आलेख ::
अंचित

एक कवि, एक इंजिनियरिंग संस्थान में क्या करेगा? यह एक प्रश्न कई प्रश्नों की पीठ पर खड़ा है जिनको आगे खुलना है। क़िस्सा वहाँ शुरू होता है कि आईआईटी गुवाहाटी की साहित्यिक संस्था के निमंत्रण पर मैं यह तय करता हूँ कि मुझे कविता की कार्यशाला के लिए जाना चाहिए। नए का रोमांच हमेशा आकर्षक होता है। फिर हिंदी समाज की झालमुड़ी संस्कृति से समय-समय पर उदासीनता होना स्वाभाविक है। ऐसे में एक ख़ालीपन तो बनता है जो यात्राओं का महत्व बढ़ा देता है और अपने देखने को थोड़ा और खोलता है। एक कवि के लिए यह आवश्यक है।
कविता पाठ से ऊबा हुआ, साहित्यिक संघों के जन्मदिन-पुण्यतिथि मार्का आयोजनों से खिन्न और रोज़गार का बोझ रोज़ अपनी रीढ़ पर झेलता कवि, कविता कार्यशाला को कैसे देखे? क्या कविता सिखायी जा सकती है? क्या ठोकपीट कर कवि बनाया जा सकता है? या कविता सिखायी नहीं जा सकती और अगर नहीं सिखायी जा सकती तो फिर कविता की किसी कार्यशाला का क्या काम? सुख था कि इस कार्यक्रम का कोई भी पोस्टर दुकान सरीखा – कोचिंग संस्थानों की तरह पक्का रिज़ल्ट देने के वादे से पटा हुआ नहीं बल्कि सम्भावनाओं की आदर्श दुनिया का दरवाज़ा खोलता प्रतीत होता था। पर हम इधर बात करें उसके पहले यह कि कवि होना ही क्यों है?

कवि कहलाने की उत्कट इच्छा
ज़ाहिर है कवि होना कभी “करियर” की तरह नहीं देखा गया। बल्कि असफलता के मानक बनाए जाएँ तो सबसे स्पष्ट रूप से असफलता कवि होने से स्थापित होगी। बार बार तृप्ति नारायण शर्मा का निराला पर सुनाया हुआ क़िस्सा याद आता है। क़िस्सा ऐसे घटा कि निराला एक धनिक के यहाँ किसी विवाह में गए। उस धनिक के तीन बेटे थे। दो तो निराला को मिले, तीसरा नहीं मिला। जब निराला ने इसका ज़िक्र उस धनिक से किया तो उसने मुँह बनाते हुए कहा कि “वह साला कवि हो गया है”। (अब समय आ गया है कि इस कवि होने में एक विशेषण और जोड़ा जाए और कहा जाए कि वह साला हिंदी का कवि हो गया है।) वस्तुत: कविता असफलता का पैमाना है/होनी चाहिए। मेरे परिवार में भी अमूमन यही माना गया और मुझसे पूर्व जो कवि हुआ, उसकी आलोचना इसी बात पर होती रही कि वह अपनी ज़िंदगी का सब हासिल नहीं कर सका क्योंकि वह व्यर्थ के आदर्शों में फँसा रहा। यह भी तय रहा कि उनकी तरफ़ उसे यही कविता ले गयी। एक पीढ़ी का श्राप अगली पीढ़ी तक आने का दुःख भी गाहे-बगाहे मेरा परिवार जताता रहा है। असंख्य ऐसे उदाहरण हैं जहाँ ज़िंदगी की सही राह बताने की सम्बन्धियों की मासूम इच्छा का अंत वीभत्स रस की निष्पत्ति से हुआ।

