कविताएँ::
प्रतीक ओझा
1. यादों की हजार बिल्लियाँ
कितना कुछ रहा इस जीवन में जब यादों से भरा रहा आँगन
कुछ भी खाली नहीं लगता
खिड़की, दरवाजे और पंखे सब पर म्यऊँवाती रहतीं हजार यादों की हजार बिल्लियाँ
वे आतीं अपने आने के दृश्य के साथ और चली जातीं दृश्यों के उस पार, देखने, जैसे गांव देहात में लोग जाते है देखने मेला, वे देखने जाती हजार नींदों का संसार।
उनके वहाँ जाने से उनकी आँखों के चारों ओर लगा हुआ यह घर इतना सूना-सूना लगता कि दरवाजे, खटिया, खिड़की, सब छोड़ने लगते मेरा साथ और भागने-भागने को होते हजार नींदों की दुनिया में।
एक दिन अचानक वे जब हजार नींदों की दुनिया से तलुए चाटते लौट आतीं तो जीवन के दरवाजे पर उनके पंजों के निशान मिलते। खुरचन से भरा मिलता आंगन, दुआर, घर और मैं।
हमेशा नहीं बन सकता नींदों का संसार, हमेशा नहीं आ पातीं हजार यादों की बिल्लियाँ, हमेशा नहीं मिल सकते उनके पंजों के निशान जीवन के दरवाजे पर। किसी एक दिन वे नहीं होंगी, नहीं होगा उनका कुछ भी, एक दिन…
एक दिन सोचते-सोचते हुए कितने दिनों का बीत जाना
एक दिन बीतते-बीतते, खुद के लिए बीता हुआ महसूसना
एक दिन जब नहीं होगा उनका कुछ भी, न जाने कैसा होगा जीवन, उनके पंजों के निशान के बिना।
उस एक दिन अब जब वे नहीं है, कुछ नहीं है, न यादों की हजार बिल्लियाँ और न ही हजार नींद की आँख
तब उनके कहीं होने की स्मृति में एक नींद की आँख भर है
और है एक याद की भूरी बिल्ली
एक याद के दूर से पास आती हुई भूरी बिल्ली
धुंधले, मद्धिम और स्पष्ट जैसे दृश्यों की परतों से खोलती रही अपने आने का दृश्य
होता रहा उसका इंतज़ार
होता रहा उसका इंतज़ार यह वाक्य समाप्ति की तरह बार-बार गूंजता है, मेरे खाली जीवन में
जैसे सच में हो कोई भूरी बिल्ली, सच में होता हो उसका इंतज़ार
एक याद की भूरी बिल्ली का, एक नींद की आँख से।
2. कुछ चीजों के गाढ़ेपन पर कोई आलता नहीं होती
अहाते की दीवाल फिर मोहार से होते हुए कमरे की डेहरी से, धीमे, बहुत धीमे आती हुई मृत्यु, पूरे घर में बुन रही है अपने आने का कोहरा,
गौखा, खिड़की, चूल्हे के बर्तन, किवाड़ और झाड़ू तक पर उसका जब है कब्जा
तब बहुत सघन कोहरे से भरे इस घर में, मिट्टी की जमीन पर पड़ी हुई तुम्हारी आलता की छाप, तुम्हारे चले जाने के शोक को बढ़ाते हुए उसे ताजा रखती है, इतनी ताजा कि रुदन की भाषा में शरीर के पोर-पोर से झनझना उठता है पीड़ा का राग
रुदन की भाषा में ही पीड़ा के राग से छूटती है चीख, उसी भाषा में गाढ़ी होती रही गुलाबी आलता, घना होता रहा कोहरा, मथता रहा ये मन, और घने कोहरे के बीच पास आती रही मृत्यु, सहगल की आवाज के साथ…
यह सहगल की आवाज या गीत का प्रभाव या रुदन की भाषा ही होगी कि आँखों के सामने छा जाता है धुंध, गीत–अगीत, ध्वनि-अध्वनि, दृश्य-अदृश्य सब धूमिल होने लगता है, आलता भी धूमिल हो ही जाती है, वह सब के बाहर नहीं, छूटने लगता है उसका भी रंग
जो नहीं धूमिल होता तो बस तुम्हारे चले जाने का निशान, वह दूसरे संसार का होगा शायद तभी भीतर गाढ़ा होता जाता है, बिना किसी आलता के।
बिना किसी आलता के भीतर का निशान, हमेशा तुम्हारे चले गए को देखता है, कई दिनों के कोहरों के कैद के साथ, बस देखता रहता है,कभी चल नहीं पाता, चले जाने के पीछे
वह मन नहीं था जो चला जाता पीछे,
वह तो बस छूट जाता है, मृत्यु के घने होते कोहरों के बीच, गाढ़ा, बहुत गाढ़ा होने के लिए…
