लेख ::
उमर
“लाखों लोग पलक झपकते ही अपनी रोज़ी-रोटी खो देंगे
चूल्हों में आग नहीं होगी और तवा उलटा रखा होगा”
यह पंक्तियाँ ही आज की हक़ीक़त हैं। यही सच है जो लगातार और भयावह होता जा रहा है। फ़ासीवाद का असल दुश्मन मज़दूर वर्ग होता है लेकिन वह एक काल्पनिक शत्रु भी गढ़ता है ताकि अपने सभी काले कारनामों को ढक सके। भारतीय मुसलमान नाम का वह काल्पनिक शत्रु है जिसके ख़िलाफ़ 2014 के बाद एक जंग छेड़ी जा चुकी है। जंग तो लम्बे समय से चल रही थी लेकिन आज यह प्रक्रिया अपनी पूरी गति पकड़ चुकी है। मॉब लिंचिंग, साम्प्रदायिक दंगों और अन्य सभी प्रकार के माध्यमों से मुस्लिम वर्ग निशाने पर है। पहले एक काल्पनिक दुश्मन का मिथक गढ़ा गया और अब उस दुश्मन को ठिकाने लगाया जा रहा है। पूरा राज्य बुलडोजर पर सवार होकर ध्वंस का नंगा नाच, नाच रहा है। फ़िल्म और सिनेमा में एकदम खुले ढंग से पूरे एक अल्पसंख्यक समाज को संदिग्ध बनाया जा रहा है। फ़ासीवादी मंचों से खुलेआम कत्लेआम का नारा बुलंद किया जा रहा है। गौ-रक्षा के नाम पर मनुष्य की हत्या का दौर चल रहा है। ‘राजेश जोशी’ की विशेषता है कि वे बिना लाग-लपेट के कहने आदी हैं और कह जाते हैं:
“एक रात सपने में किसी ने कहीं से एक पत्थर सन्नाया
और चाँद का माथा फोड़ डाला
खून से भर गया आसमान
कस्बे के नजूमी अबू हसन ने कहा :
यह किसी तानाशाह की पैदाइश का इशारा है
और जगह-जगह चौपायों के बहाने आदमियों का
कत्लेआम शुरू हो गया
अबू हसन ने कहा :
हिटलर के जूते किस संग्रहालय में रखे हैं, उसे नहीं पता
लेकिन जाकर देख लो उनकी चमक बढ़ गई होगी
संडास में बैठा मुसोलिनी हँस रहा होगा
लाखों लोग पलक झपकते ही अपनी रोजी-रोटी खो देंगे
चूल्हों में आग नहीं होगी और तवा उलटा रखा होगा
परिवार की बूढ़ी औरत कहेगी
यह अपशकुन है”
पूँजीवाद एक वैश्विक व्यवस्था बन चुकी है, लेकिन यह स्वयं में संकटग्रस्त व्यवस्था है। यह अपने अंतर्विरोधों को हल करते हुए एक नए अंतर्विरोध में फँस जाती है, और जब उससे उबरती है तो एक नयी समस्या खड़ी होती है। जब पूँजीवाद ने क्रांतिकारी भूमिका निभाई तब इसने स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के नारे दिए लेकिन जब वर्ग संघर्ष तेज हुआ तब इसने साम्प्रदायिकता, नस्ल, जातिवाद और फ़ासीवादी राजनीति को बढ़ावा दिया। इस व्यवस्था की परिणति यही हो सकती थी। ‘अर्थव्यवस्था की रीढ़ टूट चुकी है’ और ‘राष्ट्रवाद नाम का एक पागल नंगा घूम रहा है सड़कों पर’ जो कि इतना नंगा है कि ‘इसे जानने को किसी पोथी-पतरे की ज़रूरत नहीं’। अब कोई अच्छा पूँजीवाद का दौर आएगा ऐसी किसी कोरी कल्पना में जीने की ज़रूरत नहीं। ‘राजेश जोशी’ की कविता में जो ‘वामपंथ हाशिये पर सिमट गया है’ उसकी भी भूमिका ज्यादा बुरे से कम बुरे के समर्थन तक ही सीमित रही है।