लेकिन एक दिन हिन्दी फ़िल्मों की तरह समय बदला और अचानक यह पाया गया कि परिवार में और कविताएँ हैं, या वे न भी हों तो और कवि तो हैं। बीते दिनों कुएँ भर में अत्याधुनिक कवियों का अवतरण हुआ है और इतिहास इसे नहीं पढ़ पाया है। “कविता” के अनगिनत प्रकार और उदाहरण आसपास घूम रहे हैं। लेकिन यह इच्छा अनूठी नहीं है। जो परिवार में हुआ है, वह आसपास के असाहित्यिक समाज में भी हुआ जहाँ लिखे को “कविता” और ख़ुद को “कवि” कहवाने का आग्रह प्रकट हो गया जिसकी ईमानदारी और जिसका सलीका दोनों कठघरे में खड़ा करना ज़रूरी है (यहाँ से ठेकेदारी वाले तर्क आ सकते हैं और न समझ आने का यक़ीन होते हुए भी बरास्ते पेसोआ कह देना चाहिए कि my vanity consists of a few pages…) मेरा यह सब यहाँ कहने का एक कारण तो यह है कि मैं इन नॉन पोयट्स की खिल्ली उड़ाना चाहता हूँ। लेकिन यह सब यहाँ लिखने का एक उसे बड़ा कारण यह है कि यह सब कुछ एक गम्भीर समस्या की ओर इशारा करता है। मानकीकरण की आधुनिकोत्तर समस्या। कार्यशाला में क्या होगा यह सोचते हुए ये कुछ संदर्भ थे जो मेरे दिमाग़ में बन रहे थे। अच्छा यह था कि मुझसे जिन्हें मिलना था, वह साहित्य के प्रति अनुराग से भरे थे और इन समस्याओं और कु-अभिलाषाओं से परे थे। बुरा यह कि इन असाहित्यिकों का हल्कापन सीधा सोशल मीडिया के ज़रिए इन तक पहुँच रहा था। जिस तरह संस्कृति का निर्माण होता है और जिस तरह उसका वितरण होता है, उसका सीधा असर सामने की पीढ़ी पर होता है।

बेसिक की तरफ़
रिल्के एक जगह लिखते हैं कि अगर जेलर हुआ जा सके तो हो जाया जाए लेकिन अगर सम्भव हो कि कवि न होना पड़े तो कवि न हुआ जाए। तभी कवि हुआ जाए जब और कुछ होना सम्भव न हो। पूँजीवादी संस्कृति में लिखना ‘महत्वाकांक्षी’ शब्द से लिपटा हुआ है और यह महत्वाकांक्षा रचने को लेकर कम और दिखने को लेकर अधिक है। यह भी लगने लगा है कि पिछले चार पाँच सालों में यह दिखाई देने की चाहत, अच्छा लिखने और उससे खुश होने की चाहत से उपर चली गयी है। दिखने से खुश होना, लिखने से नहीं।  हो सकता है हमेशा ऐसा रहा हो और सोशल मीडिया के कारण अब ज़्यादा प्रकट होने लगा हो। मुझे बार बार 2017 के पटना पुस्तक मेले में हुई संजय कुंदन की कविता कार्यशाला याद आती है। उस भीड़ में अधिकांश नए कवि थे और संजय कुंदन ने एकदम सीधी सीधी बात की थी और कविता लिखने से क्या हो जाएगा जैसे प्रश्न पर बोलते रहे थे। मुझे हमेशा लगता है कि तकनीकी रूप से कवि को हमेशा बेसिक की तरफ़ लौटना चाहिए। मैं भी बार बार लौटता हूँ। जब मैंने साहित्य पढ़ना शुरू किया और यह अरुण कमल को बताया कि मैं थोड़ा बहुत लिखता हूँ और साहित्य पढ़ूँगा, उन्होंने मुझसे दो चीज़ें ख़रीदने को कहा। एक साहित्य के इतिहास की एक पुस्तक और एक बढ़िया शब्दकोश। ये दोनों चीजें कम से कम अबोध दिमाग़ में दो चीजों का रोपण तो करती ही हैं -जाने अनजाने कवि कम से कम उन प्रश्नों से एंगेज्मेंट की तरफ़ बढ़ता है जिनका जवाब उसे जीवन भर खोजना है। अरुण कमल की बताई चीजों के साथ एक और अपनी तरफ़ से जोड़ देता हूँ।  व्याकरण की एक पुस्तक जिसको जब तक देखा पलटा जा सके। सबसे पहले तो कवि को सीखनी है भाषा।

