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नया शहर, भाषा, भोजन और इंदिरा ग़ाँधी

डायरी :: तोषी पांडेय मुझे इस नए शहर में आये दो महीने हो चुके हैं और हमारी समूची जेनेरेशन- जिसे न करियर में कुछ समझ आ रहा है और न ही प्रेम में वाले बोझ को लिए हज़ारों बोझिल चहेरे शाम को राइट और लेफ्ट स्वाइप करते मिल जाते हैं। कुछ इन छोटे छोटे एस्कपों से थक गये हैं और कुछ अभी उसको ही जीवन मान चुके हैं। *** मुझे कई बार इनके बीच में मिसफिट महसूस होता है, कुछ ने सलाह दी है शहर एक्सप्लोर करो, एक जगह से...

जाग जाता हूँ कि स्वप्न विशिष्ट है

नोट्स : अज्ञेय स्वप्न : नदी में नाव में चला जा रहा हूँ. और भी यात्री हैं, एक स्त्री है, एक लड़की है, दो एक और हैं, नाविक है. नदी से हमलोग एक तीर्थ की ओर जा रहे हैं. उसका पक्का घाट दिख रहा है. एकाएक पाता हूँ कि मैं एक बालक को गोद में उठाए हुए हूँ. नाव घाट के किनारे आती है तो मंदिर दिखने लगता है. बालक उसकी ओर ऊँगली उठाता है. मैं देखता हूँ, पर वह मंदिर नहीं दिखा रहा है, कुछ विशिष्ट संकेत कर रहा है...

हर दिन आसमान को आशा भरी निगाह से निहारता हूँ

डायरी : गिरीन्द्रनाथ झा न बरखा, न खेती, बिन पानी सब सून खेत उजड़ता दिख रहा है. बारिश इस बार धरती की प्यास नहीं बुझा रही है. डीजल फूँक कर जो धनरोपनी कर रहे हैं और जो खेत को परती छोड़कर बैठे हैं,  दोनों ही निराश हैं- हर दिन आसमान को आशा भरी निगाह से निहारता हूँ लेकिन…किसानी कर रहे हमलोग परेशान हैं. फ़सल की आस जब नहीं दिख रही है, तब ऋण का बोझ हमें परेशान कर देता है. नींद ग़ायब हो जाती है. खेती नहीं...