प्रतिसंसार::

पत्र : आदित्य शुक्ल

आदित्य शुक्ल

[प्रिय प्रियंबदा.]
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विदाई की भी तो एक रस्म होती है. हमारे यहाँ जब कोई स्त्री किसी रिश्तेदार के यहाँ से अपने घर को लौटती है तो एक अंजुरी चावल, हल्दी की कुछ गांठे और कुछ सिक्के/कुछ पैसे जरूर दिए जाते हैं. कभी-कभी तो देने वाले इतने पैसे दे देते हैं कि उन स्त्रियों के अरसों से रुके हुए काम तक हो जाते हैं. यह कितनी सुंदर परम्परा है. ऐसी भी तमाम स्त्रियां हैं जो विदाई की इस रस्म का बड़ी बेसब्री से इंतजार करती हैं. हमारे यहाँ की स्त्रियों के कोई दोस्त/सहेली नहीं होतीं. उनके सिर्फ रिश्तेदार होते हैं. उनके लिए पर्यटन के नाम पर सिर्फ एक मायका होता है. और जब जीवन के उत्तरोत्तर पर उनके अस्तित्व में एक महीन उदासी भर जाती है तो वे तीर्थ यात्राओं पर निकल जातीं हैं.

प्रिय प्रियंबदा,
विदाई की भी तो एक रस्म होती है. जैसे जाते हुए को कुछ ऐसा दे देना जो वह अपने पास हमारी सुखद स्मृति के लिए रख सके. हमारी स्मृतियों को तो सुखद ही होना चाहिए विशेष तौर पर उनके परिप्रेक्ष्य में जो हमारे निकटतम प्रिय हैं. क्या तुम्हें पता है, एक समय के बाद हम कहने-बोलने की शक्ति खो देते हैं. इस समय के बाद हम जो भी कहते-बोलते हैं, वो कहा/बोला हुआ न होकर भाषा की बाइनरी का एक आटोमेटिक डिकोड होता है. जैसे खाना खाकर स्कूल जाओ. स्टूल पर बैठकर पानी पियो. किचन में चप्पल पहनकर मत जाओ. यह सब संकेत हमारे मस्तिष्क में एक इंस्ट्रक्शन की तरह फीड हैं. एक समय के बाद हम भी इन संकेतों से संचालित होते हैं, प्रियंबदा.

प्रियंबदा, देखो सर्दियां आ गयीं हैं. बहुत ठण्ड लगती है हालांकि उतनी भी ठण्ड नहीं है. हम अक्सर बैठकर बातें करते हैं उन जगहों पर जहाँ हम थे, हैं नहीं. जैसे चाय की दुकान. अब चायवाला अधिकतर चाय बट्टे में ही देता है. बट्टे की चाय का स्वाद अलग है. आखिरकार उसमें उस मिट्टी का स्वाद है जिसमें हमें अंततः मिल जाना है. मेरे पास या तो बिल्कुल समय नहीं होता या फिर इतना होता है कि समझ नहीं आता इनका क्या करूँ. ऐसी स्थितियों में मैं समय को मुट्ठी में भरकर आसमान की ओर उछाल देता हूँ. सर्दियां आ गयीं हैं तो घर के पास के पोपलार के पत्ते भी सब झड़ गए हैं. अरे हाँ, यह तो बताना भूल ही गया उन पेड़ों को लगभग छांट दिया गया है. मुझे पेड़ों की छटनी अच्छी नहीं लगती. ऐसा लगता है मानो किसी ने हमारे घर को उजाड़ दिया हो. वैसे भी आज नहीं तो कल कोई न कोई हमारे घर उजाड़ ही देगा, है कि नहीं प्रियम्?

रातों में अक्सर देर रात तक या यूं कहो कि पूरी रात के बाद भोर तक जगा रहता हूँ. लगभग एक बजे के करीब कोई जहाज ज़ोर की आवाज़ करता हुआ छत के बहुत ऊपर से निकल जाता है. ऐसा लगता है जैसे ऐसे ही किसी जहाज में बैठकर तुम जा रही हो. जाते वक़्त अपना खोईंचा तो ले जाती. पैसे नहीं देता तो कुछ सुखद स्मृति दे देता. आखिर हम उन पुरातन परम्पराओं का उस तरीके से तो पालन नहीं ही करते हैं न. खैर अब क्या. जब मैं अपने फ़ोन से हाथ हटाकर कहता हूं, खैर अब क्या, तो तुम कितनी उदास हो जाती होगी. क्या तुम कभी कभी बहुत उदास और लगभग रोने-सी हो जाती हो?

सुबह से ज्यादे का वक़्त है और जगजीत सिंह किसी के साउंड सिस्टम पर गा रहा है :
तुम नहीं हो मगर तुम ही तो हो…
अहस्ताक्षरित.

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आदित्य शुक्ल कवि-गद्यकार हैं.  उनके कॉलम ‘प्रतिसंसार’ के अंतर्गत चिट्ठियों की एक श्रृंखला प्रस्तुत की जा रही है. उसी क्रम में यह तीसरी चिट्ठी है.  ये चिट्ठियाँ प्रेयसियों को और अपने वजूद को सम्बोधित हैं – आप चाहें तो ऐसा मान सकते हैं. आदित्य से shuklaaditya48@gmail.com पर बात हो सकती है. फीचर्ड तस्वीर – एड्वर्ड मंच की पेंटिंग, टू ह्यूमन बींग्स, द लोन्ली वन्स. इस श्रृंखला के आरम्भ के दोनों पत्र यहाँ से पढ़े जा सकते हैं : हल्कापन और भार | सब दृश्य रैंडम है

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