कविताएँ ::
गुंजन उपाध्याय पाठक

जीत

रेंगते घसीटते
खुद ही की देह को
घुटने टिकाकर बैठा
आहत विस्मृत है भविष्य

तुम्हारी मानसिक विक्षिप्त स्थिति से
जहाँ खुद की ही आवाज़ तुम तक नहीं पहुंचती,
तुम शोर को ठूंस देना चाहते हो भविष्य के कानों में,

तुम डर की सत्ता को गाड़ देते हो सीने में
और विचलित से ढूंढते हो
नित नये तरीके
जहाँ खौफ़ की आंखें
नोच खाती रहें
भविष्य की पसलियां।

अट्टहास में मगन तुम्हारा मन
हर पल हो जाता है चौकन्ना

उन लम्हों में वो दर्ज़ कर आते हैं जीत अपनी।
और तुम .. घुस आये डर को झटकते हुए चिल्ला पड़ते हो।

थक रहा है प्रेम

खिड़कियों पर चांदनी थपकी देती है
चांद ने सारी किताबे फेंक दी है
चिड़ियों को माइग्रेन हुआ है
और पेड़ चीखता हुआ बोलता है

साँझ आत्महत्या के बहाने ढूंढती है
परखनली सूख गई है आंसुओ में डूबी रात की

पहर-पहर चाक पर घूमता ही नहीं है वक्त
कट कर गिरते है उसके जज़्बात भी

पलंग की छाती पर
मूंगिया ख्वाबों की उदासी पसरी है
रक्त वाहिकाओं की चाल शिथिल पड़ रही है

आजकल
इंतजार की बेचैनियों को घेरा है मनहूसियत ने
प्रेम थक रहा है अपनी उपस्थितियों के लिए
हामी भरते हुए।

मुलम्मा

रोटी
बेरोजगारी
बेचे जाने वाली बचपन
वेमुला की मौत
लंकेश की हत्या
…..
कुछ नही बोलते
आगे पैर धरने को रखी जमीं गिरवी है
जय श्री राम बोलने के बाद भी
बलात्कार नही रुकते
अस्पतालों में मारे गए लोगों की बात कोई नहीं करता

यह दौर अति संवेदनाओं से बचने का था
यहाँ हमें गोली से शिकार लोगों की नहीं,
गोली चलाने वाले की मनोदशा पर रिसर्च करना था

हम खाए अघाये लोग
सिर्फ अतीत कुरेद रहे थे
क्योंकि वर्तमान को ज़बाब देना मुमकिन नहीं था
हम लहालोट होने की
हर बेजा दलील पर
गला फाड़ कर बोलते और हर धौंकनी पर
देशभक्ति का मुलम्मा पेश करते।

भांग के फूल

तुम्हारी कविताओं की ये मात्राएँ अल्पविराम,
मेरे प्रेम की ऊबड़-खाबड़ पगडंडियाँ हैं।

तुम्हारे तने हुए कंधे
जैसे लचक कर झुके पेड़ देवदार के
बंद होंठ ज्यूँ ड्योढ़ियाँ हैं
लोक देवियों की

और तुम्हारी बातें जैसे महुआ बिनते बच्चों की खिलखिलाहट
तुम्हारा रुठना भी एक भरा पूरा गाँव है।

तुम्हारा प्रेम स्वीकार करना
अष्टसिद्धियों का आलिंगन है मेरे लिए
तुम्हारा ख़्याल जैसे
किसी खण्डहर में जर्जर अवस्था में
पाई गई रूद्र की प्रतिमा
और प्रेम जैसे अनजाने उग आए भांग के फूल।

टीस

भागता हुआ माघ
रुककर देखता है
सीधा टिका कर लगा हुआ निशाना
और खुश होकर झूम उठता है

महुआ की गंध में भरे भरे
रात की बेला में
उतारता है दर्द धीरे-धीरे

छिले घुटने और पीठ पर गड़े नाखूनों के निशान भी
मुकर जाते हैं शिनाख्त की परेड करने से

उम्मीदों और हसरतो की छीना-झपटी में
बह उठता है खून उम्मीद का

शाम की दलीलें
किसी खूंटी पर टंगी मूंद लेती हैं आंखें

बिना गवाहों के
छूट कर आवारा कुत्तों सा
वह रात भर भूंकता है

बेआवाज महुआ
गिरती रहती है रात भर

जाता हुआ माघ
हाड़ की छाल में टीस भर जाता है।

सवैया

कितने बेशर्म दिन गुजरे कि
कागजी लफ्फाजी के बीच खड़ा अबोध मन
चोटिल घुटनों के साथ
घिसटने की ख्वाहिश लिए
आवाक सा तकता है

वक्त की धारदार छैनियाँ
रात दिन छिलती है देह, जिससे खून की जगह
टपक पड़ते हैं शब्द
कामनाओं की घुटी सी चीख
और कुछ कागज़

जिनपर बेखुदी में उकेरा था तुमने मुहब्बत
किंतु

हमारी आँखें वेदना का इकहरा छंद हैं,
जिनमें तुम्हारे प्रेम के सवैया छलकते हैं

जिन्हें कोई
जिज्ञासु खो देगा
कोई मुमुक्षु बाँचेगा।

•••

गुंजन उपाध्याय पाठक हिंदी की नई पीढ़ी की कवि हैं। ‘अधखुली आँखों के ख़्वाब’ और ‘दो तिहाई चाँद’ शीर्षक से उनकी कविताओं के दो संकलन दृश्य में हैं। गुंजन पटना बिहार से हैं और मगध विश्वविद्यालय से इलेक्ट्रॉनिक्स में पीएचडी हैं। उनसे gunji.sophie@gmail.com पर बात हो सकती है।

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