जब मुनाफ़े की दर लगातर गिरती रहती है तब पूँजीपति दूसरे क्षेत्रों में निवेश करना चाहता है। ऐसे में सरकारी संस्थाओं का निजीकरण शुरू हो जाता है। ‘बैंक बिक गए, रेल बिक गई, हवाई जहाज़ की बोली लग रही है‘। यह सब होता रहे और जनता का ध्यान भटका रहे, इसके लिए फ़ासीवादी सत्ता का केंद्र में होना जरूरी है जो कि जनता का ध्यान काल्पनिक और गढ़े हुए मुद्दों की ओर भटका सकें। यह पूरे विश्व में हो रहा है और जगह-जगह दक्षिणपंथी सरकारों का उदय हो रहा है। चौथे खम्बे को तो फटना ही था और उस खम्बे में दरारें कब नहीं रहीं! न्यायपालिका कब पूरी तरह जनपक्षधर रही! लेकिन आज यह प्रक्रिया बेहद तेज गति से घटित हो रही है।
“न्यायपालिका ऊपर के आदेश का इंतज़ार कर रही है
और किसी नरसिंह अवतार के प्रकट हुए बिना ही चौथा खम्बा फटकर गिर चुका है”
भय का वातावरण चारों ओर व्याप्त है। अबू हसन इस भय को अच्छे से जानता है और कहता है ‘फ़ौजें दिखें न दिखें, फ़ौज़ी बूटों की आवाज़ आ रही है‘। और ‘बच्चों की आँखें और परिंदों की फड़फड़ाहट कहती है ख़तरा बढ़ रहा है‘!
लगातार अलगाववादी शक्तियों को बढ़ावा मिल रहा है। एक भीड़ तैयार की गयी है कि जो हर झूठ को सच मान रही है। भीड़ फेक न्यूज़ के आधार पर ‘मॉब लिंचिंग’ कर रही है और इस तरह इस देश की सड़कों पर निर्दोष जनता का खून बह रहा है। तमाम असली मुद्दों को ढक दिया गया है और फेक न्यूज़ को लगातार प्रसारित किया जा रहा है। अब यही इस देश की ख़बर है जिसे ‘हमने तो दूसरों से सुना है, और दूसरों ने और दूसरों से‘–
“एक दिन ऊँट पर बैठे आदमी को
एक छोटे से कुत्ते ने काट लिया
अबू हसन ने पूछा : यह सपने में हुआ या हक़ीक़त में?
लोगों ने एक दूसरे की तरफ़ देखा
और सबने लगभग
एक साथ कहा: हमें नहीं पता हमने तो दूसरों से सुना है, और दूसरों ने और दूसरों से”
फ़ासीवादी राज्य बेहद सुनियोजित तरीके से कार्य करता है। उपनिवेश के दौर में राष्ट्रवाद की एक सकारात्मक भूमिका थी लेकिन आज के दौर में यह शब्द महज झुनझुना मात्र है जिसकी कोई उपयोगिता नहीं रह गयी है। आज हर एक वाज़िब सवाल के जवाब में राष्ट्रवाद और धर्म का शगूफा रहता है। राष्ट्रीय चैनलों पर अंधविश्वास और कोरे चमत्कार का नाच हो रहा है। अब यही ख़बर है। यह व्यापक पैमाने पर चल रहा है। इस देश का नौजवान, मज़दूर और हर त्रस्त व्यक्ति सड़कों पर है और लॉकडाउन में जब इस देश का मज़दूर सड़कों पर भूखा नंगा पलायन को मजबूर था, तब भी वह ख़बरों से बाहर था। ‘ख़बरों में मोरों को दाना चुगाते शहंशाह की तस्वीर‘ थी।
अबू हसन ने कहा : अब ख़बरें इसी तरह बनेंगी/ अन्याय होगा, पर अन्याय की ख़बर नहीं होगी,/ सड़कों पर होंगे लोग, हवाएँ गूंज रही होंगी नारों से/ पर उसकी ख़बर कहीं नहीं होगी/ रोज़ी-रोटी खो चुके लाखों लोग सिर पर अपनी गृहस्थी उठाए/ भूखे-प्यासे, नंगे पाँव वापस अपने गाँव लौट रहे होंगे/ पर ख़बरें नहीं होंगी/ खबरों में असल ख़बरों के लिए जगह ही नहीं होगी/ सिर्फ़ मोरों को दाना चुगाते शहंशाह की तस्वीर होगी
आज ‘सपने को हक़ीक़त और हक़ीक़त को सपना बनाने में/ सिर्फ़ थोड़े से झूठ की जरूरत होती है‘ और ‘शहंशाह सोचता है और मन ही मन हँसता है: अबू हसन की बात कौन मानता है….‘!