  • भाषा

किसी भी लिखने वाले के लिए, अच्छे बुरे कवि अकवि के लिए पहली माँग भाषा की अच्छी समझ है। शुद्ध लिखना ज़रूरी है। लेकिन वही काफ़ी नहीं है। अच्छे शिक्षक सिखाते हैं कि किसी भी भाषा का सबसे परिष्कृत रूप उस भाषा की कविता में मिलता है। एक बार एक मित्र ने मुझे formalists के बारे में बताया। उनसे de-familiarization के बारे में पता चला। ऐसे कई कान्सेप्ट्स हैं जिसकी समझ और जिसका पीछा कवि को करने आना चाहिए। (यहाँ यह कह देना चाहिए कि इसमें से बहुत कुछ कवि से instinctual भी सध सकता है) कवि को सिर्फ़ शुद्ध भाषा में नहीं लिखना है, उसे इस ज़िम्मेदारी के एहसास के साथ भी लिखना है कि वह भाषा में काम कर रहा है तो उसे भाषा को कुछ देना भी पड़ेगा। शेक्सपीयर ने अपनी भाषा को दस हज़ार अर्थपूर्ण शब्द दिए। हमजतोव ने अपनी भाषा को दुनिया भर की जाने कितनी संस्कृतियों तक पहुँचाया। ये सरल उपलब्धियाँ नहीं हैं और हम और आप शायद इन तक कभी नहीं पहुँचेंगे। लेकिन जब उदाहरण ढूँढना हो और महत्वाकांक्षा पालनी हो, उनको सबसे उत्कृष्ट होना चाहिए।

  • परम्परा का भान

साहित्य के इतिहास की पुस्तक क्यों पढ़नी चाहिए इसकी कई वजहें हैं। साहित्य के विद्यार्थियों के सिलेबस में होता है। उससे परीक्षा में प्रश्न आते हैं।  लेकिन कवियों-लेखकों को कम से कम दो तीन वजहों से पढ़नी चाहिए। सबसे पहले तो अपनी परम्परा का भान होता है। एक अचेतन कवि जो नया लिखना शुरू करता है, धीरे धीरे समझ की तरफ़ यात्रा शुरू करता है। उसकी पीठ पर जो है, उसके भूत में, वही उसका भविष्य और वर्तमान तय करेगा। यह आवश्यक है। फिर यह भी अलग अलग तरह की sensibilities से नए कवि का सामना होता है और वह उनके विकास और विकास में निहित कारकों से जूझता है। अंत में यह भी कि किसी भी भाषा के साहित्य के इतिहास की पुस्तक आख़िरी और अंतिम सत्य नहीं कहती और objectivity की चाहतों के होने के बावजूद blind spots और विमर्शगत सीमाओं से भरी होती है। एक डिबेट तो उस engagement से भी बनती है और पीढ़ी दर पीढ़ी बनती रहेगी। इसके बारे में सोचना आवश्यक है। सहमतियों और असहमतियों से से परे कवि को इससे जूझना ही है।  इसीलिए शायद पढ़ना आवश्यक है। अच्छा पढ़ना आवश्यक है।

