कविताएँ::
निखिल आनंद गिरि

कीमोथेरेपी 

1.

यह आराम कुर्सी है जहाँ
न मन को आराम है, न तन को
यहाँ ज़हर धीमे धीमे नसों में उतरेगा
न सो सकेंगे, न जागने की इच्छा होगी
अगल बगल सब इसी कुर्सी पर आराम से
मरने की तैयारी में हैं
सारी दुनिया ने अपना बीमा करवा रखा है।

2.

यह पुराना मरीज़ है
वह नई नर्स है
उसे ढूंढने पर भी नस नहीं मिलती
वह यहाँ वहाँ सुई के सहारे
ढूंढ रही है सही जगह
उसे आदमी या बीमारी से कोई मतलब नहीं
उसे एक नस चाहिए
दवा का नाम कुछ भी हो
तकलीफ़ एक जैसी है
नर्स की मुस्कुराहट भी।

3.

वह भली औरत है
गांव से बीमारी लेकर आई है
कीमो या मोमो उसके लिए एक समान है
वह किसी संबंधी से पूछती है
कीमोथेरेपी को हिंदी में क्या कहते हैं
इसका जवाब किसी के पास नहीं है
यह बीमारी हमारी भाषा में
बदल जाती है एक राशि में
और इलाज एक अंतहीन उदासी में।

4.

यहाँ मृत्यु की बोली लगती है –
“कुछ दिन
कुछ हफ्ते
महीने या कभी कभी एकाध साल”
डॉक्टर की आँखें सबसे झूठी आँखें हैं
वहाँ दिलासा है, कोई आशा नहीं।
वह बताएगा सच्ची झूठी कहानी
कि कैसे कोई मरीज़ दो हफ्ते की उम्मीद पर आया
और दो साल तक चला।
आप इस उम्मीद पर निसार होकर
अपनी दो साल पुरानी ब्याहता को
कीमो की तरफ ले चल पड़ेंगे।

5.

सभी मरीज़ टीवी पर कोई कॉमेडी फिल्म देख रहे हैं
फिर “गुड न्यूज़” टुडे
फिर “लाइफ ओके”
यह विडंबनाओं का वेटिंग रूम है
जहाँ से आप अपने बाईसवें, चालीसवें या पचासवें
कीमो के लिए कतार में हैं।
शुक्र मनाइए कि अब भी संसार में हैं

6.

सब रिश्तेदार वहाँ जल्दी में हैं
पार्किंग, बिल, टेस्ट, ओपीडी, सर्जरी..
कुछ देर के लिए भूलना होता है स्वजन का चेहरा
लाइन में खड़े खड़े छिपाने होते हैं आँसू
सबकी आंखें वहाँ भीगी हुई हैं
हाल चाल कोई नहीं पूछता
सब गीली आँखों से पूछते हैं
“कितना समय बाकी है?”

 7.

मैं एक शानदार केयरटेकर रहा
उछल उछल कर कभी इस फ्लोर
कभी उस फ्लोर
डॉक्टर के गेट पर खड़ा लड़का मेरे गांव का निकला
ओटी में फाइल ले जाने वाला जात का

हर जगह मेरी चालाकियों ने समय बचाया
हर कीमो के बाद लौटा थोड़ा और जल्दी घर
जहाँ चार साल की बेटी
बासी भात और चिप्स के सहारे
करती रही लौटने का इंतज़ार ।

8.

गूगल न ग्राम देवता थे, न कुल देवता
फिर भी हर प्रार्थना
मैंने गूगल के सहारे की
कोरोना बड़ी बीमारी या कैंसर
कौन से स्टेज तक बीमारी में उम्मीद बाक़ी

जब देश में होगा लॉकडाउन
तब यही गूगल बताएगा
कीमोथेरेपी के लिए सुरक्षित
पहुँचने के रास्ते

फिर एक दिन गूगल ने बताया
वह जानकारी दे सकता है, जीवन नहीं।

9.

दुनिया जब लहराते बालों में नायक ढूंढती थी
यहाँ तक कि सफेद दाढ़ी में भी
कवि जब लहराती जुल्फों में ढूंढते थे
प्यार की असीम संभावनाएं

कीमोथेरेपी ने सिखाया
उखड़ते नाखून, पिचकते गाल
झड़ते हुए बालों में भी सुंदर है जीवन

10.

