कविताएँ ::
सत्यव्रत रजक

1. समकाल में दमच

मेरी इच्छा-सूची में कोई विज्ञापन नहीं है
किसी सनफ्लावर से छुई धूप
या लाल अमरूद की जड़ पानी में डूबती छाया नहीं है

रेलगाड़ी का धुआँ उक्ति है
किसी दुर्दिन से निकलने के लिए
बिल्ली की तरल आँख
बड़ी शांति से खाता है अभिनेता

आँसू-गैस शांतिपर्व पर सहभागिता से बाँटी जाती है
हम उस फूल से वाकिफ थे
जो हमारा तुम्हारा ‘मैं’ तोड़कर
पराग में महकता है

मैंने तोड़फोड़ के उपरांत
कुल उपेक्षित शांति
लज्जित क्रोध नहीं त्यागा

मुझे तुम्हारी गुलाबी नजर
मुझे तुम्हारी गला काटती सड़क
कुआँ पाटती आदत
गुलगुली होती ‘ही ही’ नहीं चाहिए

अब कि साँय बिना चमगादड़ की चर्रा जाती है
अब कि सुबह बिना कौआ की उतर आती है
जानवर और आदमी की संधि के लिए
जरूरी होने लगी है एक आदमी और एक आदमी की सहमति
अब कि जमीन पर कभी भी मौत आ सकती है बेपैर
हत्या की सारी सुविधाएँ सुरक्षा के विशेषण बन गईं

अब कि हो जाए अब से पार
हमें उसकी उंगली में गहराती स्याही पहचाननी होगी
उसकी काँख में सुस्ताता तिल ढूँढना ही होगा

एक बिल्ली को बचाने के लिए
खंडित उदास चेहरे की मोम पिघलानी होगी
नाखून पर गर्म भंगिमा हेतु
बचाकर रखना होगा साँपसीढ़ी का सौवाँ अंक।

2. पोस्ट आर्काइव

कीमतें जो व्यसन के भाव
तस्करों के बीच सुलभता से मिलीं,
जिन्हें बड़ी हथेली पर उंगलियों से मूँदकर रखना पड़ा
जब वे अचानक खुलक गईं
हाथ से तो कितना बेहयात मारा जाता
(बच गया)

कैसा होता कि मैं इसी उम्र के लिए एक अश्लील दोस्त खोजता
जैसे पूरब से लौटते चरवाहे मसखरे वाक्य खोज लाते थे अपने गाँव के लिए।
मैं ठीक ठाक आपातकालीन आया : कविता में आया।

मौसम और आसमान की खरोंची देह पर
मृत सूख चुकी गिलहरी के नाखून पर
तेल मलकर, मनुष्य बन जाऊँ! (ठीक है?)

चियारती बिल्ली, कूकते श्वान ;
उत्तर माँगती आत्मा को पूरी ताकत से चुप किया

कब स्ट्रीट छाया में छिप गया मैं
कब मैंने पाया कि गत साँस व्यर्थ गई
गत हृदयध्वनि स्तब्ध थी
गत पलक झपक गई और आँख दूर रही

इतने नजदीक से दुर्घटना छू गई
मैं संतरी रूमाल की तरह उड़ गया

नहीं, एक आभूषण की तरह
किसी जौहरी की ईंट पर नहीं बैठा
लेकिन ईंट पर बैठा हूँ जो जौहरी के लिए खोटी है
(सीमेंट की मदद से)

ध्यान मुद्रा में चाहा दो लोग कभी न लड़ें
लेकिन दो पड़ोसियों की लड़ाई में दो पड़ोसी और चाहे
बीमार हड्डियों से सुख
अभिवादन में ईश्वरीय दख़ल से दूरी चाही
दोस्त से गंभीर हो जाने की कामना

वे कि मुझे संकीर्ण की तरह देखना चाहते
वे कि चाहते हैं गरम दूध पीकर बुलक दूँ मैं
वे कि चाहते हैं ईश्वर में बना रहूँ मैं
अशक्ति में बाँधे रहूँ स्वतंत्रता