3. ताले के लिए
अँधेरे से भरे कमरे के दरवाजे की सांकल पर जीवित बने रहने का श्राप भोगता अटका है जीवन, रोशनी की पहली किरण खातिर
एक आँख टिकी है जमीन पर चलती चींटियों के ऊपर, कपड़े कुतरते चूहों पर घूम रही है, किताबों में घुसती सीलन में रही है डूब, उद्देश्यहीन
अब जबकि यह पूरा जीवन ही सिर्फ जीते रहने पर श्राप है, अकर्मण्य होता जा रहा हूं, सिर्फ लेटा हूँ, लटका हूँ सांकल पर, उम्मीद के नाउम्मीद होने तक,ढो रहा हूँ एक अकेलापन, किसी ब्लैक होल की तरह सबकुछ निगलते हुए।
मेरे ही ऊपर, मुझसे ही निकला लाल रोग परतों की तरह चढ़ रहा, पैर की पहली ऊंगली, जांघ का पूरा साम्राज्य उसके हवाले है, एक दिन पेट होगा कब्जे में उसके, किसी दिन गले तक भी होगा उसका कब्ज़ा और सबसे अंत में मुँह में भरा मिलेगा, ठसा–ठस्स, मुझे और अधिक श्रापित करते हुए
मेरे सतत दुःख की सूनी आंख, एक बूँद रुदन तक को श्रापित, एक शब्द विलाप तक को बाधित, खो देगी अपना प्रकाश, नहीं देखा जा सकता और दुःख, और नहीं जिया जा सकता जीवन, भले ही यह जीने के लिए हो, अस्वीकृत करता हूँ बाकी का बचा हुआ, देता हूँ दान
सुना है मिथकों की परंपरा में जितना बड़ा रहा श्राप, उससे भी बड़ा दिया गया दान, मैं बड़े श्राप पर छोटा दान दे, कहाँ मुक्त होऊॅंगा।
श्रापित ही रहेगी सतत दुख की सूनी आँख, उतनी ही पीड़ा में होगी जितनी पीड़ा उस घोड़े को है जिसकी दुम में आग लगी हो और उसे पानी न मिले, उस हाथी को जो जीवन भर पार न कर सका थार का मरुस्थल और प्यासा मारा, उस बच्चे को जिसे खेलना पसंद था पर आजीवन करता रह गया मजदूरी और उस आदमी को जो सिर्फ इसलिए मारा गया कि उसे कभी नहीं मिला प्रेम, किए गए प्रेम के बदले
इस बहुत अधिक अस्त-व्यस्त दुनिया में अधिक ही रहा दुःख का विवरण, हमेशा जितना भी दिखता कम लगता।
अधिक विवरण, अधिक दुःख नहीं दिखा पाता। न ही कम विवरण में अधिक भर जाने से दिख जाता है भरा हुआ दुःख, वह तो घटित होता रहता है, पन्नों के दूसरी तरफ, विवरणों के इस पार, कठिन से कठिनतर, अधिक से अधिकतम होता रहता है उसका भार,
जीवन के पृष्ठ पर।
4. एक नींद तो सोऊँगा ही
नींद की दुनिया में नींद का एक पेड़ है, डाल और पत्तियाँ हैं, घर है नींद का, कमरा भी, खिड़की भी, सब नींद की
जिसमें बैठा हूँ, उनींदा
उनींदा नींद के पेड़ पर नींद लेने चढ़ रहा हूँ, दोहरा रहा हूँ डालियों पर चढ़ने का क्रम, चबा रहा हूँ पत्तियाँ,
भूल रहा हूँ कि इस जीवन यही किया है, फिर भी नहीं मिली नींद, नहीं सो पाया क्षण भर, इसी क्षण भर के लिए तरसा किया हूँ और कल ही तो शपथ लिया था अब और अधिक नहीं करूँगा प्रयास,
पर कर रहा हूँ,जो कर सकता हूँ, यह जानते हुए भी जो अब तक नहीं मिला वो कल भी नहीं ही मिलेगा।
करता रहूँगा नींद को पाने का उपक्रम,
उनींदा जिया, उनींदा मर भी जाऊॅं पर नहीं छोड़ूँगा उसे, मरने के बाद जहाँ जाऊॅंगा वहॉं डूँढ़ूँगा
एक नींद तो सोऊॅंगा ही, जीवन के इस पार या उस पार।
5. इच्छा का पेड़
इच्छा का कोई पेड़ हो तो उसकी डाल की टहनियाँ होंगे हम। एक-दूसरे से बतियाते, गले मिलते, रोते, प्रेम करते और बिछड़ते हुए हमारे ही किनारे-किनारे कलपेंगी नई हरी-हरी पत्तियाँ।
मन इस डर में रहेगा कि उन्हें तोड़ न ले जाए कोई, समय से पूर्व
समय से पूर्व वे पीली न पड़ जाएँ कहीं, झर न जाएँ किसी आँधी की प्रथम झोंक में, कोई चबा न ले उन्हें, गिरा न दे आग में, डूबो न दे पानी के प्रवाह में।