दुनिया कहाँ से कहाँ चली गई
सरकारें पलक झपकते बदलीं,
एक और नया कथावाचक मिला हिंदुओं को
गोलियाँ चली गाय के नाम पर
एक नायक की फिल्म फिर पिट गई
मेट्रो ट्रेन भी देरी से पहुँची

समय से हुआ तो बस एक के बाद
दूसरा चक्र कीमोथेरेपी का

आज दवा उर्फ़ ज़हर चढ़ेगा
परसों बुखार आएगा, फिर सुई लगेगी
प्लेटलेट गिरेंगे, मरीज़ भी कभी कभी
फिर आ जायेगा अगले कीमो का नंबर

दुनिया एक कीमो से दूसरी कीमो साइकिल तक पहुंची
एक अंधी सुरंग से ज़्यादा कुछ नहीं।

ग़लत पता

ओ मृत्यु!
तुम क्या किसी गलत द्वार आई थी
हमने तो नहीं बुलाया था तुम्हें
न ही दरवाज़े पर थी किसी दस्तक की आवाज़
दबे पांव कौन आता है संगिनी के भेस में।

अभी तो हम दुख में मुस्कुराना ही सीखे थे
मेरी बच्ची ने अकेलेपन से जीतना शुरू किया था
डॉक्टर उसे सबसे निरीह लगते लगे थे
जब वो देखती उन्हें मूर्तियों के आगे माथा टेक कर
अस्पताल में प्रवेश करते।

अभी तो उसने बोधगया ही देखा था
उड़ता हुआ आख़िरी पत्ता बोधिवृक्ष का
जीवन में उतरना बाक़ी रहा बुद्ध का।

चूहों का एक मंदिर होता है
अभी अभी जाना हमने
दूध पीकर सफेद चूहे कितने विस्मय से देखे उसने

कितने झूले, कितनी नदियां, कितने शहर
अभी घूमना रहा बाक़ी
एसी के सारे डिब्बे में नहीं चढ़ी अब तक
हवाई जहाज़ बस दूर से देखा था उसने

न रांची के पहाड़ी मंदिर गई
न कोलकाता के दीघा घाट
न सिलीगुड़ी की चहल पहल
न केरल के ठाट।

अभी चिपक कर देखनी थी कई फिल्में
भीगना था किसी अल्हड़ बरसात में
मैगी पर गुज़ारनी थी कुछ बातूनी रातें
डिज़्नीलैंड घूमना था साथ में

फिर किस बहाने
किस कारण
आई तुम?

अगर पता ग़लत हो तो
लौट आती है बैरन चिट्ठियां
क्या मृत्यु ग़लत नहीं होती कभी!

आख़िरी मुलाक़ात

वो टोटो पर बैठकर प्रेमगीत लिखने के दिन थे
जब इस पृथ्वी पर आखिरी बार हम मिले थे
तब भी अनार का भाव सौ रुपए से ऊपर था
और अंगूर भी खट्टे लेकिन महंगे थे
और संतरे अभी अभी बाज़ार में आए ही थे
और जेब में पैसे कम थे
एटीएम कार्ड ज़्यादा।

हम पहली बार की तरह ही आख़िरी बार मिले
थोड़ी देर हंसने का अभिनय करते हुए
लड़ते रहे मुख़्तसर सी मुलाकात में।
हम किन बातों के लिए लड़े थे!
कि मेरा फोन तीन बार नहीं उठाया गया
कि मुझे अब भी उसकी बीमारी से अधिक फ़िक्र
उसकी ज़िद से थी
कि उसे हवाई जहाज़ में घूमना है।

हमारे बीच एक रेंगता हुआ समय था
जो अचानक अपने कदमों पर उठ खड़ा हुआ था
यह हमारी आख़िरी मुलाकात थी
और मैं पहली बार ज़मीन चाटते हुए
अपने बच्चे से मिला था।

वह युद्ध की मार झेलकर भूखा नहीं था
बीमार मां की लाचारी में भूखा था
फिर भी मुस्कुरा रहा था।

वह ईद की सुबह थी जब हम मिले
मालदा के इलाके में तब इतना दंगा नहीं था
राजा महंगे कपड़े पहने इतना नंगा नहीं था।
वह बीमार थी और कहीं भी अस्पताल नहीं थे
उसकी आंखों में अब कोई सवाल नहीं थे।

उसे मेरे साथ आना था
मगर मेरे पास कोई और बहाना था।

उस आखिरी मुलाकात की याद जाती नहीं
किसी बारिश में धुलती नहीं
कोई गर्मी उसे सुखाती नहीं।

क्या संसार की सब अंतिम मुलाकातें
इतनी ही अधूरी, इतनी ही उदास होती हैं

वह धरती पर नहीं है,
यह दुख कम बड़ा है
दुख वो ज़ालिम याद है,
जिसमें मेरे पास सबसे ख़राब पैसेंजर ट्रेन में लौटने के सौ बहाने हैं
और कोई बीमार, पूरी नाउम्मीदी में भी
हाथ बांधे खड़ा है।

