कविताएँ ::
तनुज
यदि कोई विचार आपको कन्विन्स करता है तो हो जाइए : शशि प्रकाश
यदि कोई प्यार तुम्हें बहुत दिनों तक
सालता जा रहा है,
तो बहुत इन्तज़ार करते हुए
बड़े फैसले लेने में
कोई देरी नहीं करनी चाहिए
यदि कोई अख़बार का पन्ना
बहका रहा है तुम्हें अपने कर्त्तव्य-बोध और निष्ठा के प्रति
तो बात करनी चाहिए
मनुष्यता के उस गुप्तचर से
जिसे शहर के नुक्कड़ों में पाया तुमने
तुम तक वह ख़बर पहुँचाते हुए
कोई बस्ती की धूप यदि
तुम्हें मनहूस नहीं लगती
अपने रोजनामचे की सरगर्मी सी
तो बसा लेना चाहिए ख़ुद को
उसी अलौकिक पर्यावरण में
अक़्सर हिन्दू-मुसलमान, ऊंच-नीच, लड़का-लड़की करते हुए तुम्हारे हमराह
अब तुम्हें पसन्द नहीं आते
तो तुरन्त कर लेना चाहिए उनसे संबंध-विच्छेद
और नए संबंध निर्मित्त करने के जद्दोजहद में
बिता देनी चाहिए अपनी पूरी ज़िन्दगी
कहते हुए कि ‘गुलामगिरी’ के दौर पार हुए
और यह उन्माद पैदा करने की
नई पारस्परिकता है
यदि मेरी कोई ‘उपदेशात्मक’ काव्य-पंक्ति तुम्हें बहुत भा गई है
और यह दुष्कर है तुम्हारे लिए
अपनी सहमति को प्रकट किए बिना
काम में मन लगा पाना
तो यार…
मुझसे बात करो न!
मैं बताऊँगा तुम्हें प्रेरणा का वह सोता
और उन सुरंगों के बारे में
जिन भूमिगत विचारों तक पहुँचकर
मैंने क्या नहीं पाया…
थोड़ा सा अधिक भरोसा करोगे
तो बता दूँगा उन साथियों के नाम
और साहस से भरी हुईं उनकी कहानियाँ
जो सब दुर्लभ हो चुकी हैं
इस हिन्सक और अपराधिक समय में
और जब तुम बिल्कुल ही मेरे
बहुत नज़दीक आ जाओगे हृदय के
मैं तुम्हें अपने
सबसे प्रिय कवि
‘पाब्लो नेरुदा’ की वे बीस प्रेम-कविताओं के
सबसे सशक्त मायने बतलाऊँगा!
सच्चे कवि
सच जान लेने के बावजूद
उन्हें लगता है कि
जैसा दिख रहा है
वही समय का सच है
और जो चीज़ जैसी दिखती है के प्रकटीकरण की
मंटोनियत मूर्खता के आर-पार
वह सब ऊँघते हैं
अक़्सर
अपनी कविताओं के भीतर
वे हमसे प्यार करते हैं
लेकिन
साथ चलने से डरते हैं।
रुचि
कभी किसी घाघ संघी को पसंद आ जाती है मेरी कोई कविता
तो कभी अस्मितावाद के
पैरोकारों को
और कभी अराजकतावादियों को
एक बड़ा समूह है ऐसा
जिसे कुछ भी सूँघा दूँ :
दिन का हो कोई भी क्षण
वह स्वीकार लेता है
कविताएँ
और ऐसा होना सबसे दुर्लभ है
मेरे किसी साथी को पसन्द आ जाएँ
कोई ‘नयी’ बात..
सच कविता लिखना कितना आसान है!
और कम्युनिस्ट होना मुश्किल।
मुझे तुम्हारी कविता पसंद नहीं आई तो नहीं आई
चाहे तुम दुनिया की सबसे महंगी दारू पिलवा दो।
चाहे भारतीय वामपंथ का
सबसे बड़ा सांस्कृतिक कार्यभार दिलवा दो।
चाहे हिंदी की सबसे सुंदर कवयित्री के साथ मेरी फ़ोन पर बात करवा दो।
या आगामी दिनों में
‘आधुनिक कविता और मुक्तिबोध’ पर पीएचडी के लिए नामवरों के चेलों से,
लाख सिफारिश लगवा दो।
हिन्दवी की आभासीय दीवाल पर मेरे जन्मदिन में मेरी फ़ोटु के साथ मेरी कविता छपवा दो।
तुम्हारी भाषा जिस किसी चीज़ की भाषा हो,
कविता की भाषा नहीं हो सकती।
और सर;
सादर प्रणाम!
