कविताएँ ::
राजेश कमल

१. अधूरी कहानी

कलकत्ते के उस ऐतिहासिक बार में
जहाँ पिछली सदी के सबसे प्रिय कवि संग
एक बार गया था
और फिर, बार-बार गया

आज भी वही पुरानी महक
और इस बार बारिश की भीनी गंध भी
मैं वोदका की लहरों में बहता हुआ
समय की धुँधली स्मृतियों को
घोल रहा था

वहीं, सुदूर पहाड़ों से उतरी
एक नेपाली कवि मुझे देखती रही
मानो मेरे दुख का अनकहा ब्योरा
उसकी आँखों में दर्ज हो रहा है

फिर धुएँ के घेरे में हम टकराए
जहाँ मेरे समय का सबसे प्यारा कवि भी साथ रहा
हमने राजनीति पूछनी चाही
पर वो चुप्पी से मुस्कुराती रही
जैसे वो सवालों से बचकर
अपने भीतर लौट रही हो

उसकी आँखों में एक अजीब सी चमक थी
मानों कैथे की तस्वीरों में दवा हुआ इतिहास
छू लेना चाहती हो
उसकी जिज्ञासा हर क्षण गहरी होती गई
वह घबड़ाई लड़की
बहुत कुछ कहना चाहती थी
और कुछ नहीं कह पाई

इतिहास की तरह
इस बार भी कहानी बदल गई थी
न शब्द मिले न भाव
सिर्फ धुआँ, बारिश
और अधूरी बातों की गंध पीछे रह गई

और उस बार की तरह
वो कवि भी
मेरी स्मृतियों में रह गई
एक अधूरी कहानी बन कर।

२. पहली बार की हवाएँ

कितनी हल्की थी उसकी साँस
कितना भारी था उसका मन
कलकत्ते की धुँधली रौशनी में
कैथे में बैठकर जब उसने पहली बार छुई शराब

धुएँ में लिखी जा रही थी एक कहानी
जहाँ खामोशियों के लिए जगह नहीं थी
सिगरेट की लपटें थीं
वोदका का सुरूर था, और
उसकी ख़्वाहिशों में एक बार चिल्लाना था
फिर कई बार चिल्लाना था—
बहनचोद!

युगों की देह में
सदियों की ऊष्मा लिए
तमाम निषिद्ध को खोलने का ऐलान थी वह

ओह!
कितनी बेचैन थी वह आत्मा
जो पहली बार अपने होने का एहसास
कर रही थी

हर नन्हें अनुभव में
पुलक जाती एक किशोरी की तरह
जैसे फूल की पंखुड़ी पर ओस की बूँद

कलकत्ते की धुँधली गलियों में
उँगलियों में धुआँ और आँखों में सपना लिए
वो राजकमल चौधरी की नायिका
विलुप्त होने वाली थी

मेरी आत्मा भीग रही थी
उसके होठों पर जमी थी शराब।

३. दो हज़ार उन्नीस की आख़िरी शाम

कैथे की ठंडी हवा में
एक आवाज़ तैर रही थी
रागों की नदियाँ
लहरों की तरह उतर रहीं थीं

वे बोलते तो अटक जाते
पर रागों में कोई रायगानी न थी
तोम ताना, तोम ताना, दिर-दिर ताना रे…
साँसें जैसे सुरों की तान पर चलने लगीं
तोम-तान, तोम-ताना…
मानो समय थम गया
मानो कविता ने उस रात
आकाश से धरती तक बाँध दिया पुल
मानो उस रात
चौरंगी से ठाकुरबाड़ी की दूरी ख़त्म हो गई

दीवारों को पता था इतिहास रचा जा रहा
सितारों को भी पता था सितारा गा रहा

फिर एक रोज़
कैलेंडर ने पन्ना पलटा
और मौत ने चुपके से समेट लिया सब सुंदर

कैथे की वह कुर्सी अब भी ख़ाली है
उस रिक्तता में तुम्हारी आवाज़ गूँजती है
मानो कविता ने
वहीं
अपना
वास
कर
लिया।

४. कैथे के प्रेम में कुछ पंक्तियाँ

यहाँ आतीं हैं
साठ और सत्तर साल की जोड़ियाँ भी
जिनके सुख-दुख के तार जुड़े हैं
यहाँ की मेज़ों और कुर्सियों से

दशकों की दोस्तियाँ भी देखी हैं इधर
जो अब हँसते हैं तो आँसू भी निकल आते
रोते हैं तो हँसी भी फूट जाती

यहाँ आते हैं कुछ अकेले भी
तमाम अकेलापन लिए
जिनकी चुप्पी बोलती है
सब अनकहा

कभी-कभी खटराग के बाद भी
कदम इस ओर मुड़ जाते
जहाँ समझौते का दीपक
धीमे-धीमे जलता है

यहाँ हर दीवार ने
कितनी कहानियाँ सुनीं हैं
कितने वादे, कितने रोष
कितनी क्षमाएँ और कितनी पुकारें
ईश्वर ही जानता होगा

समय बीत जाता है
पर दीवारों के कानों में स्मृतियाँ
धड़कती रहतीं हैं।

५. कैथे की तस्वीर

यहाँ बिकते हैं
गिलास दर गिलास किस्से
किस्सों का नशा जो सहस्त्राब्दी के अंत में चढ़ा
अब भी तारी है

एक दफ़ा अवि और देवी पहुँचे थे
वही मेज़ था, वही कोना
जहाँ दीवारों को भी पता है
सब हँसना, सब रोना

अवि ने तस्वीर भेजी
और एक क्लिक में समा गए
हज़ारों-हज़ार किस्से
दुख के, सुख के

एक कथा
जानी-पहचानी सी
उतरती रही हृदय में
ठहर के-रुक के

किस्सों का नशा जो सहस्त्राब्दी के अंत में चढ़ा
अब भी तारी है।

६. कैथे की वही मेज़

वही बार, वही मेज़
आज भी वही दो ग्लास
एक भरा
दूसरा डूबा हुआ

उसकी जगह अब रिक्त है
हम उबर नहीं रहे
डूब रहे हर घूँट में

नशा
सीने को जलाता नहीं
शून्य को गहराता है

अब
हर घूँट खामोशी का स्वाद लाता है
कड़वा, कसैला और गहरा
मेरी नसों में शराब नहीं
तुम्हारी अनुपस्थिति बह रही है।


राजेश कमल हिंदी के चिरपरिचित कवि हैं।
यहाँ प्रकाशित कविताएँ हालिया कलकत्ता प्रवास के दौरान शहर के सबसे पुराने शराबघरों में से एक ‘कैथे बार’ के बारे में लिखी गईं हैं। हिंदी में इस तरह की कविताएँ कभी-कभी ही मिलती हैं।
राजेश कमल के इन्द्रधनुष पर पूर्व प्रकाशित कार्यों के लिए यहाँ देखें: जिंदगी बोतल में बंद हसीना है | झूठ का स्वर  इतना कर्णप्रिय होगा कभी सोचा न था

 

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