कविताएँ ::
रोमिशा
आदिम गीत
उसको देखते ही
मोरपंखी सी लौ
काँप उठी मन में
ठीक वैसे ही जैसे
हवा के छूते ही
काँपता है कोई पत्ता
और मेरी डबडबाई आँखें
उसके खुले ओंठो को चूमकर
गाने लगी एक गीत
जिसमें थे टोने-टोटके के बोल
और प्रार्थना की धुन
लेकिन उतना ही काँपता हुआ
उतना ही मद्धिम
जितनी गंगा की लहरें
चाँद की परछाई को
अपने आँचल पर
तैरता हुआ पाकर गाती है.
चन्द्रस्नान
उसने किया प्रेम और
रोज रात प्रेमी के नाम का
दिया जलाकर उतार ली नजर चाँद की
उसने प्रेम किया और
अपने होठों को बुदबुदाते हुए
लिखे कुछ अल्फाज दुआओं के
और आहिस्ता से हवा को
उसकी दिशा में फूँक दिया
प्रेम करते हुए
उसकी चंद पसंदीदा किताबें
इस तरह पढ़ीं
जैसे पढ़ता हो कोई धर्मग्रन्थ
कोहरे से ढके खिड़की के शीशे पर
उसका नाम लिखा और शर्मा गई
हर दिन की तल्खियों के खिलाफ
अपनी आँखों में उसकी तस्वीर उतारी
और चूमा ऐसे जैसे कुमुदिनी चूमती है चाँदनी
जैसे सूर्य की रश्मियों पर खोल देता है कमल अपनी पंखुरियाँ
उसे प्रेम करने के दौरान उसे भरा कविताओं में ऐसे
जैसे बादल भरता है पहाड़ को अपने अंक में
और इस तरह से धीरे धीरे वह डूबती गई प्रेम में
पार करने के लिए जीवन की नदी.
बीतते समय की कविता
आओ, जीवन के समुद्र से
स्वाद भर नमक चुराकर
अपने नमकीन होंठों से
तुम्हारे स्वादहीन जीवन को चूम लूँ मैं
आओ, पहाड़ होते जीवन पर
उगा लें हम कुछ मीठे सेब के वृक्ष
मृत्यु के आलिंगन से पूर्व
चख लें हम जीवन का अमृतफल
बीतते जा रहे समय में
सुनो मौन होती इच्छाओं की अनुगूँज
और गुनगुना लो उसे
उसके अनुरक्त नयनों को
ओढ़ा दो अपने चुंबन की चादर
बस एक बार समेट लो उसे सहेजते हुए स्वयं में
गहराती जाती श्याम शाम से पूर्व जीवन की टहनी पर
उग आने दो प्रेम के गुलमोहर
कि पता नहीं आगे कितना रंगहीन हो सफर
अभी सूर्य चमक रहा है
बुलबुल बैठी है डाल पर
वह गा सकती है अपने पसंद के गीत
पता नहीं फिर कब छीन ली जाए उसकी आवाज़
कि अभी सड़क पर चल रहे आदमी को पता है फ़र्क सुख-दुुख का
अभी भूले नहीं हैं वो अपना नाम पता
अभी उन्होंने नहीं सीखा है रौंदते हुए एक दूसरे को चलना
अभी बचे हैं उनके पास वह शब्दकोश जो समझ सके प्रेम की परिभाषा
अभी है जगह थोड़ी सी खाली मन में जहाँ जीवन की उमस और तपन में भी
खिल जाए सोने सा पीला अमलतास मिलने पर प्रेम का संदेश
अभी बाकी है स्मृति में हजार प्रेम कथाएँ
हजार अंधेरों के बाद
अभी भी फैल जाता है प्रकाश एक प्रेमी युगल को देखकर
इसलिए गहराते अंधेरे से पहले
आजाद है नदी की लहरें बहने को समुद्र की ओर
कौन जाने किस अंधेरे पल में बदलनी पड़े उसे दिशा
बना दिया जाए उसपर कोई बाँध
या अपने पानी को स्वयं पी बन जाए वो बंजर रेगिस्तान
फिर बालू की प्यास हम कभी न बुझा पाएँ शायद
और वहाँ इतनी नमक भी न मिले कि कर दी जा सके हत्या
इच्छा के नवजात शिशु की
कि सुना है आनेवाला समय खतरनाक है इतना
कि तोड़ी जाएँगी तमाम स्थापित विचारधाराएँ
खंडित की जाएँगी विचारकों की मूर्तियाँ
नए दौर में मंदिर-मस्जिद-गिरजा
सब पिपासु होंगे लाल खून के
और प्रेम ठंडा होकर सफेद पड़ जाएगा बेजान सा.
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रोमिशा सुपौल, बिहार से हैं. उनकी रचनाएँ हिंदी और मैथिली की बहुत सी पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं. मैथिली में ही उनकी एक कविताओं की किताब ‘फूजल आँखिक स्वप्न’ के नाम से प्रकाशित है. पर्यटन और पेंटिंग में गहरी रूचि रखनेवाली रोमिशा दिल्ली में रहती हैं. उनसे romisha094@gmail.com पर बात की जा सकती है.