कविताएँ::
शिवा शशांक ओझा
1.साल के आखिरी दिनों में
साल ख़त्म होने को है
इस साल में, बहुत कुछ टूटा, बहुत कुछ संभला
बहुत कुछ बिखरा भी, पर इन सारे बहुत में तुम्हारा
बहुत कुछ उतना ही था जितना चौदहवीं की रात में चाँद।
मैंने देखा, तुम्हारे जाने के बाद,
पत्तियों से पूरी तरह शून्य वीरान सा पीपल,
कई रास्ते, रास्तों में कई चौराहे, और चौराहों में कई मोड़
और हर मोड़ पर मैं खड़ा था तुम्हें खोजता हुआ,
तुम्हारी याद के साथ।
मैंने देखी, एक सुंदर मनोरम दिखने वाली नदी,
नदी में जल प्लावन, और फ़िर नदी का विकराल रूप,
जिसमें वो बहाती जा रही थी, जलकुंभियाँ, नदी से लगे
पुराने जर्जर झोपड़े, और असीम संभावनाएँ,
शायद तुम्हारे लौट आने की।
मैंने देखा, तपती झुलसती गर्मी में,
नंगे पैर सड़क किनारे खड़े उस मानव को जो
शायद अवशेष बनने की ओर अग्रसर हो रहा था, फ़िर भी
उसकी आँखें कर रहीं थीं इंतज़ार कुछ
रोटियों या चंद रूपयों का,
वहीं इंतज़ार मैंने देखा है कई बार अपनी आँखों में
तुम्हारे लिए इस पूरे साल,
बिना किसी अवकाश के निरंतर, लगातार।
तुम्हारी याद पहले बनी झुलसाती हुई सूरज की रौशनी
फ़िर धीरे-धीरे सुकून भरी शाम।
और तुम्हारे आने की संभावनाएँ बनी रही,
कभी ख़त्म न होने वाली अमावस्या की स्याह रात।
एक समय ऐसा भी था जब मैं चाहता था तुम्हें भूलना,
और कर रहा था अथक प्रयास, पर हर बार तुम्हारी याद
लौट आती थी दुगनी आवेग के साथ जैसे लौट आती है
रबड़ की गेंद किसी दीवाल से टकराकर ,
मैं तुम्हें नहीं भूल पाया, ठीक वैसे ही जैसे नहीं भूल पाता
वो वीरान सा पीपल उसे छोड़ कर जा चुके, चिड़ियों के
झुंड को। और चुपचाप जड़वत करता है इंतज़ार उनके लौट
आने का अपनी भारी डाल के साथ।
मैंने देखा, सूरज की जलती हुई किरणों को
मद्धम होकर बादलों के पीछे जाते, शहर को
सफ़ेद चादर में छिपते, गिलहरियों को पेड़ों से
उतरकर खाने की तलाश करते। और इन सब के बीच
सोचता रहा कि क्या तुम नहीं लौट सकती?
जैसे लौट आई है सर्दी, लौट आईं हैं गिलहरियाँ,
पीपल के हरे पत्ते भी और लगभग सब जो
बिछड़ गए थे उन्हीं दिनों जब तुम गईं थी।
साल के इस आखिरी पड़ाव में,
मेरे लिए बहुत कुछ बदला है,
जैसे तुम्हारी यादों का गहरापन,
अब तुम्हारी याद उतना दर्द नहीं देती, हाँ कभी कभी
नहीं सो पाता पूरी रात, अक्सर उठ बैठता हूँ
आधी रात में सपने में तुमसे बिछड़कर। यह साल
ख़त्म होने को है, और नया साल दस्तक देने के लिए तैयार है
पर अभी भी मैं ठहरा हूँ, इस साल के उसी महीने में
जब तुमने कहा था,अब हमारी बात नहीं हो सकती।
मैं देख रहा हूं ख़ुद को बीतते साल में भी वैसे का वैसा,
अकेला, उसी मोड़ पर जहाँ हमारे रास्ते अलग हुए थे।
साल बीतता है, बीते नया साल आ रहा है आए,
मैं करता रहूँगा तुम्हारा इंतज़ार पहले की तरह
जब तक कर सकता हूँ याद, ख़ुद को
तुम्हारी आँखों के पास बने उस निशान को
और तुम्हारी बातों को, जिसमें मैं था, तुम थीं
और कोई नहीं, सिर्फ़ हम दोनों।
2. तुम लौटना
तुम लौटना,
प्रेम के लिए नहीं,
उन वादों के लिए,
जो तुमने किए थे उम्र के
सबसे कच्चे पड़ाव पर।
तुम लौटना,
प्रेम के लिए नहीं,
उस एहसास के लिए,
जो हम दोनों ने महसूस किया था,
एक साथ,पहली मुलाक़ात के बाद।
तुम लौटना,
प्रेम के लिए नहीं,
उस छूट चुकी दुनिया के लिए,
जिसमें अनायास खिल उठती थी मुस्कान
तुम्हारे चेहरे पर मेरा नाम सुनते ही।
तुम लौटना,
अबकी प्रेम के लिए नहीं,
एक जड़ हो चुके मनुष्य को,
अपने स्नेह से सींच कर उसे,
फ़िर से मनुष्य करने के लिए।
3. तुम जा चुकी हो
रात के तीन बजे अचानक टूटती है मेरी नींद
