नए पत्ते ::
कविताएँ : अनिल
1.तुम्हारा घर मेरे लिए महज़ अब एक मकान भर रह गया है
तुम्हारा घर मेरे लिए महज़
अब एक मकान भर रह गया है
जहां मैं अपने बचे -खुचे दिन गुज़ारता हूँ
तुम्हारे मकान के बाहर
एक सुनसान गली में चीखें उठतीं हैं और
मैं दौड़ता हुआ तुम्हारे मकान के बाहर चला जाता हूँ
यह देखने के लिए कि बाहर सब ठीक- ठीक है
अथवा नहीं
तुम्हारी कविता मेरे लिए अब बुझती हुई चिंगारी भर है जिसकी लौ को दिखाकर
मैं अपने मन को ख़ुश रख सकता हूँ
कुछ देर तक
ग्रहों, नक्षत्रों और तारों से भरी इस दुनिया में
इस घड़ी तुम मुझे कुछ और भी बना सकते थे
जैसे कि एक नट और तुम जादूगर
जिसके जादू से मैं दाएं -बाएं घूमता फिरुं
करा सकते थे मुझसे कोई और काम
जैसे कि तुम्हारे लिए रात के रद्दी
काग़ज़ों को बटोर कर रखना
तुम्हारे लिए लंबी और सुराही दार बर्तन में
ठंडे पानी का इंतजाम रखना
तुम्हारे लिए धूप अगोरना आदि, आदि
सच तो यह थी कि तुम्हें यह खेल
देखने में मज़ा आता था
क्या-क्या नहीं किया मैंने तुम्हारे लिए
दौड़ा-दौड़ा फिरा हूं खेतों -खलिहानों से लेकर सड़कों और आवारा गलियों तक
पर तुम किसी भी तरह ख़ुश नहीं हुए
क्या करूं और किस तरह ख़ुश रखूं तुम्हें
मेरी मुश्किल तो यही है कि जानबूझकर
तुमने मेरे हाथों में थमा दी है
अपने मन की कलम
जो सुबह-सांझ मुझे बेचैन किए रहती है
और जब-जब में कलम उठाता हूँ
बाहर सुनसान गली में फिर चीखें उठती है और
मैं दौड़ता हुआ तुम्हारे मकान के बाहर चला जाता हूँ यह देखने के लिए कि बाहर
सब ठीक-ठाक है अथवा नहीं।
2.मेरा दोस्त
मेरा दोस्त पहाड़ पर बसे एक घर की तरह था
उस घर के भीतर पहाड़ की हवा थी
पहाड़ के जंगल थे
उसे जंगल की लकड़ियों से बने दरवाजे थे
खिड़कियां थी
पहाड़ की ठंडी उदास बर्फ़ीली हवा से वो बंद
दरवाज़े कभी खुलती और कभी बंद होती
पानी बरसता तो वह उसे छूकर फूल जाती
उसे घर के फ़र्श चिकनी थी
बिल्कुल चिकनी
जहां मेरा क्या किसी का भी चलना मुश्किल था आकाश में चंद्रमा निकलता तो घर सबसे
पहले उसे देखा
सूरज की गर्मी वह सबसे पहले झेलता
बरसात में सबसे पहले उसी पर पानी बरसता
मैं मेरे दोस्त से कभी नहीं मिला
केवल उसकी बातें मुझे कभी-कभी सुनाई पड़ती थी जैसे कोई दूर से बुलाता हो मुझे
सुनो ….सुनो……
एक पहाड़ मेरे भीतर बुला रहा है मुझे
उस पहाड़ में बसा मेरा एक घर है
निर्जन… मौन….. अनिश्चित।
3. एक संसार
मेरे साइकिल के आगे-आगे एक तितली उड़ रही है मॉर्निंग ग्लोरी की बेलें दीवाल को चढ़ती हुई
इतरा रही हैं
मैं आगे भागा जा रहा हूँ
बेतहाशा पैडल मारते हुए
एक संसार मेरे पीछे छूट रहा है
छूट रहे हैं
सनसाइन अपार्टमेंट
कंक्रीट की सड़कें
बिजली के खंबे
एक संसार मेरे पीछे छूट रहा है
मेरे साइकिल के आगे- आगे आते जा रहे हैं
एक नदी ,एक नहर ,एक तालाब और ढेर सारे पेड़
एक खुला हुआ आसमान, एक सूरज
सब साफ-साफ दिखने लगा है
मगर अफ़सोस!
