डायरी ::
अज्ञेय

स्वप्न : नदी में नाव में चला जा रहा हूँ. और भी यात्री हैं, एक स्त्री है, एक लड़की है, दो एक और हैं, नाविक है. नदी से हमलोग एक तीर्थ की ओर जा रहे हैं. उसका पक्का घाट दिख रहा है.

एकाएक पाता हूँ कि मैं एक बालक को गोद में उठाए हुए हूँ. नाव घाट के किनारे आती है तो मंदिर दिखने लगता है. बालक उसकी ओर ऊँगली उठाता है. मैं देखता हूँ, पर वह मंदिर नहीं दिखा रहा है, कुछ विशिष्ट संकेत कर रहा है. मैं समझ जाता हूँ. वह मंदिर के शिखर की ओर इशारा कर रहा है : शिखर में तीन छत्र हैं, इसी कि ओर उसका संकेत है. मैं कहता हूँ, ‘हाँ, ठीक जैसे तुम्हारे मस्तक पर है,’ – उनके बालक भी जो टोप या मुकुट पहने हैं वह भी इसी तरह तीन छत्र वाला है.

बालक पूछता है; ‘ तो क्या मुझे इस मंदिर के देवता का शासन मानना होगा ? क्या मैं उसकी प्रजा हूँ ?’

मैं उत्तर देता हूँ; ‘ नहीं, इसका अर्थ है कि तुम स्वयं भी चक्रवर्ती हो जैसे उस मंदिर का देवता है.’

नाव घाट लगती है. हम उतरते हैं. लोग हमारे लिए ससंभ्रम रास्ता छोड़ देते हैं. जिस बालक को मैं गोद लिए हूँ, उसमें शक्ति है, लोग उसके मार्ग से हट जाते हैं…

घाट के पार फिर सीढियाँ हैं, इधर से चढ़कर उधर हम उतर जाते हैं फिर नाव पर सवार हो जाते हैं. नाव चल पड़ती है : ऊपर स्रोत की ओर.

थोड़ी दूर पर नाव का अगला हिस्सा टूटकर अलग हो जाता है – वह अलग एक छोटी नाव है जो किनारे लग जाती है. वह स्त्री और लड़की यहाँ उतर जाते हैं. पिछला हिस्सा – बड़ी नाव – आगे बढ़ती जाती है. लड़की और स्त्री चिंतित – से देखते हैं : वे क्या पीछे छूट गए – क्या मैं भी वहीं नहीं उतर रहा हूँ ? मैं समझ रहा हूँ कि बड़ी नाव यहाँ उथले घाट पर किनारे नहीं लग सकती थी, आगे घाट पर जा लगेगी – उन्हें आश्वस्त रहना चाहिए. पर घाट के बराबर आकर भी नाव किनारे की ओर नहीं बढ़ती : ठीक मझधार में ऊपर की ओर चलती जाती है.

…                         ….                            …

पाट संकरा हो जाता है : छहेल पेड़ किनारों से झुककर छा जाते हैं जैसे नाव एक हरी सुरंग में बढ़ी जा रही हो. नाव निरन्तर ऊपर स्रोत की ओर बढ़ती जा रही है.

…                         ….                           …

( थोड़ा और भी था :  भूल गया हूँ.)

थोड़ी देर बाद इस बोध के साथ जाग जाता हूँ कि स्वप्न विशिष्ट है : एक बार मन में उसे दुहरा जाता हूँ कि सवेरे याद रहे. अंत के थोड़ – से अंश को छोड़कर सारा ज्यों का त्यों याद है, और एक गूढ़ार्थ – भरा लगता है. यह भी निश्चय है कि आगे थोड़ा और था : वह क्यूँ भूल गया ?

लिख डालता हूँ.

***

अज्ञेय समादृत कवि-गद्यकार हैं.
प्रस्तुत गद्यांश एक स्वप्न से सम्बंधित है और यहाँ ‘कवि-मन’ शीर्षक से प्रकाशित डायरी अंश से साभार लिया गया है.

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