बसंत का शोकगीत

हर बसंत
जब पत्ते खुश दिखते हैं
पेड़ खुश दिखते हैं
हवा संगीत बनकर कानों तक पहुंचती है
पुरवा पछुआ एक साथ दोनों कानों से
आत्मा के तार को छूते हैं
मैं तुम्हारी यादों के साथ बसंत को उदास करता हूं

किसी को उदास करना ठीक नहीं
जानता हूं मगर
इस दुनिया ने ठीक वही किया मेरे साथ
उस बसंत जब एक पीली साड़ी वाली लड़की
मेरा मौसम बदलने आई थी
और उसने कहा था हम हर बसंत इसी तरह खिलखिलाएंगे

जैसे दो बच्चे आपस में हंसते हैं
जैसे चिड़िया चावल के दाने पाकर चहचहाती है
जैसे मेरी बूढ़ी दादी, जो बीड़ी को, खुराकी कहती थी
मेरी डांट के साथ बीड़ी का बंडल पा चहक उठती थी

मेरे जीवन का बसंत अब सूना है
मेरी हंसी के पत्ते
अस्पतालों के चक्कर खा कर बिखर गए
मेरी उम्मीदों के पेड़ की जड़ें
जिसके नीचे
दो प्राणी गरम जिलेबी खाकर मिलते थे
कीमो की दवाओं से नष्ट हो गईं।

वह लड़की जो पीली साड़ी में मेरे साथ
मेट्रो की सीढ़ियों पर भी चढ़ने से कतराती थी
अकेले बहुत दूर जा चुकी है
कुछ दूर कंधों पर
फिर ढुलमुल करते ट्रैक्टर पर
फिर ज़मीन पर लकड़ियों की एक गाड़ी
जिसमें आग लगी
फिर पानी की गाड़ी पर अनंत यात्रा

यह दुनिया जिसने हमें आशीष दिया था
उसी ने लकड़ियों से धकेल कर
उसे स्त्री से राख बना डाला
पुरवा हवाओं से भरी दुनिया में
जीना तो चाहता हूं
दुनिया से नज़रें मिलाना नहीं चाहता

चालीस की सड़क – 1

दुनिया अब बाज़ार में बदल गई है
दोस्त अब आत्महत्याओं में बदल गए हैं
मंच अब मंडियों में बदल गए हैं
कविताएं अब पंक्तियों में बदल गई हैं

तुम्हारी याद एक बच्चे की नींद में बदल गई है
मेरा रोना अब लोरियों में बदल रहा है।
इस वक्त जो मैं खड़ा हूं
चालीस की तरफ जाती एक सड़क पर
जिसका नाम जीवन है
और जो एक पीड़ा में बदल गया है –

मैं बदलना चाहता था एक प्रेमी में
एक अकेले कुंठाग्रस्त कवि में बदलता जा रहा हूं

दुनिया बदल जाती केले के छिलके में
तो कितना अच्छा होता
फिसल जाते हम सब।

दुनिया एक प्लेस्कूल में बदल गई है
जहां मेरे दो बच्चे पढ़ते हैं
चहचहाते हैं, नई भाषाएं सीखते हैं
दुनिया का नक्शा काटते हैं।
और मैं उनके लौटने का इंतज़ार
करता हूं सड़क के उस पार

मैं एक भिक्षुक में बदलना चाहता था
जिसके कटोरे में मीठी स्मृतियां होतीं
मगर मैं एक चौकीदार में
बदलता जा रहा हूं
सावधान की मुद्रा में खड़े
उम्र के बुझते हुए लैंप पोस्ट के नीचे  

चालीस की सड़क – 2

मैंने एक डायरी खरीदी
कविताएं लिखने के लिए
फिर उसमें रोज़ का खर्चा लिखने लगा
मोटी डायरी थी
और खर्च करने को पैसे नहीं थे
प्रेम था थोड़ा बहुत
कविताएं उससे भी कम।

समय हमारी इच्छाओं से चलता हुआ घोड़ा नहीं
समय केले का छिलका है
फिसल रहे हैं हम सब
दुनिया प्रेमिका की तरह है
एक दिन भुला देगी।

पहले पिता फिसलेंगे या मां
यह डर इतना बड़ा है कि
सोचते सोचते मेरे पांव भी अब छिलके पर हैं
बच्चे सुरक्षित हैं फिलहाल
लेकिन बस मेरे खयालों में ही।