पाता हूँ ख़ुद को पसीने से सराबोर,
देखता हूँ पंखे की तरफ चौंक कर
मानो कुछ पूछना चाहता हूँ उस से
कुछ नहीं बहुत कुछ फ़िर लौटती है थोड़ी
चेतना और याद आता है यह महज़ एक सपना था
सपने में मैं चीख रहा था चिल्ला रहा था,
पास में बहुत भीड़ थी सभी एक ओर थे और मैं
अकेला ठीक वैसे ही जैसे होता है कोई नास्तिक
किसी धर्म स्थल पर। मैं लगातार आवाज़ देता रहा
मेरी गले की नशों का उभार सामान्य से बहुत ज़्यादा
हो चुका था पर तुमने नहीं सुना, और न पलटी।
जैसे नहीं सुनती जंगल में लगी आग मादा खरगोश की
डूबती हुई आवाज़। नहीं सुनता कोई कसाई कट रहे बकरे
या मुर्गी की छटपटाती आवाज़। नहीं सुनता माली
ताजा खिला हुआ फूल की आवाज़।
मैं सपने में छटपटा रहा था,
कोई तुम्हें मुझसे दूर कर रहा था और
तुम कसती जा रही थी मेरी हथेलियों को और मजबूती से
जैसे कसी जाती बोरवेल की चूड़ियां, मोटर साइकिल के ब्रेक
और कुकर की सीटी।
अब लौट आई थी मेरी पूरी चेतना, मैं मुस्कुरा रहा था
तुम कबका जा चुकी हो, पर आज भी मैं देखता हूँ वही
सपना। आज भी सपने में तुम्हें खोने से डरता हूँ,
आज भी छटपटाता हूँ, टूट जाती है मेरी नींद अचानक
कितनी ही बार। मैं बस बहला रहा हूँ ख़ुद को
घसीट रहा हूँ, जैसे कोई ग़रीब घसीटता है अपनी
पुरानी हो चुकी चप्पल और कुर्ते को।
4. तुम कभी लौटोगी शायद
तुम कभी लौटोगी शायद
पर तब तक मैं हो जाऊँगा
बंजर जैसे अक्सर हो जाते हैं
खेत अकाल के बाद।
तुम कभी लौटोगी शायद
तब तक मैं हो जाऊंगा
जर्द पीला ठीक उस मदार के पत्ते सा
जो टूट चुका हो अपनी शाख से।
तुम कभी वापसी का सोचोगी
और पाओगी मुझे अपने राह में
निर्मम उस पठार सा, जो कभी
हुआ करता था उन्नत पर्वत।
मुमकिन है कि कभी तुम वापिस आओ
और मुझे मेरी जगह नहीं पाओ ,
क्योंकि मैं हो जाऊंगा वो फल
जो समय के साथ ख़ुद मिल जातें है मिट्टी में।।
तुम आना मुझे एक हल्की झिड़क के
साथ आवाज देना, मैं भूल जाऊंगा अपना सारा
गुस्सा जो मैं समेट रहा हूँ तुम्हें याद करके
और कर देना मुझे फ़िर से
हरा भरा खेत, हरा पत्ता मदार का
वापिस बना देना मुझे छूकर पठार से
पर्वत, या उस फल का वृक्ष जो
फलते हैं हर मौसम में।।
5. तुम्हारी याद और बरसात
तुम्हारा साथ न होना,
मुझे बनाता है बंजर, कठोर
जो मैं नहीं हूँ, और न होना चाहता हूँ,
लेकिन तुम्हारा साथ बनाता था मुझे,
उस ताल वाले परती खेत की तरह,
जिसमें हर बार अगस्त के महीने में पानी
भर उसे कर जाता था, हरा और खुशहाल,
बना जाता था उसे एक दूब का मैदान।
मैदान जिसमें चरती हुई दिखती थीं,
कुछ गाय, भैंस, बकरियों का झुंड,
उस पानी में आती थी कुछ
बहती हुईं मछलियाँ, और
उनके पीछे कुछ लालची
बगुले, और कौवे जल में
बनता था बादलों का प्रतिबिंब
मानो आसमान उतर आया हो जमीन पे।
ये तुम नहीं जानती की कैसे,
तुम्हारा साथ मुझे बनाता था,
बंजर परती पड़े खेत से
हरा भरा मैदान ।
जो भरा होता था प्रकृति के
हरे रंग से, और सर्वहारा वर्ग के
लिए होता था हमेशा उपलब्ध
ठीक उस पानी और दूब से भरे खेत की तरह।
शिवा शशांक ओझा नवोदित हैं। उन्होंने अभी बस लिखना शुरू किया है और नए का खिच्चापन उनकी कविताओं में खूब झलकता है। साथ ही, अपने समय और समाज के प्रति एक गहन दृष्टि रखते हैं और वह बेचैनी महसूस करते हैं जो किसी को कवि बनाती है। इन कविताओं में कुछ बिल्कुल अलग और मोहक बिंब हैं जो अपनी ताजगी से ध्यान खींचते हैं। यह उनकी कविताओं के प्रकाशन का प्रथम अवसर है। वे आगे और सुंदर कविताएँ लिखेंगे, इंद्रधनुष इसके लिए उन्हें शुभकामनाएँ देता है। उनसे ojhashiva05@gmail.com पर बात हो सकती है।