यह ‘अबू हसन’ एक अल्पसंख्यक समाज का पात्र है। ‘अबू हसन’ उस समाज का पात्र है जिसकी पहचान ही उसे भयभीत कर रही है। अचानक इस देश के बहुसंख्यकों के लिए ‘अबू हसन’ एक बड़ा ख़तरा बन चुका है। ख़तरा पहले भी था लेकिन आज उन्माद और तीव्र हो चुका है। एक झूठ जो लंबे समय से गढ़ा जा रहा था, आज फ़ासीवादी सत्ता ने उसे फैलाने में कामयाबी हासिल की है। ‘अबू हसन’ अनिभिज्ञ व्यक्ति नहीं है बल्कि वह सब जानता है। ‘अबू हसन’ सारे ढोंग और पाखण्ड को उजागर कर देता है:
“पहले वह सफ़ेद प्यादा आगे बढ़ाता है
फिर बिसात के दूसरी तरफ़ जाकर काला घोड़ा उठाता है
और ढाई घर चलता है
शहंशाह खुद के साथ खुद ही शतरंज खेलता है”
‘अबू हसन’ जानता है कि ‘शंहशाह’ जिस भी प्यादे के लिए चाहे राष्ट्रीय कोषागार के द्वार खोल दे। प्यादों ने भी इसी के दिन के लिए ‘शहंशाह’ चुना था ताकि ‘देश की संपत्ति शहंशाह की संपत्ति बन जाए’ और औने-पौने संकट काल में उन्हें बाँटता रहे। ‘लोग चिल्लाते रहते हैं, वह बाँसुरी बजाता…निकल जाता है’।
पूँजीवाद संकट के दौर से गुज़र रहा है। वैश्विक स्तर पर भी विभिन्न देशों में दक्षिणपंथी सरकारों का गठन हो रहा है। समाज में एक काल्पनिक शत्रु वर्ग खड़ा किया जा रहा है ताकि जनता वास्तविक मुद्दों से अनिभिज्ञ रहे। दक्षिणपंथी शक्तियाँ और सड़े-गले विचारों पर बने कैडर आधारित संगठन इस कार्य को बखूबी अंजाम दे सकते हैं। यह नया फ़ासीवाद है जो पुरानी फ़ासीवादी सत्ताओं से भिन्न है। इसने अपने जर्मनी और इटली के अतीत से सबक सीखा है। यह बेहद उन्नत किस्म का फ़ासीवाद है। यह सामान्य दौर में निर्मित पूँजीवादी संस्थाओं को ध्वस्त नहीं करता बल्कि उन्हें कायम रहने देता है। फ़ासीवाद पूँजीवाद की ही देन है। आज पूँजीवादी समाज अपनी समस्याओं हल नहीं कर पा रहा है तो अपने निर्मम चेहरे के साथ हमारे बीच है। आधुनिकता के साथ मनुष्य को जो जनवादी मूल्य मिले अब वह भी छीने जा रहे हैं। और भारत जैसे देशों में, जहाँ जनवाद की बुनियादी अवधारणा भी धरातल पर ढंग से नहीं उतरी वहाँ संकट और विकराल है। यहाँ का जनवाद दुर्बल जनवाद है।