(एक हथियारबंद का पोट्रेट लटकाऊँ बल्ब के ऊपर
लंदन की घड़ी उतारूँ
स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी की मशाल में डालूँ
‘गाय का हिंदू घी’
उनकी उम्मीद थी जो अब इच्छा में बदल चुकी है! शायद अंतिम इच्छा में — असंभाव्य में…)

समझ पा रहा हूँ —
ईश्वर को मेमने की तरह
या मेमने को ईश्वर की तरह पीठ पर
मत कुदकने दो
( — जाने दो)
(— उंगलियाँ गिनो कि पाँच रहें)
हिंसक की वेषभूषा फूल की गंध देती है
इस तरह एक गुलाब का इत्र।

3. घास की धरती

धरती हत्याओं की घास पर जमी है
हत्यारों की लाठी की दिशा में ही घूमती है
जब घड़ीसाज की टिन ठंडी होती है
सारे टावरों से उतरकर कबूतर
कुँओं में रात बिताते हैं
तब हत्यारों की लाठी की दिशा में घूमती है ज़मीन
अपनी भूमिका तय करो तब ( अनागरिकता — या अकर्मण्यता की तरह )
आँख अवैतनिक है
टूटी हुई भौंह से गरम होते हैं आप! मूलतः?

4. वसंत में मरे लोग

दुनिया के अहातों में जब घुस रहा था
कोमल वसंत
लोग जब काम छोड़कर छुट्टियाँ चाह रहे थे
विभागालय फूलों से तुल रहा था

कोंपलें निकल रही थी फाड़ती वृक्ष
बच्चे सुबह के इंतजार में थोड़े जल्दी उठ गए थे
सब कुछ गुलाबी और रुँएदार सा स्वप्न देह पर झलक रहा था

अचानक
एक धमाके की आवाज आयी
बच्चों ने छतों से देखा धरती का उखड़ता मलवा
और सिर घुटनों में छुपाकर बैठ गए

लोगों ने दरवाजे खोले तो सामने थे मिसाइल केंद्र
बारूदों में भींगे सैनिक हताहत कुचल रहे थे दृश्य
तुम नहीं जानते थे क्यों हो रहा था?

ये दो शासकों का हठ था
दो शासकों की लड़ाई
कब देश की लड़ाई बन गई
तुम नहीं जानते थे

कब तुम मिसाइल की नोक पर थे
तुम नहीं जानते थे

तुम नागरिक थे
तुम वसंत जानते थे
तुम नहीं जानते थे दो शासकों की कानाफूसी
तुम दो आलू जानते थे
तुम दो आलुओं का पकना जानते थे।

5. खारिज उपसंहार

ये मेरे लोग हैं
जो अपनी मूठ में रेत और रागी साथ लेकर चलते हैं
उनकी ऐड़ियों में सारी उमर लोहे की नालें ठुकी रहीं
जबकि मरे तो नथुनों में कपास भर दिया गया (क्या यह उनकी इच्छा थी?)

मेरे लोग प्रधानमंत्री को याद नहीं करेंगे कराहते हुए
वे लोकदेवी को पुकारेंगे
लोकदेवियाँ या तो शाबर मंत्रों या फिर
चबूतरों में अधसमाई जमी होंगी
(बैलगाड़ी के उतरे पहिये पर
कुत्ते मूतकर चले जाते हैं – चुपचाप रहते हैं गाड़ी, बैल और गाड़ीवान)

प्रधानमंत्री है
जो किसी कीमती चट्टान से बना है
कोई मौसम उसपर सबूत नहीं छोड़ता
न कोई घाम उसे दरकाता है
उसकी शुद्ध मुँहफट तमीजें दम घोंटती बीमारी के मुँह
के सामने राष्ट्रवाद जैसी अफवाह
उसके रक्त के सुखन
बूचड़खाने पर झंडे के रंग की जंग
उसे कचनार के फूलों में उफनाए मकड़ियों के जाले
नहीं दिखते
वह गर्म आलुओं को फूँक-फूँककर खाता है
ठण्डी चाय को तीली से सुलगाता है
वह है तो प्रधानमंत्री
हमारे के बीच आते हुए
हमारे मैदे का फराखदिल आटा बन जाता है

