कविताएँ ::
शुभम नेगी
मैं गिरा हूँ माँ की कोख से
ठीक-ठीक कहाँ कहा जा सकता है
कि गिरता हुआ आदमी
टकरा ही जाएगा फ़र्श से कभी
हो सकता है
गिरना एक सतत प्रक्रिया हो!
सब जन्मते हैं
मैं गिरा हूँ माँ की कोख से
नहीं मिली किसी गोद की नागरिकता
गिरता रहा शरणार्थी बन
इस गोद से उस गोद
कोख से गिरा
पंचायत की सभाओं में अटका
रस्साकशी है
मेरे शिशु शरीर की पहली स्मृति
इंसान से पहले बनाया गया मुझे
रस्साकशी के बीच की गाँठ
दो गुट खींचते रहे अपनी-अपनी सीमाओं तक
फिसल जाते हैं जैसे
फिसलते आदमी को बचाते लोग
मेरे होने भर ने धकेला है
अम्मा-दादा, बुआ और उनके परिवार को
गमगीन गहराइयों में
भाई और मेरा साथ
गिरती दो जानों का पकड़ा हाथ है
इतना गिरा हूँ
इतना गिर रहा हूँ
इतना गिरना है अभी और कि सोचता हूँ
क्यों नहीं गिरा दिया गया मुझे
गर्भ में ही!
टिंडर
चेहरों की कतार में राह ढूँढती
उँगलियाँ निढाल हो चली हैं
स्क्रीन के उधर भी कार्यरत कोई उँगली
कब आकर प्रवेश लेगी
इनके मध्य की रिक्तता में?
एक के बाद एक
मैं पछाड़ रहा हूँ चेहरों को बाएँ
या दाएँ धकेल रहा हूँ
ऊपरी तल पर स्वप्न-सीढ़ियों से
क्लब की रंगीन रोशनी से ढककर अपना अवसाद
नदी के बैकग्राउंड में सुखाकर व्याकुल डबडबाहट
जबरन ठूँसकर थोड़ी कलात्मकता, थोड़ी वाकपटुता
(और कुछ ‘थर्स्ट ट्रैप’)
बीस-बाईस किलोमीटर के दायरे में
हताश हाथों से बाँटता फिरता हूँ
अपना आवेदन-पत्र
कितने स्वाइप पहले डूबा था सूरज
कितने स्वाइप पहले ढुलक गयी थीं आँखें देह से
कितने स्वाइप से है गले में उफनती उदासी
कितने स्वाइप हुए आलिंगन की अर्जी लिखे
सेकंड ही थे समय की इकाई
कितने स्वाइप पहले
मैच-सूची में पड़े
एक सौ तेईस नामों की भीड़ का
क्यों नहीं समझ पाया मैं व्याकरण?
या क्या रखते हैं सभी प्रेमी
दूसरे की भाषा का शब्दकोश?
मेरी तर्जनी और मध्यमा के मध्य
आकर इस कलम के साथ
कब घुलेगा कोई हाथ
जिसकी लिखावट यही हो
कहाँ लिखा है भला
कि सब अभागों को
मिल ही जाएगा अंत में प्रेम?
आग/पानी
हमारे घर जल रहे थे
बांध टूटते थे, आग बहती थी
निर्दोष लोरियों ने
लहरों के थपेड़ों के आगे
डाल दिये थे हथियार
लपटों के ज्वार-भाटे
हमारे कुस्वपन थे
तो, हम वोटिंग बूथ पर पहुंचे
बाल्टी-बाल्टी पानी लेकर
मतगणना में
वोटिंग मशीनों से बहा पानी
जलते घरों को बुझाता
आग बुझती गयी
पानी बहता गया
पानी बहा
इतना बहा
कि स्खलन हुआ, नदियां बनीं
नदियों में बाढ़ आई
हमारी स्मृतियों ने सुलगाया
पानी की चिंगारियों को
धड़धड़ाती हुईं हर दरवाजा
गुज़रीं पानी की लपटें
तब हमारे घर जल रहे थे
अब, बह रहे हैं
मेरे दुःख
बरसों पहले
उन्हें गाड़ने की कोशिश की गयी
तह-दर-तह उधेड़ कर पृथ्वी की
भीतर पटक दिया गया उन्हें
परंतु दुःख गैर-अपघटनशील हैं
वह ज़मीन के नीचे रेंगते
ज़हरीली बेलों में जन्मे
जिन्होंने बरसों बाद
हमारे गलों पर शिकंजा कसा
सालों पहले निकली किसी की चीखें
उतर आयी हैं
मेरी बाजुओं पर नाखूनों के निशान बनकर
मेरा हाथ उठकर जड़ता है
मेरे गालों पर लगातार तमांचे
जिनके कारण
अतीत के गड्ढे से तरोताज़ा निकले हैं
मेरे दुःख –
उन्हें गढ़ा गया, रचा गया
पकाया गया, परोसा गया
और सहेजकर दफ़ना दिया गया जूठन को
मेरे हिस्से में आ जाने के लिए
मेरे दुःख
मेरे न होकर
मेरे नाम पुरखों की वसीयत हैं
अम्मा का स्पर्श
अम्मा का स्पर्श पाते ही पृथ्वी
बन जाती है एक विशालकाय गुल्लक
करेले की धराशायी बेल को
बाँस की टेक लगाती है अम्मा
लकड़ी के बल सीधी करता है
करेला कमर को अपनी
उसके पोरों से रिसती कड़वाहट पर
मरहम है अम्मा का सहलाता स्पर्श
बुहारकर कच्चा फ़र्श
गोबर से लीपती है अम्मा
उनकी छुअन से उतरता है पारा
कथन से चलती हैं हवाएँ
नृत्य-मुद्राओं में ढलते उनके हाथ
बनाते हैं तरह-तरह के शीत डिज़ाइन
जिन पर सूरज नहीं कड़कता
मंदिर में पसरे
धूप के धुएँ को धुनकर बने हैं
अम्मा के कपड़ों के सुरभित रेशे
आँगन में उगी तुलसी
उनकी छुअन से बनी है दिव्यात्मा
अंजुरी में भरकर ओस नित सुबह
पृथ्वी देती है उनके चरणों में अर्घ्य
उनकी गोद की ओट में छुपी बैठी हैं
मुझे थामती थपकियाँ
मेरी पलकों को मूँदते खुरदुरे हाथ
भुला देते हैं मुझे इंसान होना
मैं बन जाता हूँ फूल
सोता हूँ पंखुड़ियाँ समेट
मुझे तितलियों के स्वप्न आते हैं।
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शुभम नेगी हिन्दी की नई पीढ़ी से सम्बद्ध प्रतिभाशाली कवि हैं। उनकी कविताएँ प्रमुख पटलों पर प्रकाशित हैं। उनसे shubhu.negi30@gmail.com पर बात हो सकती है।