बच्चों के लिए क्या है दुनिया
सिवाय प्लेस्कूल के
शोर बहुत है और उसी से सीखना है।

चालीस की तरफ़ आते आते लगता है
जीवन में कोई ईशान कोण नहीं
सब दिशाओं में वास्तु का दोष है

जब दाढ़ी नहीं उगती थी
तो दाढ़ी उगना आख़िरी इच्छा की तरह थी
अब दाढ़ी बनाने में
सुबह का सबसे कीमती समय ज़ाया होता है।

तानाशाह की दाढ़ी सिर्फ बच्चा खींच सकता है
चालीस की ओर का कोई आदमी
सिर्फ गोली खा सकता है
गोली या तो डॉक्टर लिखेगा
या विद्रोह में शामिल होने पर
कोई हमउम्र पुलिस अफ़सर

इस उम्र पर बहुत कुछ लिखा गया
मगर लिख देने से क्या होता है
मेरी प्रेमिका ये उम्र नहीं देख सकी

जब लगा मर जायेगी
बच गई
जब लगा बच जाएगी
मर गई

 रिंगटोन

एक सस्ता फोन मां के पास है
जो चाह कर भी नहीं टूटता
पिता के पास भी है फोन
वह ख़ुद भी टैंपर्ड ग्लास की तरह
टूटने से बचाते हुए हमें
हमारी सुरक्षा के भ्रम में हैं।

एक लैंडलाइन अब तक है
हमारे यहां जो कुछ दिन में
इतिहास बन जाएगी।

जितने लोग हैं दुनिया में
उनसे कहीं ज़्यादा हैं फोन
ग़लत नंबर वालों के कॉल सबसे ज़्यादा
कर्ज़ वालों के भी
थाई मसाज कराने के लिए भी
कर लेता है कोई अजनबी संवाद।
कोई वोट मांगने के लिए भी
कर लेता है झूठमूठ याद।

जो असल में याद आते हैं
बहुत प्रतीक्षा करने पर भी
नहीं आता उनका कोई फोन कॉल

विज्ञान तुम आगे बढ़ो इतना कि
जीवन-मृत्यु के दो संसारों में
बंट गए अभिन्न लोग
एक बार कॉल कर सकें एक-दूसरे को
या किसी रिंगटोन के सहारे ही
खोल दो उनकी अनंत नींद

कविता में याद करने की अपनी सीमाएँ हैं।

पुकार

देखो मां!
तुमसे मिलने कौन आया है

मुझे गिराओ किसी पत्ते की लंगड़ी से
मैं चूमूंगा मिट्टी
पत्ते फूल की तरह झड़ेंगे

मैं आंगन में अकेला टहलता हूं
एक बूढ़ी अलगनी है,
एक उदास कुआं है
मिट्टी के चूल्हे में सिर्फ धुआं है
इस वीराने में रोऊंगा नहीं
जानता हूं

तुम यहीं छिपी हो कहीं
देखो ये किसके नन्हें पांव है
जो अपने पुरखों को गुदगुदी करते हैं

आओ खेलें लुकाछिपी
एक दो तीन चार

धप्पा करो एक बार
सुनो मेरी पुकार
ढूंढ रहा हूं अनंत तक तुम्हें।

मृत्यु की याद में

कोमल उंगलियों में बेजान उंगलियां उलझी थीं
जीवन वृक्ष पर आखिरी पत्ती की तरह
लटकी थी देह
उधर लुढ़क गई।
मृत्यु को नज़दीक से देखा उसने
एक शरीर की मृत्यु को।

रोते हुए सगे संबंधियों के बीच
मैंने देखा वो एक चेहरा
जिसके पास रोने को कोई उपयुक्त वजह नहीं थी।
वह उस औरत का दुधमुंहा शिशु था
जिसे दूध पिलाकर शरीर छूट गया मां का।

वह शिशु अब दूध के लिए रोता नहीं
उसने मृत्यु को समझा आठ महीने में
अब जीवन को समझेगा
निर्बाध।

वह अपनी बड़ी बहन को देखेगा तो मां याद आयेगी
बड़ी बहन उसे देखेगी तो मां याद आयेगी
दोनों पिता को देखेंगे तो मां याद आयेगी
पिता रोने की उपयुक्त जगह ढूंढकर
रोएंगे तो सब याद आएगा ।

कोई बस ख़ाली सी
कोई मंदिर सूना सा
कोई किताब चेहरे जितनी
कोई पर्दा अकेला सा
कोई गली अनजानी सी
कोई समय अनमना सा
क्यों नहीं मिलता
हंसते मज़बूत दिखते पिताओं को

पिताओं के पास रोने की जगह क्यूं नहीं होती
दुनिया में?