अतः कोई नहीं है मेरे लोगों के लिए
सारी प्रतिज्ञाएँ-प्रेस कॉन्फ्रेन्सें अपने नेता की अमरता के लिए समुद्र मथने को चली जाएँगी
अतः कोई नहीं होगा मेरे लोगों के लिए

कोई नहीं होगा
जो नदी से उलीची मछलियों की टोकरी उठाएगा
नाव सिराएगा हौले वाक्य की तरह
कठफोड़वों के घोंसलों में भर जाएगा पानी
उरनैना नहीं होगा किसी युवती का नाम

अनचाही जगहों पर लोग
मृत्यु को अवश्या की तरह
छोड़ आएँगे वशहद भरे तिसहाल से निवृत्त हो-होकर
खुद के व्योम में तितर जाएँगे
गोया पारधी चुगने को चुनिंदा दाने डाल देते हैं
या मारने को अनाधिकृत नाट्यकामनाएँ

समुद्र मथकर अधिनायकों के वाक्य अपने-अपने हाथों में अमृत कलश लेकर लौट रहे हैं
हुकूमत करते हुए वे नहीं उकताएँगे
बस वे हुकूमत के नाम से छींक भरेंगे
एक साफ जगह वे छिड़क देंगे सारा जुकाम
कहेंगे ‘हह मौसम खराब है!’

सज़ायाफ़्तों से नुक्ते उठा-उठाकर
‘एस्टॉनामी डिपार्टमेंट’ खोल लेंगे अधिनायकों के रिटायर्ड वाक्य
(बोगेनवेलिया और यूकेलिप्टस के गुणधर्म पढ़ाएँगे;
सारे कर्ज़िया अपने तखल्लुस पोंछकर पढ़ने जाएँगे – ‘सुप्रभात’)

जिसके पास होगा मुद्राभंडार
वह बनेगा सबसे बड़ा प्रेरक वक्ता ऊँचा भाषाविद्
बीच-बीच में कह देगा एक ‘सहमत’ चुटकुला
बाद उंगलियाँ फेर-बदल कर लौट जाएगा ऐशगाह में
(“हमें अपना काम होशोहवास में करना चाहिए
लेना चाहिए धैर्य से काम
उम्मीद पर रहना चाहिए क़ायम
घुटनों के बल करना चाहिए व्यायाम”)

हमारे लोग घड़ा बनाएँगे कुफ्र से
वे बुतपरस्त हो बैठेंगे अपने मायनों में
जूतों से धूल निकालते हुए इहहाल पर रूमाल रगड़ेंगे
उनके बच्चे फूटे घड़ों को बजाएँगे
औरतें उनमें आग जलाकर तापेंगी

अधिनायकों के गुर्गों से कोई
हमारे लोगों के बीच आएगा मरीयल शफ़्फ़ाफ़ हालात देखकर हमारी पीठ मलेगा
जिसे कृतज्ञता का रिपोर्टर समझ बैठेंगे हममें से अधिकांश
या मर्मेड की आधुनिक अवतारी

या तो हमारे लोगों का चमड़ा ढोलकों पर मढ़ता रहेगा
उनसे अनगिनत ढोलकें बनाएँगी जा सकती हैं
या फिर सबसे सस्ते तेल में बदलते जाएँगे
जिसमें तले जा सकें सस्ते समोसे

हमारे लोग बहुत बुरी तरह से मारे जाएँगे
उमर के अंतिम दिनों ख़ुद के ही नख नोंचते
वे व्यर्थ के यूटोपिया में फँसकर मरेंगे
मछली की रीढ़ की तरह
वे किसी सतह को न चूम सके न कोई
स्पर्श से अलहदा हुए
इस तरह से जल जाएँगे और
अपनी स्तुतियों में वे ही नहीं होंगे साक्षी

अतः मेरे लोगों के लिए कोई नहीं होगा
तालाब के तारों पर बैठे फ़ाख़्तों के लिए
उछलती मछली की कोई भूख नहीं है
लेकिन इन बुतपरस्तों के लिए हर गिरती हुई पत्ती
पुरानी खोई कीमत है

