डायरी ::
तोषी पांडेय

मुझे इस नए शहर में आये दो महीने हो चुके हैं और हमारी समूची जेनेरेशन- जिसे न करियर में कुछ समझ आ रहा है और न ही प्रेम में वाले बोझ को लिए हज़ारों बोझिल चहेरे शाम को राइट और लेफ्ट स्वाइप करते मिल जाते हैं।
कुछ इन छोटे छोटे एस्कपों से थक गये हैं और कुछ अभी उसको ही जीवन मान चुके हैं।

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मुझे कई बार इनके बीच में मिसफिट महसूस होता है, कुछ ने सलाह दी है शहर एक्सप्लोर करो, एक जगह से दूसरी जगह जाने का खर्चा भीतर के वांडरलस्ट को मार देता है, कई बार लगता है इतने रुपए में इलाहाबाद से दिल्ली घूम आते। बात करने के लिए इनके पास सिर्फ दो चार बातें हैं और अंग्रेजी में बहुत गहरी बात मैं पढ़ सकती हूँ, लिख भी सकती हूँ पर समझा नहीं सकती, उत्साह या शोक दोनों नहीं बता सकती। अब लगने लगा है कि हाथ पकड़ने से अधिक भाषा पकड़ने वाला कोई होना बेहद ज़रूरी है।

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यहाँ की मूल भाषा कन्नड़ है। कन्नड़ भाषा की वर्णमाला और हिंदी की वर्णमाला एकदम एक ही जैसी है, भाषा कैसे इतनी अलग हो गयी, नहीं पता।  सोचती हूँ इसपर शोध किया जा सकता है। जैसे मैंने दो ही शब्द सीखे हैं: बन्नी उटके मतलब खाना खाने चलो और गोतिल्ला- मतलब मुझे नहीं पता। कन्नड़ वर्णमाला किसी फूल के जैसी दिखती है, आप इस बात की शिकायत कर ही नहीं सकते कि आपकी हैंड राइटिंग गंदी है। न जाने टीचर कैसे इस दुविधा में बच्चों को टॉर्चर करते होंगे?

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डेट पर जाना एक भयावह ख़्याल लगने लगा है, क्योंकि लोगों की इच्छा और आपकी व्यक्तिगत इच्छा मेल नहीं खा रही होती है और, अपने इतने समय के तजुर्बे में मैंने सीखा है कि हमें संभावनाओं से प्रेम नहीं करना चाहिये, क्योंकि यह एक साइकिल होता है, बेस्किली एक अब्युसिव साइकिल : जहाँ आप सोचते हैं कि आप एडजस्ट कर लेंगे, पर वह बस संभावना ही होती है, जहाँ आपको लगता है कि आप किसी को हील कर देंगे और वह आपके साथ होगा, पर अंत में ये सब मायने नहीं रखता कि आपने कैसा किसी को महसूस कराया। वो आपके ऊपर किसी और को चुन लेते हैं। और अब आप अपनी ही दुनिया में खुद को हील करने के लिए इधर उधर भाग रहे होते हैं। कई रातों में सांस भी नहीं आती और प्रेम का आपके भीतर होना एक श्राप सा लगता है। यहाँ आकर मुझे यह भी लगने लगा है कि या तो मैं मुर्ख हूँ जिसके पास बात करने के लिए कुछ असल मुद्दे नहीं हैं, या जो मुझे असल मुद्दे लगते हैं वो दुनिया के लिए कभी मुद्दे थे ही नहीं। इसलिए अगले दिन उस व्यक्ति को मैसेज करने का ख़याल भी नहीं आता जिससे एक दिन पहले मिले थे। बातें हेलो और वास्सप पर खत्म हो जा रही हैं।

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बहुत लम्बे समय से कुछ भी महसूस करने में असमर्थ हूँ।  मैंने अपनी थेरपिस्ट से बात की। वह कहती हैं कि जब हमारे एब्यूज का साइकिल ब्रेक होता है, तब भी ऐसा होता है क्योंकि हमने अपने दिमाग को यह समझया होता है कि अगर दर्द नहीं है तो हम कुछ कर ही नहीं रहे हैं।  कई बार कुछ न महसूस करना इस बात की भी निशानी है कि जो मुद्दे आपको और आपके दिमाग को हमेशा फाइट और फ्लाइट मोड में रखा करते थे, वो अब वहाँ हैं ही नहीं; मैंने कहा कि मैं सबसे करीबी लोगों के लिए भी कुछ नहीं महसूस कर पा रही हूँ, तब उसने बोला कि कई बार हम ट्रामा बॉन्डिंग करते हैं और जब वो चीज़ वहाँ नहीं होती है तो यह बिलकुल ऐसी फीलिंग है जहाँ आपके बनाये मंदिर में अब भगवान नहीं हैं, क्योंकि उसका काम पूरा हो गया है और अब आपको किसी और सफ़र पर जाना है।

