कविताएँ ::
विजय राही

विजय राही

उदासी

फूलों के खिलने का एक मौसम होता है
और मुरझाने का भी

लेकिन कुछ फूल ऐसे होते हैं—
जिनके खिलने का कोई मौसम नही होता
जिनके मुरझाने का कोई सबब नही होता
वे अनायास मुरझा जाते हैं,
जबकि बागों में बहार आई हुई होती है

मेरी हालत भी कुछ ऐसी ही हो गई है
मैं एक बेसबब मुरझाया फूल हूँ!
किसने मुझे असमय मार दिया है?

सुख-दु:ख

एक घण्टे में लहसुन छीलती है
फिर भी छिलके रह जाते हैं

दो घण्टे में बर्तन माँजती है
फिर भी गंदगी छोड़ देती है

तीन घण्टे में रोटी बनाती है
फिर भी जली, कच्ची-पक्की

कुएँ से पानी लाती है
मटकी फोड़ आती है
जब भी ससुराल आती है
हर बार दूसरी ढाणी का
रास्ता पकड़ लेती है

औरतें छेड़ती हैं तो चुप हो जाती है
ठसक से नहीं रहती,
बेमतलब हँसने लगती है

खाने-पीने की कोई कमी नहीं है
फिर भी रोती रहती है
“कांई लखण कोनी थारी बहण में!”

यह सब
बहिन की सास ने कहा मुझसे
चाँदी के कडूल्यों पर हाथ फेरते हुए
जब पिछली बार बहन से मिलने गया

मैंने घर आकर माँ से कहा
कि छुटकी पागल हो गई है
सास ने उसको ज़िंदा ही मार दिया
कुएँ में पटक दिया तुमने उसे!

माँ ने कहा
लूगड़ी के पल्ले से आँख पोंछते हुए—
“तू या बात कोई और सू मत कह दीज्यो
म्हारी बेटी खूब मौज में है!”

देवरानी-जेठानी

बेजा लड़ती थी
आपस में काट-कड़ाकड़
जब नयी-नयी आई थी
दोनों देवरानी-जेठानी

नंगई पर उतर जाती
बाप-दादा तक को बखेल देती
जब लड़ धापती
पतियों के सामने दहाड़ मारकर रोती

कभी-कभी भाई भी खमखमा जाते
तलवारें खिंच जाती
बीच-बचाव करना मुश्किल हो जाता

कई दिनों तक मुँह मरोड़ती
टेसरे करती आपस में
भाई भी कई दिनों तक नही करते
एक-दूसरे से राम-राम

फिर बाल-बच्चे हुए तो कटुता घटी
सात घड़ी बच्चों के संग से थोड़ा हेत बढ़ा

जैसे-जैसे उम्र पकी,
गोड़े टूट गए, हाथ छूट गए
एकदम से दोनों बुढ़िया
एक-दूसरे की लाठी बन गई

अब दोनों बुढ़िया एक दूसरे को
नहलाती, चोटी गूँथती,
साथ-साथ मंदिर जाती,
दीप जलाती, गीत गाती

जो भी होता, बाँटकर खाती,
एक बीमार हो जाये तो
दूसरी की नींद उड़ जाती

उनका प्रेम देखकर
दोनों बूढ़े भी खखार थूककर
कउ पर बैठने लगे हैं
साथ हुक्का भरते हैं
ठहाका लगाते हैं कोई पुरानी बात याद कर

अन्दर चूल्हे पर बैठी
दोनों बुढ़िया भी सुल्फी धरती हुई
एक-दूसरे के कान में कुछ कहती हैं
और हँसती है हरहरार.

आश्चर्य भरी बात

प्याज बेचने आये थे बाप-बेटे जुगाड़ लेकर

गली के मोड़ पर शीशम के नीचे
खड़ा करके जुगाड़ हाँक लगाई बाप ने—
“प्याज ले लो प्याज, मोरेल का देशी प्याज
गेहूँ का बराबर और बाजरे का आधा-आध”

कामकाज निपटाकर घरों का
सुस्ताई पड़ी औरतों ने ली अँगड़ाई
बच्चों ने मारी किलकारी
बूढ़ों ने हिदायत दी दूर से—
“नीका लीज्यो, चोखा लीज्यो”

काकी ने कलेवा के लिए पूछा
भाभी दो रोटी, साग ले आई
जुगाड़ में ही बैठ खाने लगे
दोनों बाप-बेटे एक-एक रोटी

मैंने देखा रोटी खाते दोनों को
पानी ले आया रामझारे में
चुड़ू से पानी पीकर बणजारे का चेहरा
भरी दुपहर के सूरज-सा चमका
मुँह से फूट पड़े दो बोल—

“पाँच साल हो गये मुझे प्याज बेचते
दुनियाभर में घर-घर डोलते
थारो जस्यो धरमी आदमी कोनी देख्यो
घणो भलो होज्यो थारो भाई !”

मैं अचंभित था कि—
मैंने ऐसा क्या कर दिया
दो घूँट पानी ही तो पिलाया है!

लेकिन मैंने जवाब पाया
बंजारे की आँखों में देखते हुए कि
इन पाँच सालों में
कितना मर गया है हमारी आँख का पानी
कितनी बंजर हो गयी है हमारे भीतर की नदी

•••

विजय राही हिंदी कविता की नई पीढ़ी से सम्बद्ध कवि हैं। उनकी कविताएँ हंस, मधुमती, समकालीन जनमत,दैनिक भास्कर, राजस्थान पत्रिका, डेली न्यूज, राष्ट्रदूत में प्रकाशित हैं। बिलकुल अलग तरह के विषयों पर लिखी गयीं उनकी ये कविताएँ, हिंदी कविता को एक कदम आगे ले जाती हैं। उनसे vjbilona532@gmail.com पर बात हो सकती है।

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