हम इसी तरह दिन रात खुद से ज्यादा बचायेंगे नव पल्लवित पत्तियाँ, अपनी चिंता छोड़, उनके जीवन के प्रति रहेंगे चिंतित।
किसी दिन जब उग जायेंगी वें, तब कहाँ जान पाएंगी हमारा त्याग, उनके लिए जिया यह सुखविहीन जीवन कौन दिखाएगा उन्हें, कौन बताएगा कि ऑंधी आने पर पूरी ताकत से हमने उन्हें पकड़ा बिना यह जाने कि डाल ने हमें पकड़ा है भी या नहीं।
कौन बताएगा कि जानवरों के झुंड आने पर उनकी पहुँच से दूर,उन्हें ही सबसे ऊपर किया हमने और स्वयं को झुकाते मिले जानवरों के मुँह की ओर।
अपना सूर्य दिया उन्हें, बचाया आग और पानी से, यह हमारे ही परिश्रम का फल था कि उनका पल्लवन सफल हुआ।
कौन ही बताएगा।
कोई नहीं बताएगा, कुछ भी नहीं बता सकेगा, हमारे विलगाव तक भी नहीं खबर होने पाएगी उन्हें कि कैसे संभाला गया सब।
और जब हम विलग होंगे या हम दोनों में से किसी एक का आयेगा अंतिम क्षण, तब साँस–साँस भर के लिए लड़ेंगे खुद से, पत्ती–पत्ती के लिए भीतर भर आएगा मोह, खूब करेंगे प्रयास न सूखने का, खूब कोशिश करेंगे कि सब हरा रहे पर हम सूख ही जाएंगे, नहीं बचा पाएंगे स्व को सूखने और पत्तियों के पीले होने से।
बगल के पेड़ से एक पत्ती टूटेगी, एकदम हरी, हवा में कई ढींचकीयाँ खाते कुछ आहिस्ते से गिरेगी जमीन पर
उस कुछ नम कुछ सूखे जमीन पर उभरेगा, उसके गिर जाने के बाद का निशान
और हमारा मन वहीं अटका रहेगा, उसी निशान पर, कोई शोक गीत नहीं होगा हमारे पास, अपने पीले होने के लिए।
6. आशा के न होने पर
(प्रभात की कविता ‘ पैदल चलने के लिए’ को पढ़ते हुए)
(1)
बहुत अच्छा होते हुए उसने कहा— आशा का कोई पेड़ नहीं होता, आशा का सिर्फ लाल खून हो सकता है, जो बहता है हमारी रगों में।
मैं तब से अपनी रगों में बहते खून को महसूसता हूँ और आशा को याद करता हूँ।
एक किताब में लाल की लालिमा में भी मुझे आशा दिखती है। सूरज की लालिमा की तरह।
जबकि आशा नहीं है इन दिनों, आशा तब भी नहीं थी जब उसने कही थी आशा के लाल खून वाली बात।
(2)
मुझे पता है आशा नहीं है, जैसे नहीं है ईश्वर पर
किसी नदी की गहराई में डूबूँगा तो आशा को याद करूँगा
किसी पहाड़ से गिरुँगा तो आशा याद करूँगा
किसी बीमार के घर जाऊॅंगा या हो जाऊॅंगा बीमार तो भी याद करूँगा उसे ही
संकट के क्षणों में मैं आशा को बार-बार याद करता रहूँगा जैसे लोग ईश्वर को याद करते हैं
जबकि लोग ईश्वर को याद करते हैं, जैसे आशा को याद कर रहे हों।
आशा और ईश्वर दोनों नहीं हैं, उनकी सिर्फ यादें हैं।
(3)
जिस दिन आशा की याद न होगी उस दिन उस याद को दुबारा याद करने की कोशिश करूँगा और खूब जोर लगाऊँगा कि याद आ जाए।
इतना घबराऊँगा कि जैसे वह याद न होगी तो नहीं होगी कोई और याद, ईश्वर की याद भी कहीं जमीन में दब जाएगी।
दबी हुई यादों के दिन जी फाड़ कर रोता मिलूँगा,
आधी रात अगल बगल के लोग नींद तोड़ मेरे कमरे की तरफ देखेंगे, एक व्यक्तिगत परेशानी की तरह
जैसे मैं कर ही लूँगा आत्महत्या।
जबकि मेरे मन में ‘आशा न हो तो कौन पैदल चले आशा के लिए’ की तर्ज पर गूँजता रहेगा एक वाक्य ‘आशा न हो तो कौन करे आत्महत्या, आशा के लिए’
आशा के न होने पर खूब रोऊँगा और नहीं करूँगा आत्महत्या, आशा के लिए।
प्रतीक ओझा हिंदी की सबसे नई पीढ़ी के प्रयोगधर्मी कवि हैं। उनसे pratikojha181@gmail.com पर बात हो सकती है।