याद का आखिरी पत्ता

विजय
छल पर निश्छल की
कोलाहल पर शांति की
युद्ध पर विराम की
अनेक पर एक की
हँसी पर आंसू की
मृत्यु
एक उपलब्धि है
जिस पर गर्व करना मुश्किल है

तुमने वह पा लिया मुझसे पहले
जिसके बाद कुछ पाने की इच्छा नहीं बचती
मृत्यु बुद्ध हो जाना है
रोना, कलपना, मिलना बिछड़ना
सब छोड़ शुद्ध हो जाना है

मन एक साथ इतनी आवाज़ें करता था
अब शांत है
स्मृतियां धीमे धीमे टहलती हैं

हमारी याद में एक नंबर पर चलती गाड़ी है
एक फिरोज़ी रंग की नहीं खरीदी गई साड़ी है
एक रिसता हुआ नल है
सीलन वाली दीवार है
एक नहीं सुनी गई पुकार है
और कभी न खत्म होने वाला इंतजार है

उस पत्ते पर अब तुम्हारा चेहरा है
जो बोधिवृक्ष से टूट कर गिरा था
हमारी याद में एक पत्ता खड़कता है
और उसे छू लेने को
मुझ सा कोई अनंत तक लपकता है।

प्रेतशिला

प्रिय जो छोड़ गया शरीर
उसे जलाने के बाद
धूप में तपती सीढियां चढ़कर
जलाने होते हैं तलवे
उसकी याद को छोड़ आना होता है
सात सौ सीढ़ियों के उस पार
….
….
तब जाकर मुक्ति देती है प्रेतशिला

प्रेतशिला मुक्ति का द्वार है
एक बार मुड़े तो
पीछे मुड़कर देखना तक मना है
छोड़नी होती हैं
मिलने की तमाम अधूरी इच्छाएं
रोते रोते छोड़नी होती हैं
हँसी खुशी बिताई तमाम स्मृतियां

अब उसे कितना बुखार?
किस मौसम में कैसा व्यवहार
कितने कपड़ों को साफ किया उसने
कितने बर्तन धोए जले जले
कितनी रातें तन्हा चांद तले!
सब कुछ छूट जायेगा

उतरती सीढियों में टकराती हैं निगाहें
ऊपर चढ़ते बिलखते नए चेहरों से
उनको हौसला भरकर झूठ कहना होता है
“बस कुछ सीढियां और”
कितनी सीढियां, कितने बिछोह!
किस किस से पूछा जाए
किसने कैसे साथ छोड़ा, ओह!

किसी की पत्नी जलकर मरी
किसी की डूबकर नदी में
किसी की पत्नी को लील गई
कम उम्र में ही बीमारी
सब सीढ़ियों पर रोएंगे

हर साल हर महीने हर हफ्ते हर घड़ी
कोई न कोई आएगा प्रेतशिला
अपने-अपने प्रिय प्रेतों के लिए
नए कपड़े लेकर
प्रिय पकवान, कोई फोटो या कोई हंसती तस्वीर
रोते रोते लाएगा, छोड़ जायेगा
सशरीर

यह प्रेतशिला नहीं
आंसुओं का टीला है
जहां आंसुओ के आरपार
जीवन और मृत्यु के धागे उघड़ रहे हैं।

(प्रेतशिला गया के पास एक जगह है जहां अपने प्रिय की मृत्यु के बाद मुक्ति के लिए आने का रिवाज है)

मैं लौटता हूँ 

प्रिय दुनिया,
बहुत दिनों तक भुलाए रखने का शुक्रिया!
मैं इतने दिन कहां रहा
कैसे बचा रहा
यह बताना ज़रूरी नहीं
मगर सब कुछ बचाते बचाते
खुद न बचने का डर वापस लाया है।

इस बीच एक लंबी रात थी
जो शायद अब भी है
मगर अंधेरे में दिखने लग जाता है
लंबी रातों में।

एक बार उदासी कुछ यूं थी कि
मैंने किसी गिलास को पकड़ने के बजाय
एक औरत की गर्दन पकड़ ली
बहुत देर बाद मालूम हुआ
अंधेरा कितना खतरनाक,
कितना अंधेरा हो सकता है।

मुझे अंधेरे में कई हाथ दिखते हैं
कई गर्दनें दिखती हैं
संभव है ज्यादातर औरतों की गर्दनें हों
मुझे लगता है कि जब देखूंगा
उजाले में उन हाथों को
क्या उनके हाथ में उजाले की गर्दन भी होगी?