यह मेरी हार्दिक शुभाकांक्षा है कि हिन्दी के एक महत्वपूर्ण कवि कहलवाने की तुम्हारी काव्यहीन कुंठा…
कभी पूरी न हो।
चहनाएँ
मैं नहीं चाहता मृत्यु का आदिम बोध।
लेकिन
अपने सिर पर कुल्हाड़ी चलाकर
इसके टुकड़े-टुकड़े कर देना चाहता हूँ!
आह;
शहर भर में खून रिसेगा!
देखने वाले चकित रह जाएंगे।
वे मेरी निंदा-भर्त्सना करेंगे
और
ज़िन्दा कमज़ोरियों की सख़्त आलोचना।
एक अविश्वसनीय शैली के साथ
सदा ही
याद किया जाता रहूँगा मैं।
मयंक त्रिपाठी के लिए
नवम्बर अपनी ढलान पर है
फिर भी मुझे प्यार नहीं मिल रहा
मैं रोज़ सुबह-सुबह ब्रश तो करता हूँ आजकल
फिर भी मुझको प्यार नहीं मिल रहा
मैं रखने लगा हूँ अपने स्वास्थ्य का ध्यान
फिर भी मुझको प्यार नहीं मिल रहा
संघियों के साथ उठना-बैठना शुरू कर दिया कबसे
फिर भी मुझको प्यार नहीं मिल रहा
फूल का रंग नीला होता है
और केश का काला
फिर भी मुझको प्यार नहीं मिल रहा
आकाश पा रहा है पृथ्वी की गरिमा
फिर भी मुझको प्यार नहीं मिल रहा
दुनिया भरी हुई है संभावनाओं वाली लड़कियों से
फिर भी मुझको प्यार नहीं मिल रहा
मेरे कमरे के बाहर पूँछ हिला रहे हैं
सांसारिक कुत्ते
फिर भी मुझको प्यार नहीं मिल रहा
तुम अपने आपको ऐश्वर्या राय समझते हो
फिर भी मुझको प्यार नहीं मिल रहा।
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तनुज हिंदी कविता की सबसे नयी पीढ़ी से आते हैं। कवि होने के साथ साथ वे दिशा छात्र संगठन और नौजवान भारत सभा के सक्रिय सदस्य हैं।
हिंदी के जो पाठक उनकी कविता का आस्वाद पहले ले चुके हैं वे जानते हैं कि तनुज की कविता में जो स्वर बार बार दोहराता है वह प्रतिक्रियात्मक है। कविता क्या प्रतिक्रियात्मक होनी चाहिए और अगर हाँ तो किसकी प्रतिक्रिया स्वरूप इसका संधान ऐसी कविताएँ लिखने वाला हर युवा कवि अपनी समझ और सीमा के अनुरूप करता है। इस तरह की कविताओं में अकुलाहट और हड़बड़ी किन वस्तुओं की है, इसका अध्ययन एक रोचक प्रसंग बन सकता है। क्या तनुज (और उन जैसे युवाओं) की बेचैनी इस बात से बनती है कि उन्होंने अपने कवियों के समाज से बहुत तरह के आग्रह पाल रखे हैं या इस वजह से कि सांगठिनिक विचार तंत्र एक ख़ास तरीके के बोध के साथ काम करता है जो स्वछंदता/ इंडिविजूऐलिटी के किसी भी प्रस्फुट्टन को एक संदिग्ध दृष्टि से देखता है? शुचिता का आग्रह क्या प्रश्नकर्ता को इन प्रश्नों से मुक्त करता है या “मैं तुम्हारे लिए मारा गया/ तुम मुझे पूजो” वाली मसीहाई से निर्देशित होता है? साथ ही क्या जारगन का इस्तेमाल कविता को किसी नए ठिकाने की तरफ़ ले जाता है या बोझिल बनाता है, अकादमिक बनाता है जैसे प्रश्न भी पूछे जा सकते हैं। बहरहाल, कई प्रश्नों में से ये कुछ प्रश्न हैं जिनका उत्तर खोजना होगा। एक बहस इस ओर बनती हुई दिखती है।
तनुज से tanujkumar5399@gmail.com पर बात हो सकती है।