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सामने के किनारे के बाल सफ़ेद हो गये हैं।  एक कलीग ने बोला कि इट लुक्स लाइक इंदिरा गाँधी। मैंने मजाक में बोला कि हाँ, बड़े होकर देश में इमरजेंसी लगा दूंगी; उसका चेहरा सफ़ेद हो गया, उसके दादा जी को सिख दंगो के दौर में जला कर मार दिया गया था और दूकान भी जला दी गई थी।  मुझे लगा कि कितना त्रासद जीवन रहा इंदिरा का और कितनी ही त्रासद मृत्यु। ईश्वर की हिसाब-किताब की डायरी में उनका हिसाब कैसे हुआ होगा? मैं विश्वास करती हूँ जन्म और पुनर्जन्म में पर जब आपको याद ही नहीं कि आपने क्या किया था, आप उसे इस जीवन में कैसे सुधार सकते हैं? पर एक जापानी मिथ के अनुसार आप इसलिए कुछ नहीं याद रखते ताकि आप इस जीवन में उस चक्र से मुक्त हो जाएँ। अतः रोज़ यह कहकर सोएँ कि मैंने खुद और सबको माफ़ कर दिया है; ऐसे मिथ बनाने वालों से ये क्यों नहीं पूछा जाता कि माफ़ी उनको कैसे दी जाये जिनके गुनाह कुछ नहीं पर आपकी आत्मा पर गहरे निशान छोड़ गये हैं। वो लड़की जिसने इंदिरा गाँधी को देखा नहीं, अपने दादा को भी नहीं देखा, वह उस इतिहास को कैसे माफ़ कर सकती है?
इस दुःख की माफ़ी लेने आएगा भी कौन?

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मैंने कभी इतना नहीं सोचा था कि खाना मेरे लिए ज्यादा इंटिमेट चीज बन जायेगा क्योंकि खाने के टेबल पर अब मुझे ज्यादा अकेलापन महसूस होता है।  सुट्टा ब्रेक और यहाँ की चाय के ब्रेक से बेहतर है कि मैं वहाँ न ही जाऊँ। दरअसल यदि हम गौर से मानव का इतिहास देखें तो भोजन से अधिक इंटिमेट चीज कुछ रही नहीं है; आप अपना टिफिन अपने शरीर को बाँटने से पहले सीख लेते हैं; भिन्न भिन्न प्रकार के चावल हमें उत्तर से दक्षिण तक बाँध के रखते है और केवल करी बदलती जाती है, बिलकुल डायलेक्ट की तरह। यदि कोई आपके लिए खाना बनाता है और वह चाहता है कि आप सही समय पर खाना खाएं तो वह ज्यादा करीब है, जठराग्नि के आगे सभी दावानल छोटे हैं और उसे कोई प्रेम से सींच दे तो आप बेहतर हो जाते हैं।

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ऐसा नहीं है कि यहाँ हिंदी भाषी लोग नहीं हैं। बहुत हैं, बल्कि एक भीड़ है, पर उनकी हिंदी से तौबा है हमारा। कुछ देर के लिए आप बात कर सकते हैं पर अधिक समय के लिए तू-तड़ाक वाली भाषा दमघोटू है। इससे बेहतर है कड़ कड़ कर रही मलयालम और कन्नड़ सुन लेना, जब शब्द अर्थविहीन होते है तो वे बुरे और अच्छे कुछ नहीं लगते, वे बस स्वर हैं। एक दो दोस्त बन गये हैं। उनको एक दिन प्रेम में एक हिंदी का नोट लिख कर दिया और उनकी आँखों में एक अजीब सी अचकचाहट से मुझे समझ आया कि उसे हिंदी पढ़ना नहीं आता है। एक दिन एक बुक स्टोर में घूमते हुए अरेबा परेबा कि एक कॉपी दिख गयी। उस दिन किसी किताब को लेते हुए पहली बार मेरे आँखों में आँसू आ गये और उदय प्रकाश उस दिन मुझे देवता नज़र आये पर आप हर देवता को घर नहीं ला सकते हैं। मेरे अकेले कमरे में आजकल सिर्फ मुराकामी के लिए जगह है पर मुराकामी मुझे ख़ास पसंद नहीं थे एक वक्त तक। अब मुझे उनकी बनाई दुनिया पसंद आने लगी है।

अंत में हम दुःख और उन्माद के बीच की पीढ़ी हैं, हमारी नियति शांति ही होनी चाहिये।

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तोषी जिन शब्दों से आयडेंटिफ़ाई करती हैं, वे शब्द हैं- क्वीयर, हीलर, शोधार्थी और अतरंगी. वे एनिमे देखती हैं और वो सारे काम करती हैं जिनसे किसी का कोई लेना देना नहीं होता. उन्हें पढ़ना और शाहरुख़ के सपने देखना पसंद है. उनसे toshi.pandey01@gmail.com पर बात हो सकती है.

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