इन भुलाए गए बहुत दिनों में
मैं एक बंद कमरे को दुनिया समझता रहा
ऐसा कई लोग करते हैं अपने उदास दिनों में
मगर कहने की हिम्मत नहीं करते।

इसी बीच कुछ प्यार करने का मन हुआ
तो मैंने अपनी चीख से प्यार किया
उस लड़की का चेहरा भी दिमाग में आया
जिसे कभी किसी से प्यार की उम्मीद नहीं रही।
मैं कई बार लड़ा अपने डर से
दवाईयों से, घर से
कई बार तो डॉक्टर से।

तो मैं कहना चाहता हूं जो
सिर्फ इसी भाषा में संभव है
कि दुनिया में कुछ भी इतना प्यारा नहीं
जितना भुलाए जाने का डर।

मैं लौटता हूं
अपने तमाम डरों के साथ
कविता की तरह नहीं
बरसों बाद लौटी चीख की तरह।

दुख का रुमाल

इस सर्दी में कंबल ज़रा-सा सरका
तो सुन्न पड़ गया अंगूठा
हवा के साथ सुर्र से घुस आई
तुम्हारी याद दुख बनकर
कोई सुख ओढ़ाने नहीं आया।

लू वाली गर्मियों में
हाथ वाले पंखे की खड़-खड़ बन
बारिश के मौसम में
चप्पलों की छप छप बन
ऐसे ही आती रहेगी याद।

टिफिन में मीठे अचार का टुकड़ा बनकर भी
याद आ सकती है
या अजनबी दिल्ली में पहली बार
ग़लत बस में चढ़ने की डांट बनकर

तुम्हारा जाना बड़ा दुख है
इससे बड़ा दुख है
तिल-तिल याद का आना

ज़िंदगी एक दुख भरे गाने की तरह है
जिसके रियाज़ में आते हैं आंसू
आ जाती है तुम्हारी याद भी
आंसू पोंछते हुए रुमाल की तरह

अब विदा लेता हूं

काश हमें अपनी आख़िरी मुलाकातों का पता हो
तो हम कितना बेहतर बना देते अपनी मुलाकातें
शिकायतों से नहीं मिलते
अगली बार मिलने की इच्छा लिए भी नहीं
गले लगते तो देर तक रोते नहीं
पीछे मुड़ मुड़ कर नहीं देखते लौटते हुए

कोई रोता तो पोंछते आंसू
और समझाते
बिछड़ना ही सच है मेरे साथी
कोई मुलाकात नहीं ऐसी कि बिछड़ना न हो जिसमें
फिर रोना क्यूं
मुस्कुराकर मिलें आखिरी मिलना भी

हम याद करते अपनी पिछली मुलाकातों की हसीन गलतियां
कैसे झूले पर बैठने से पहले लड़े हम
कैसे गिरी चम्मच से खाने की कोशिश में
नई कमीज़ पर चटनी
फिर मेरा गुस्सा तो तुम जानती ही हो

कैसे एक मुलाक़ात में
हमने एक दूसरे का रोल प्ले किया था
तुमने दवा की दुकान पर जब मांगी थी एक गोली
कि दुकानदार देर तक पोछता रहा पसीना

कैसे मुड़ते ही बेटी के
तुमने चूम लिया था पहली बार मेरा माथा
और चूमना एक नया आविष्कार था हमारे लिए

आज मैं याद करता हूं एक मुलाकात को
जिसमें तुमने मरने का अभिनय किया था
देर तक लेटी रहीं मेरी गोद में
मैं रोने का अभिनय करता रहा
कि अब उठोगी
अब उठो.. गी
अब!!

एक पल नहीं
एक दिन नहीं
एक महीना नहीं
एक जीवन भी नहीं
पर्याप्त
उस विदा को भूलने में

यह साल का आख़िरी दिन है
और मैं इस साल से वो दृश्य अपने साथ लेकर
कई सालों तक थामूंगा
कभी तो उठोगी
या फिर मैं ही लेट जाऊंगा
जीवन का अभिनय करते करते
मेरी ज़िद तो तुम जानती ही हो।

अब विदा लेता हूं।

घर पर कोई नहीं है

आप उससे मिलने आए हैं
अभी वो घर पर नहीं है
रात भी नहीं थी
ना बाएं करवट थी, ना दाएं करवट

वो मुस्कुरा कर मिलती थी स्वागत में
पर नहीं है..