मैं अब भी साइकिल दौड़ा रहा हूँ
बेतहाशा आगे की ओर।
4. मैंने पिता को रोते हुए नहीं देखा
मैंने पिता को रोते हुए नहीं देखा
हजारों दुखों और अभावों के बीच
वे सदा मुस्कुराते रहे
उनकी साइकिल अब भी पड़ी हुई है
घर के एक कोने में
जिससे वह धांगा करते थे
कई- कई किलोमीटर उन दिनों
हमारी रोटी, कपड़ा ,मकान और दूसरी ज़रूरतों
को पूरा करने के लिए
गहरे उदास क्षणों में
जब कभी भी वे अम्मा के साथ होते
तब भी वह रोते नहीं थे
मैं जब कभी बीमार पड़ जाता
वे रात-रात भर जागते और अहले
सुबह मुझसे पूछते ‘अब कैसा जी है बचवा ‘
वे बूढ़े हो रहे थे और जाने की तैयारी कर रहे थे
मैं नहीं जानता था कि जाना क्या होता ह
अम्मा बताती थी कि
मेरा छोटा भाई भी चला गया था एक दिन बिना किसी को कुछ बताए
और जब बाबा जाने की बातें करते
मैं घबराकर उनसे लिपट जाता और
तब वह बड़े प्यार से मेरे सिर पर अपना हाथ फेरते और मुझसे कहते
बेटा खूब मन लगाकर पढ़ना
और अपनी मां का ख़्याल रखना
एक दिन वह सचमुच चले गए
और उनके कांधे से छिटककर कर अलग रह गया
मेरा बचपन
उनका होना मेरे लिए एक विश्वास था
जब भी कोई कवि लिखता है पिता पर कविता
मैं उन्हें महसूस करता हूं
वाक्यों में भावों में उनके अर्थों में
लेते हुए नहीं हरदम कुछ देते हुए
रोते हुए नहीं हरदम हँसते हुए।
5. तन्नु नहीं मानती है
तन्नु नहीं मानती है
आ जाती है वह
नन्हें -नन्हें डेग भर के छोटे-छोटे पैरों से
मैं अधखुला सा रह जाता हूं
देखकर उसकी बड़ी-बड़ी आंखें
जिनमें कई सवाल गुज़र कर ठहर जाती है
छोटी प्यारी तन्नु आती है और
पूछती है कहां है मेरा हिस्सा?
तब उसके हाथों में रख देता हूं
चन्द चने चन्द मूंगफली के दाने
वह एक-एक दाना टुंगती है और ख़ुश होती है
ख़ुश रहना मेरी प्यारी कि यह दुनिया बहुत बड़ी है
और तुम अभी बहुत छोटी
हां जानता हूं मैं
तुम अब पढ़ती हो
और ढेर सारे सवाल भी हल कर लेती हो ठीक -ठीक लेकिन कुछ सवाल दुनिया के ठीक करने होंगे मुझे तुम्हारे लिए
और तुम मुझसे मांगती हो
किताबें ,काग़ज़ और रंग रंगने के लिए
वह घर जिसे तुमने अपने हाथों से कागज पर उकेरा है और मैं तुम्हें थमाता जाता हूं
एक-एक कर लाल, नीली ,पीली, सफेद संग नारंगी रंग और तुम उछल पड़ती हो
रंग हाथों में लिए धरती से ऐसे
जैसे कोई तितली उड़ जाती हो
धरती को छू करके
हां जानता हूं उड़ जाओगी तुम एक दिन
हमारे घर आंगन से और उस दिन
मैं देखता रह जाऊंगा
केवल यह सूना सा आकाश ।
6. मुमकिन है
मुमकिन है कि ऊपर के पहाड़ों से रिश्ता- झरता पानी
नीचे मैदानों में आते-आते अंततः बिला जाए
मुमकिन है कि
पेड़ से गिरता कोई पत्ता
धरती पर गिरने की बजाय
किसी नन्हें बच्चे की हथेली में समा जाए
मुमकिन है कि
सफर में निकलते समय हम अपना
झोला घर पर भूल आए
मुमकिन है कि
शब्दों के अर्थों को
जब नए सिरे से पूछा जाए
उनके अर्थ बदल दिए जाएं
पेड़ को पेड़ ना कहा जाए
चिड़िया को चिड़िया और चांद को चांद
न समझा जाए
यह भी मुमकिन है कि
नींद में चलते-चलते कोई बच्चा आए और
हमारे लिखे को झाड़-पोंछ मिटा कर चला जाए।
7. बारिश
बारिश का मजा लेना तो सभी चाहते हैं
पर बादल बनना कौन चाहता है
बादल बनने के लिए खुद को डुबोना पड़ता है
गहरे अथाह समुद्र में
और फिर तपना पड़ता है सूरज के सामने से
अपने ओछेपन से हल्के होकर उठना पड़ता है
ऊपर तक और फिर एक क्षण में भाप
जगह देनी पड़ती है अपने जैसे दूसरों को
कि वह आए मिले संगठित हो
और तब बनता है बादल
और तब अपने भारीपन से ख़ुद-ब-ख़ुद गिरता है बादल
होती है बारिश।
•••
अनिल कुमार दानापुर, पटना के रहनेवाले हैं। उनकी कविताएँ प्रथम दृष्ट्या प्रभावित करती हैं और भविष्य के लिए उम्मीद जगाती हैं। उनसे klina103@gmail.com पर बात हो सकती है।