मेरे लोग अपने गीतों में दोहराते रहेंगे मर्सिया
किंतु राजा की भौंह ज़रा भी नहीं कुम्हलाएगी
वह तब भी लुंगी में हठहठी चपाए बैठा रहेगा
अतः मेरे लोगों के लिए कोई नहीं होगा

ये मेरे लोग ईश्वर के आकार में सर झुकाते बिना नौहा या अवकाश उजड़ जाएँगे
अप्रासंगिक रहेंगे
जैसे पराजित राजा की शेरवानी
पुनश्च उनका कोई जनकवि उठेगा तो
दाद खुजाते बीमार पोते पर दूध मलेगा
इंसाफ के लिए अच्छी नींद और देसी नुस्खे लेने के बाद
सभी अपनी जाँघों पर दादें ढूँढने लगेंगे
वे अकाल-देस में चलती पछुआ हवा की तरह साँय-साँय की जवान देह में सो जाएँगे
मानो उनकी शुष्क छातियों पर कोई कीड़ा न बिलाता हो
जैसे चुपचाप वे धसक चुके गृहयुद्ध के बाद नींद ले रहे हों
उसी तरह झाड़ियों में उतरती संध्या में रुचि रखने के अधिकार से मर चुके हैं
चुपचाप वे फट चुकी पैंट में रोटियाँ लपेटकर रख देंगे ताकि उन्हें ठण्डा होने से बचाया जा सके

चुपचाप वे हँसियों से सब्जी काटते अंगूठा कतर लेंगे
चुपचाप वे दारू के बीमार हो उठेंगे
चुपचाप उन्हें अपनी वय याद आएगी और चुपचाप वे नवविवाहिताओं की ओर से मुँह घुमा लेंगे
चुपचाप वे अपनी बदबूदार काँखें और दाढ़ी खुजाते-खुजाते ईंट ढोएँगे
एड़ियों में सरसों का तेल मलते हुए मछली खाने की चाह जगेगी
सबसे बूढ़ा आदमी उठकर हाठ चल देगा
भुनी मछलियों की काली थैली और नौनिहालों को नारंगी जलेबियाँ लटकाए लौट आएगा
इस तरह ही पछुआ की हवा भी अ-झंकृत देहगंधों में सूख जाएगी

हमारे दूधिया सपने हलक का चाँद बन लटक गए
हमारा पुरजोर प्यार दादुरों का राष्ट्रगान
हमारी चादर पुरानी मैली चंद नकदी
यानी हमारी महत्वाकांक्षाएँ हमारे मर्सिए के बीच हमारी तंबाकू मल रहीं है
हमारी एकजुटता हमारे ही बीच से गुल हो गई स्ट्रीटलाइट
हमारी आखिरी उम्मीद दुर्वासा की लीद
हमारी गुलमोहरें हमारे ही सर पर थप्पड़
हमारी सारी आँखें राजा के कुल एक्वेरियम का नीलापन हैं

सुखों की चिडियाँ अपनी चोंच भरकर किस पहाड़
पर बीट करेंगी
कौन कीड़े उनमें थपकर सड़ जाएँगे
मेरे लोग किस भूकम्प के इंतजार में सारे घर उठा कहाँ ले जाएँगे
जो आज गिरे और टूट गए
उनकी बिल्लियों के मुँह चूहेदानी में फँसे मिलेंगे।

 


सत्यव्रत रजक ने हाल के दिनों में अपनी कविताओं से सबका ध्यान आकृष्ट किया है। कम उम्र में ही उनकी कविताओं में कविता और समाज के प्रति उत्साह राजनीतिक और वैचारिक साफ़गोई के साथ दिखाई देता है। इसलिए ये कविताएँ उम्मीद की कविताएँ तो हैं ही, उम्मीद जगाने वाली कविताएँ भी हैं। आगे कवि को यह देखना है कि हिंदी कविता के सूक्तिक़ालीन प्रलोभनों से वह खुद को कैसे बचाते हैं। इसी अंक में प्रकाशित “ख़ारिज उपसंहार” अपने समय को एक गहरी समझ और दृष्टि से देखती है। इंद्रधनुष पर उनके पूर्व-प्रकाशित काम के लिए देखें : भूख चुप रहने की क्रिया नहीं है

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