वो सबसे अच्छी चाय पिलाती थी
मगर फिलहाल यह संभव नहीं है

मैं भी घर पर नहीं था
तभी वह बाहर निकली
किसी ज़रूरी काम से निकली होगी

आप तो जानते ही हैं
वो कैसे निपुणता से सब काम करती थी
पढ़ती और पढ़ाती थी
सुंदर खाना खिलाती थी
मुझसे लंबी बहस करती थी
और मुझे भय होता था कि कहीं बाहर न चली जाए

उसे शायद एक लंबी यात्रा पर जाना था
उसने अपने लिए चार कंधे तैयार किए
फूल धूप गंध आंसू विलाप सब रास्ते में साथी रहे
उसने लकड़ियों को अपने वज़न के अनुपात में जुटाया
फिर गांव कस्बे शहर के व्यस्त जाम में निर्बाध बढ़ती रही आगे
सब उसे जानते थे तो रास्ता देते गए
उसे जहां पहुंचना था उसका समय तय था

वो तय समय पर पहुंची और धुआं हो गई
वह बादलों से देखती है
घर पर निगाह रखती है।
मेरा जन्मदिन ज़रूर याद रखती है।

मेरी पत्नी अब घर पर नहीं रहती

अचानक नदी में उतरी लड़की के लिए

वो नाराज़ हुई तो तो उठकर चली गई
किसी दूसरे कमरे में
फिर किसी और कमरे में
फिर एक दिन घर से बाहर चली गई
फिर एक दिन दुनिया से बाहर
कभी नहीं लौटी।

उसने अपने गुस्से की ईमानदारी बरतते हुए
अपने आसपास ऐसे लोग खड़े किए
जो मुझे उससे दूर रख सकें
उन लोगों के चेहरे ठीक ठीक याद नहीं
मगर नीयत देखकर लगता था कि
वो अपने काम में सफल होंगे

उन्होंने कंटीली झाड़ियां उगाईं चारों तरफ
ज़हरीले सांप छोड़े मेरे पीछे
फिर खुद
बेहद बदबूदार, हिंसक और क्रूर जानवर में बदल गए
जिन्हें ख़ून का स्वाद पसंद था

वो मेरे सपनों में अपने असली रूप में आए
और उसके सपनों में मेरा रूप धरकर
उसे मेरी कमी पूरी करने का भ्रम दिया
फिर उसका भ्रम टूटा तो
उसके सपने तक डरावने हो गए

उसने कंटीली झाड़ियों को पार करने की कोशिश की
लहुलूहान हुई
फिर उसके आसपास के लोग
जो हिंसक, क्रूर और बदबूदार थे
जिन्हें ख़ून का स्वाद पसंद था

उन्होंने उसके छलनी शरीर को चाटना शुरू कर दिया
फिर उसे भरोसा दिलाया कि इससे दर्द कम होगा
फिर खून चूसने लगे
फिर भरोसा दिलाया कि इससे सब ठीक होगा
उसने चीखना चाहा, जैसा कि उसकी रोज़ाना आदत थी
मगर अब चीख नहीं पाई

मैं गया तो उसे कंटीली झाड़ियों पर लेटा हुआ पाया
उसका खून सूख चुका था

उसे कुछ याद नहीं कि कब आंधी आई, आग उठी, तूफ़ान आया, बारिश हुई..
एक अद्भुत शांति थी उसके चेहरे पर
वह कई लोगों का ज़हर खींच कर बुद्ध की मुद्रा में थी

मैंने हल्के से आवाज़ दी तो नहीं उठी
थोड़ा तेज़ आवाज़ दी तो भी अनसुना कर दिया
मैं समझने को मजबूर हुआ कि अब वो मुझे इस तरह कभी नहीं सुनेगी।

अब हम सिर्फ मौन की भाषा में चीखते हैं
जिसे और कोई सुन नहीं सकता
हम दोनों साफ़-साफ़ सुनते हैं
और रो-रोकर मुस्कुराते हैं।

मैं उसे पलट कर देखता हूं
वो अब भी सो रही है
उसे दर्द में आराम है अब
मेरे देखने भर से ही।

मैं उसे पलट पलट कर देखता हूं
अब वो वहां नहीं लेटी है
शायद गंगा में उतरी होगी
उसे नदी का पानी बहुत पसंद था

अब मैं अपनी आंखों में हरदम एक नदी रखूंगा।  


दिसंबर में मई की याद

इस साल मई तक ठीक चला कैलेंडर
फिर एक जलते हुए दिन से
धुआं इतना उड़ा कि
ख़ाक हुए सब दिन
आगत विगत सब

बांस से पीट पीट कर बहाए अधजले मास
लात मारी
ठोकरें ही ठोकरें
गंगा में जबरन धकेल दिया सब कुछ
सब कुछ का भरम धकेला शायद