प्लेजर
 प्लेजर की अवधारणा बहुत रोचक है। शेली ने बहुत पहले अपने सबसे प्रसिद्ध लेख में साहित्य और उससे सम्बंधित प्लेजर की चर्चा की थी। आइआइटी वाले वर्कशाप में ज़िन चीजों की चर्चा हुई उसमें से एक रोचक प्रश्न यह भी था कि इस प्लेजर के बारे में कैसे सोचा जाए। मुझको लगता है इस प्लेजर को कैसे परिभाषित करना है, बात यहाँ से शुरू होनी चाहिए क्योंकि ज़ाहिर है इसमें कुछ बौद्धिक तो जुड़ा हुआ है ही। फिर क्या साहित्य की अंतिम माँग यह प्लेजर है? और अगर है तो उसको पाने के लिए जो सूत्र निर्धारण होना चाहिए कैसे होगा? शेली के उस लेख में पंक्तियाँ आतीं हैं – “Poetry is ever accompanied with pleasure: all spirits on which it falls open themselves to receive the wisdom which is mingled with its delight.” लेकिन किसी को प्लेजर कहीं से भी मिल सकता है और क्या यहाँ मानकीकरण और स्थापनाएँ ‘प्ले’ में होंगी? ये रोचक प्रश्न हैं और इनसे भी रोचक है अकादमिक ट्रेनिंग के बग़ैर इसे समझना, इस तक पहुँचना। तय उत्तर तो नहीं दिए जा सकते। कविता सम्भावनाओं का आग्रह रखतीं हैं, स्थापत्य का नहीं। इस प्लेजर का quantification शायद उनके commodification की तरफ़ लेकर चला जाएगा। यहाँ अडॉर्नो और होरख़ाइमर वाला लेख भी याद आता है। बहरहाल, यह सोचना भी कि किसी रैशनल तरीके से स्तरीय साहित्य क्या है इसका निर्धारण किया जाए, इस उत्तरआधुनिक समय में एक अलहदा ख़याल है (और प्रिविलेज के आरोप के साथ ख़ुद को प्रस्तुत करता है)।

कुएँ के बाहर की दुनिया
किसी भी साहित्यिक समाज में दांते की उस महान कविता की तरह कई रिंग्स होते हैं और अलग-अलग जगह अलग-अलग लेबल कोष्ठकों में भरे जा सकते हैं। सिर्फ़ पढ़ने लिखने वाला व्यक्ति ही इस समाज का अंग नहीं होता बल्कि तरह-तरह के बिलकुल असाहित्यिक लोग, असाहित्यिक महत्वाकांक्षाओं के साथ और एक घृणा से भर देने वाली हिंसक प्रवृति के साथ (ज़ाहिर है पूँजीवाद का क्षद्म अपना ही चेहरा धुंधला कर देता है।) बहुसंख्या में अजेंडा-ड्रिवेन षड्यंत्रों में लगे रहते हैं।  मज़ेदार यह कि भौतिक दुनिया इस प्रवृति को नोट करने भर भी नहीं समझती। मुझसे उस वर्कशॉप में एक बहुत मज़ेदार प्रश्न पूछा गया। एक व्यक्ति ने एक कवि की किताब पढ़ी थी। इसलिए क्योंकि एक और बहुत “बड़े” कवि ने उस किताब की बहुत प्रशंसा की थी। उस व्यक्ति ने बहुत शालीनता से मुझसे पूछा कि क्या उससे उस कवि को समझने में भूल हुई है? मैंने उससे कहा कि हिंदी का समाज “झालमुड़ी” समाज है और हिंदी की आलोचना का फ़िलहाल “चूमावन” काल चल रहा है।  वह हँसा। ज़ाहिर है, वह बस मेरा उत्तर जानना चाहता था और जो मैं कह रहा था वह पहले ही समझ चुका था।

आख़िर में यह कि फ़ेसबुक -सोशल मीडिया पर मौजूद चीज़ें और वहाँ की डिबेट हिंदी साहित्य का सही मूल्यांकन तो क़तई नहीं हैं। नए कवि को उसके आगे बढ़ कर कई चीजों का ख़याल करना होगा जिसमें से कुछ की चर्चा इस लेख में है। उसे यह भी समझना होगा कि यह यात्रा लोकप्रियता की प्राप्ति और किसी लेबल में ख़ुद को स्थापित करने की नहीं है। लिखने का ध्येय क्या है इसको लेकर बहुत गम्भीरता से सोचना होगा। बाकी चीज़ें तो adjunct हैं। मूल में अच्छा लेखन ही था और रहेगा। यहाँ शेली का एक वाक्य लिख सकता हूँ लेकिन पटना के संदर्भ में कही एक बहुत जायज़ कवि शशांक मुकुट शेखर की बात कहता हूँ – “पटना में सेलीब्रिटी बनना हो तो या तो dslr कैमरा ख़रीद लें या आरजे बन जाएँ”।
कविता दूसरी कोई शै है।

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अंचित कवि हैं। उनसे anchitthepoet@gmail.com पर बात हो सकती है।

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