेड़ हवा दीवारें सूरज लोग अज़ानें
खोआई के लाल समंदर में गुम होतीं लाल अज़ानें

हो ना हो ये वही गंध और वही स्वाद हैं
जिनको मानो लिए-लिए उड़ती हैं
और कभी झलका देती हैं कुटिल हवाएँ
या फिर इसी देह के किसी अबूझे तल में
बास है जिनका
नहीं जानता क्या पुकारता अपने
दोनों हाथों से इस बीहड़ जंगल में

पायी थी जो ईर्ष्या नकली असली प्यारें
जिसने तुमको सदियों के रस्ते दिखलाए,
आँखें खोलीं, पैर सँभाले — वे रस्ते
क्या लाद नहीं पाए हो अपने बस्ते में
वह क्या है जो नहीं गिरेगा भरभर
जब पहुँच वहाँ को झाड़ोगे अपने बस्ते और दिल को
अपनी चमड़ी को

किसके योग्य नहीं थे तुम
जो आया नहीं तुम्हारे साथ।

रातें

बहुत अधिक सूखा है मन में और मिट्टी में भी
और देखो तो प्यारे यहाँ धूल कितनी उड़ती है
मन का फटना किसे दिखे है चमड़े सबके फटे हुए हैं
मिट्टी की चिचियाती परतें आकाशों में खुली हुई हैं
एक अकेला माँझी आधी रात नदी में तैरे
छोटे-छोटे बच्चे दौड़ रहे रेता पर दो
दौड़ते-दौड़ते रेता पर ही तैरने लगते बह भी जाते
शारिक़ कैफ़ी का छोटा इक शेर पढ़ूँ और सोचूँ
बिला गई सरयू को दूँगा कॉन्सोलेशन
आता है बूढ़ा माँझी तब तक हँसता है कहता है
सब कुछ पैसा नहीं है बाबू कुछ बैहबारो है
चकराया-सा पूछूँ तैर रहे थे जैसे भूत रात में
हो-हो करके हँसेगा बूढ़ा दम मारेगा
पैंसठ साल का हूँ साला कोई भूत न आया
रात में मैं ही हूँ सबसे जगता भूत
सस्ता निरगुन सुनता है सस्तहिया मोबाइल पर
किसका निरगुन पूछता हूँ तो चल देता है मुस्की देकर
यहाँ से बाहर ज्यों जाऊँगा मन में सूखा हो जाएगा
वही प्रपंच वही छछंद
वही चेहरे वही बातें
वही दिन और वही रातें
किससे मन की‌ कहूँ ये बातें
बहुत बड़ी दुनिया की बातें
कहाँ-कहाँ किससे जाकर जुड़ती हैंऽ
और देखो तो प्यारे यहाँ धूल बहुत उड़ती है

चिट्ठी

मैं तुम्हारी याद में कविताएँ लिखता हूँ
रक़ीबों को याद करता हूँ
उनसे न चिढ़ने की कोशिश करता हूँ
अगली बार जब आओगी तुम
तब तुम्हें बेहतर मनुष्य मिलूँगा
ऐसी योजनाएँ बनाता हूँ
क्या कर रही होगी तुम अपने इतने व्यस्त दिन में
घर की सफाई कर रही होगी
भाई को पढ़ा रही होगी
बहन को प्यार कर रही होगी
पुराने प्रेमी को याद कर रही होगी
मौसम कैसा है जैसे बेकार सवाल नहीं सोचूँगा
क्या यही पूछने को इतने लम्बे इंतज़ार के बाद
चार मिनट मिले थे?

क्या-क्या करता हूँ तुम्हारी याद में
सब्ज़ी लाता हूँ चाय बनाता हूँ
माँ को पुचकारता हूँ
उसे धोखे में रखता हूँ कि तुम्हारी याद में नहीं
घर में हूँ
बड़ी कुशलता से नीम की डाल काटता हूँ
कहीं याद की चिकनाई से औजार छलक कर
उंगली न काट दे
कहीं बाल में मकड़ी के जाले न फँस जाएँ
बड़े आराम से सोता हूँ तुम्हारी याद में
तुम्हें कौन-कौन सी चिट्ठियाँ लिखूँगा
यह सोचता—न सोचता हुआ
कल भेज ही दूँगा खजुराहो से गणेश जो लाया था
पीतल के गणेश के साथ एक चिट्ठी
गैरविवादास्पद चिट्ठी
जिससे रिश्तेदारों को भी समस्या न हो
क्या लिखूँगा इस आदर्श चिट्ठी में
रोज़ सोचता—नहीं सोचता हूँ

मेरे दुनिया के सारे काम होते हैं
तुम्हारी याद में साँस लेता हूँ
मैं मृत्यु की तरह स्थाई हूँ तुम्हारी याद में
जीवन की तरह तुम्हारी याद में छुपा हुआ हूँ

पर क्या तुम मुझे बिल्कुल याद नहीं करती?
फिर मैं यह सब कर कैसे लेता हूँ!
यह तो एकदम ही अविश्वसनीय बात है
कि तुम मुझे याद भी करो
और मेरी साँस भी नियमित चले
मेरी उंगलियाँ क्रिकेट बॉल को स्विंग भी करा लें
मैं सब्ज़ी सही-सही भाव में ले आऊँ
चाय बना के पीता रहूँ?

कल जो भेजूँगा गणेश के हाथों चिट्ठी
उसमें यही सब पूछूँगा
एकदम गैरविवादास्पद तरीकों से

(मुमकिन है तुम जवाब लिखो
याद करने या न करने के सबब
और मैं फिर मुब्तिला पाया जाऊँ
तुम्हारे इंतज़ार में बाज़ार जाते हुए)


अमन त्रिपाठी सुपरिचित कवि हैं। इंद्रधनुष पर उनके पूर्व-प्रकाशित कार्यों के लिए यहाँ देखें: अपने-अपने वक्त पर सभी चले जाएँगे तुम बहुत वर्षों की मेरी पृथ्वी

अमन से laughingaman.0@gmail.com पर बात हो सकती है।

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