कविताएँ ::
विजय बागची

सूखे फूल

जो पुष्प अपनी डाली पर ही सूखते हैं,
वो सिर्फ एक जीवन नहीं जीते,
वो जीते हैं कई जीवन एक साथ,
और उनसे अनुबद्ध होती हैं,
स्मृतियाँ कई पुष्पों की,
जो रहीं अपूर्ण, असंतृप्त;

हो सके तो तोड़ना तुम,
एक वही पुष्प,
और सहेजना उसे;

तुम्हें आएगा,
एक साथ कई प्रेम सहेजना.

तुम्हारा दुःख

जो मेरे हिस्से का नहीं था,
एक मात्र वही था,
सुख का कारण;

हिस्से में आयी हुई चीज में,
दुःख, सदैव छिपा रहता है,

दुःख छिपे रहने की चीज है,
यह जितना छिपा रहता है,
उतना ही रहस्यमयी होता है,
सुख की प्रतिदीप्ति भी
उतनी ही होती है;

पुष्प की सुंदरता के पीछे,
कोई बड़ा दुःख अवश्य छिपा होगा,
छिपा होगा अवश्य ही,
सागर के गर्भ में,
कोई विपुल विषाद;

मैं तुम्हारी मुस्कान के पीछे का,
एक वही रहस्य ढूँढता हूँ,
मैं ढूँढता हूँ, तुम्हारा दुःख,

मुझसे पूछा नहीं जाता.

तुम्हें ज्ञात है

तुम्हारी सुगंधि इतनी रमणीय है कि,
कोई भी पुष्प,
तुम्हारे सम्मुख आने से कतराता है;

तुम्हारा सौंदर्य इतना चित्ताकर्षक है,
कि देवबालाएँ भी नित्य झेंप खाती हैं;
तुम्हारे स्पर्श से कोपलें फूटती हैं,
पल्लवन प्रारम्भ होता है;

तुम्हारे वाचन की माधुर्यता में हो विलीन,
लहरें सम्मार्गी हो जाती हैं,
व्योम मोहक वृष्टियाँ प्रेषित करता है,
और थिरक उठती हैं पत्तियाँ;

मैं जानता हूँ,
तुम्हें भी ये सब ज्ञात है,
फिर भी जब कभी तुम यह पूछती हो,
क्यों है तुम्हें.. इतना स्नेह मुझसे?
तो मैं बिना कुछ कहे,
अपलक, तुम्हें देखते रह जाता हूँ,
और तुम्हारा हृदय
आत्मविभोर
हो उठता है.

तुम्हारी स्मृतियाँ

तुम्हारे संदेश चिट्ठियों की तरह लुप्त हो रहे हैं,
परन्तु तुम्हारी स्मृतियाँ दूर्वा हो उठी हैं,
जिनके लिए बीजारोपण आवश्यक नहीं,
वो स्वतः उग आती हैं;
स्वतः होना ही नेह का संतत्व है;

तुम्हारे जाने के बाद मुझे ऐसा कभी न लगा,
कि तुम मुझे खाली कर गई या मैं खाली हो जाऊँगा,
तुमने जाकर भी सम्पूर्णता की सिद्धि दी,
स्मृतियों का ऐसा संग्रह दिया,
जिनसे सदैव अनंत का बोध हो,
फिर अनंत!
अथवा अनंत होने की संभावना,
नेह का एक अंश ही तो है;

तुम्हारी अनुपस्थिति में, उपस्थिति का दायित्व
ये चक्षुपटल उठाते हैं,
मैं जब भी आँखें बंद करता हूँ,
तुम्हारी छवि पलकों पर और
तुम्हारी स्मृतियाँ हृदय के आसन्न होती हैं,
और आसन्नता तो नेह की प्रथम कोटि है;

तुम्हारे न होने की कल्पनाएँ,
मात्र कल्पनाएँ हैं,
तुम्हारी वास्तविकता स्मृतियों से है,
जो मुझे कभी अकेला नहीं छोड़तीं,
अनन्य सुभीता व स्थिरता बनी रहती है,
जोकि नेह का एक उत्कृष्ट द्योतक है;

आसन्नता, संतत्वता, सम्पूर्णता, सुभीता व स्थिरता,
यदि नेह को निदेशित व प्रतिफलित करती हैं,
तो इस नेह का उद्गम हो तुम और तुम्हारी स्मृतियाँ.

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विजय बागची हिंदी कविता की सबसे नयी पीढ़ी से आने वाले कवि हैं. कई प्रमुख पत्रिकाओं में इनकी कविताएँ प्रकाशित हैं. विजय से imsadhak.in@gmail.com पर बात हो सकती है.

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