कविताएँ ::
गुंजन उपाध्याय पाठक
1.चेतावनी
अपने रूप की अगाध
बेचैनी में डूबी आम्रपाली
जीती हुई सामग्री की तरह न्योछावर है
और राजगृह
एक नाजायज संतान के ताप से
थोड़ा और ज्यादा तपता है
माकूल मौलिकताओं के भ्रम को
अपनी चोटी के सिरे से बाँधे
मानवीय आकांक्षाओं की भयानक ज़रूरतों को
दवाइयों के पर्चों में छपता देख
इस युग की मक्कारी में सूखती हुई
कितनी ही नदियाँ
नहीं बुझा पाती हैं
उस दोपहर की प्यास
बुद्ध के प्रति अपने आकर्षण का बोझ ढोती,
करुणा के मोह से बँधी
एक स्त्री का प्रेम—
गणतंत्र के लिए चेतावनी है।
2. मोक्ष
इस देश में
उफ़क पर चढ़ती हैं नदियाँ बरसात में
और पत्थरों के ताप पर
पिघल जाती हैं
कोई वैजयंती माला
आधी रात सिगरेट सुलगाते हुए गीत गाती है
बता, यह रोग है कैसा?
और कोई नहीं समझता, कोई भी नहीं,
कि स्त्रियों की देह का रहस्य
और उनकी मोह से विलग होकर
तथागत ने चुना मोक्ष।
पर मोह था कि खीर की कटोरी थामी,
अंजुरी में चला आया
कितनी ही अधसोई रातों में
करवट लेते हुए
भान होता होगा उन्हें स्त्री–देह का,
और महक से कुलबुला उठती होगी हवा
व्याकुल हो
खुद को साधने की कितनी ही कोशिशें जाती होंगी व्यर्थ
मगर, मेरे प्रभु,
मेरे लिए मोक्ष है—
उसकी बाँहों में होना,
जिसकी झूठी बातों में भी
दिलासा ढूँढ लेना।
3. वजूद
इक दिन प्रेम मौन बनकर
समाहित हो जाता है हृदय में
तब बाहर की खामोशी
हाहाकार नहीं करती…
रिक्तता खुद ढूँढ लेती है
रिक्तता को और भर जाता है
खाली-खाली सा भी, सबकुछ
अगर मैं भटक जाऊं और लौटूं
तब मेरी झोली में
अपना प्रेम डाल देना, प्राण!
बुद्ध तो झोली फैलाए
चिरवियोग माँगने लौटे थे यशोधरा के द्वार
मैं माँगती नहीं, सौंप देती हूँ
आकाशगंगा को अपनी भाषा
और ओढ़कर चुप्पी टटोलती हूँ
तुम्हें अपने वजूद में…
4. समाधान
संघ के परिचालकों ने
चुना है समय—
सुनहरी धूप के अलविदा कहने के बाद
बुद्ध करेंगे आज
समाधान बहुतेरे प्रश्नों का
यहाँ ऊँच-नीच,
जात-पात की कोई प्राथमिकता नहीं है
बुद्ध सबके लिए हैं,
मगर बुद्ध
शशांकित हैं उस स्त्री से
जिसने कल मध्यरात्रि में
किया था इक स्वीकार—
कि वह अभी सातवें प्रेम में है,
और उसे तनिक भी अपराधबोध नहीं
5. अहिंसा की हत्या
किसने मठों को जला दिया
लूट लिया स्त्रियों को
मार डाला अहिंसा का पाठ करने वाले पुरुषों को?
कौन था वह
जो बुद्ध की धरती को लाल रंग से रंगने में नहीं हिचकिचाया
जबकि सफेद कबूतरों की कातर ध्वनि से
गूंजता रहा था आकाश
लोग डरे हुए हैं
वे अपनी दैनिक आय और आवश्यकताओं से जूझते हुए,
पसीना पोंछते हुए
असमंजस में हैं कि
धर्म के नाम पर चुप रहें या रो पड़ें।
6. डोपामिन
दुःख के करुण रुदन से द्रवित
सिद्धार्थ ढूँढते हैं
दुःख का कारण/निवारण
और एक दिन
किसी घर की दीवारों पर टंगे हुए
मुस्कुराते हैं
दो आत्माओं की प्रणय कामना से
कांपती/थरथराती हुई धरती को
निहारते हुए
सोचते हैं निरर्थक थी उनकी कैपेसिटी से आँक पाना
दुख का कारण और निवारण
जबकि उन्हें जरूरत थी
डोपामिन की
जिसमें डूबते उतारते
दो प्रेमियों की नोक झोंक से
किया जा सकता है अवसाद से किनारा
मृत्यु की तारीख को टालकर
जिया जा सकता है और कुछ देर
बेशर्म होकर स्वीकार करनी होती है अपनी सारी हार
कब कब और किस तरह
धिक्कारा था अपनों ने
किस तरह उनकी कांपती बाँहे
ढूँढती थी नीली गोलियाँ कि
कानों में गूंजती आवाजों से
रहा जा सके दूर
ये आवाजें
भूख के वक्त मरोड़ बनती और खाते हुए गिल्ट होता
अपने जिंदा बच रहने का
ऐसे में एक हृदय के सिरहाने में टंगे
इक रहस्यमई मुस्कान से तड़पते हुए
छूते हुए
और उन्हीं छुवन में खोते हुए
इसी डोपामिन को ढूँढना था उन्हें भी।
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गुंजन उपाध्याय पाठक हिंदी की नई पीढ़ी की चर्चित स्त्री-कवि हैं। उनका एक कविता-संग्रह ‘दो तिहाई चाँद’ प्रकाशित है। उनसे संपर्क और इंद्रधनुष पर उनकी पूर्व-प्रकाशित कविताओं के लिए यहाँ देखें: तुम्हारा रुठना भी एक भरा पूरा गाँव है

एक दिन फुर्सत में मैंने गुंजन की कुछ कविताएं पढ़ी थी। इरादा यूं ही सरसरी निगाह से एक बार बेमन से पढ़ने का था लेकिन मुझे ताज्जुब हुआ कि गुंजन की कविताओं ने बांधना शुरू किया है। एक कविता की सार्थकता भी यही है कि पाठक को अपने पास रोक ले। गुंजन लगातार लिखते हुए भी अपने भाव और शिल्प में बदलाव करती नज़र आती हैं। उसे अगर गंभीरता से पढ़ा जाए तो वो इस समय के किसी भी महत्वपूर्ण कवि से कमतर नहीं है। पटना में होने का एक अलग नुकसान है, शायद इसलिए गुंजन चिह्नित होते हुए भी कम पढ़ी गईं। गुंजन को खूब बधाई