स्मृतियां चिपक गईं आत्मा से
नहीं गईं महंगी शराब पीकर भी
नहीं गईं गहरी नींद के बाद भी
नहीं गई चुटकुलों से, गानों से या लोरियों से भी
नहीं गईं शहर बदलकर भी
कहां कहां नहीं गया मैं
नहीं गईं तो नहीं ही गईं
स्मृतियां

जून में मई की स्मृति गर्म थी
जुलाई में नरम
अगस्त सितंबर भी भीगे रहे स्मृतियों से
अक्टूबर नवम्बर डूब गए
दिसंबर आते आते
मई की स्मृतियां पहाड़ सी हो गई हैं

अब मैं इन स्मृतियों के साथ ही नए वर्षों में जाऊंगा
यह कोई संकल्प नहीं
एकमात्र विकल्प है।

कुछ क्षणिकाएं

1

बीमारियां सब बुरी
मगर सबसे बुरी वो
जो पिता को हो

स्मृतियां सब बुरी
मगर सबसे बुरी वो
जिनमें ठुकराए जाने का दृश्य हो

2

अक्षर मिले कई

लुभावने शब्द भी
अर्थ नहीं मिला लेकिन

तुमने जितना लिखा
उतना ही पढ़ा गया मैं
आधा-अधूरा

3

मेरा अंतहीन आकाश बुलाता है
मैं दौड़ता चला जाऊंगा बच्चे की तरह
पीछे से आते
गुर्राते
कुत्ते रह जाएंगे यहीं।

समय से पहले चला जाऊंगा दुनिया से
इतनी तीव्र इच्छा से दौडूंगा मृत्यु की तरफ

4

लाख चाहता हूं कि तुमसे
अलग करूं ख़ुद को, लेकिन
तुम जैसे मेरे घुटनों का काला धब्बा

हर कोशिश के बाद मुझे
दिख ही जाती हो
और ज़रा सा शर्मिंदा भी
कर जाती हो।

मृत्यु पर कुछ और कविताएँ

1.

किसी दिन सोता मिला अपनी ही कार में,
तो कोई चिड़िया ही छूकर देखेगी
कितना बचा है जीवन।
लोग चिड़िया के मरने का इंतज़ार करेंगे
और मेरे शरीर को संदेह से देखेंगे।
स्पर्श की सम्भावनाएँ इस कदर ध्वस्त हैं।

2.

आप मानें या न मानें
इस वक़्त जो मास्क लगाए खड़ा है मेरी शक्ल में
आप सबसे हँसता- मुस्कुराता, अभिनय करता
कोई और व्यक्ति है।

आप चाहें तो उतार कर देखें उसका मास्क
मगर ऐसा करेंगे नहीं
आप भी कोई और हैं

चेहरे पर चेहरा चढाये।
ठीक ठीक याद करें अपने बारे में।
मैं क्रोध में एक रोज़ इतना दूर निकल गया
कि मेरी देह छूट गयी कमरे में।
मुझे ठीक ठीक याद है।

3.

तुम्हे कोई खुश करने वाली बात ही सुनानी है इस बुरे समय में
तो मैं इतना ही कह सकता हूँ
पिता कई बीमारियों के साथ जीवित हैं
अब भी।

माँ आज भी अधूरा खाकर कर लेती है
तीन आदमियों के काम।
घर में और भी लोग हैं
मगर मैंने उन्हें रिश्तों के बोझ से आज़ाद कर दिया है

मैं पिछले बरस आखिरी बार घर की याद में रोया था
फिर अब तक घर में क़ैद हूँ।

4.

मृत्यु की प्रतीक्षा में कुछ भले लोग चले जा रहे हैं
भाग नहीं रहे।
मृत्यु की प्रतीक्षा में कुछ लोग थालियां पीट रहे हैं
घंटियाँ, शंख इत्यादि बजा रहे हैं।
(इत्यादि बजता भी है और नहीं भी)
कुछ लोग लूडो खेल रहे हैं मृत्यु की प्रतीक्षा में।
जिन्हें सबसे पहले मर जाना चाहिए था
बीमारी से कम, शर्म से अधिक
वही जीवन का आनंद ले रहे हैं।

मृत्यु एक प्रेमिका है
जिसकी प्रतीक्षा निराश नहीं करेगी।
वो एक दिन उतर आयेगी साँसों में
बिना आमंत्रण।
दुनिया इतनी एकरस है कि
मरने के लिए अलग बीमारी तक नहीं।


निखिल आनंद गिरि हिंदी के चर्चित कवि हैं। ‘इस कविता में प्रेमिका भी आनी थी’ शीर्षक से उनका एक काव्य-संकलन प्रकाशित है। उनसे memoriesalive@gmail.com पर बात हो सकती है। 

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