द्वितीय विश्व युद्ध की परिस्थितियों के बाद पूँजीवादी राज्य ने कल्याणकारी राज्य का मुखौटा लगाया था तो शायद कुछ विद्वान उसे लोकतांत्रिक समाजवादी राज्य समझने की भूल कर बैठे थे। उत्पादक शक्तियों के भयानक विनाश और तबाही के बाद पूँजीवादी व्यवस्था फिर से उभरी। राज्य की तमाम संस्थाएँ अपनी स्वायत्तता के साथ खड़ी दिख रही थीं। हालांकि, वह भी किसी मायने में जनता का स्वर्णयुग नहीं था। आज लोगों को यह भ्रम हो रहा है कि राज्य की सारी संस्थाओं का रवैया अचानक निर्दयी और तानाशाहाना कैसे हो गया है! सभी के सुर एक से कैसे हो गए हैं! ऐसे लोग यह नहीं समझ पा रहे हैं कि यह सारी संस्थाएँ अंततः पूँजीवादी राज्य के पहियों को खींचने के लिए ही बनी हैं। न्यायपालिका इससे भिन्न नहीं है। आज बचे-खुचे जनवाद को भी तिलांजलि दी जा चुकी है। आज सारे काले-सफ़ेद कारनामे खुल्लमखुल्ला हो रहे हैं। ‘यह मुल्क शहंशाह की चौसठ खानों की बिसात है‘ और ‘एक दिन वह अपना काला प्यादा बढ़ाता है/ और उसे न्यायाधीश की कुर्सी पर बिठा देता है‘ और ‘फ़िर दर्ज़न-भर अगरचे-मगरचे और चुनांचे के साथ/ शहंशाह जैसा जैसा चाहता है/ प्यादा फ़ैसला सुनाता जाता है‘।
जिन देशों में पूँजीवाद का विकास सामंतवाद और समाज की पिछड़ी मूल्य मान्यताओं से संघर्ष करते हुए हुआ, ऐसे जगहों पर जनवाद के प्रति समझ और आग्रह भी इन्हीं संघर्षों में विकसित हुआ। लेकिन भारत जैसे देशों में यह प्रक्रिया सम्पन्न नहीं हो सकी। उपनिवेशीकरण ने ऐसी सभी संभावनाओं का अंत कर दिया। भारत में जनवादी मूल्य कभी धरातल पर नहीं उतर सके और न ही ऐसा सम्भव था। पूँजीवादी लोकतंत्र या जनवाद के प्रति पूँजीवादी अवधारणा भी किसी किस्म की निरपेक्ष अवधारणा नहीं है। और यहाँ तो लोकतंत्र शुरू से ही ‘प्रहसन’ रहा। आज के समय में प्रक्रियाएँ तेज गति से हो रही हैं तो अब यह कहीं अधिक एहसास हो रहा है कि ‘लोकतंत्र एक प्रहसन में बदल रहा है/ एक विदूषक किसी तानाशाह की मिमिक्री कर रहा है‘।
“उल्लंघन की आदत तो मेरी रग-रग में मौजूद है
बन्दर से आदमी बनने की प्रक्रिया के बीच
इसे अपने पूर्वजों से पाया है मैंने‘ और ‘मैं एक कवि हूँ
और कविता हमेशा से ही एक हुक्म-उदूली है
हुकूमत के हर फरमान को ठेंगा दिखाती
कविता उल्लंघन की एक सतत प्रक्रिया है”
कहना न होगा कि ‘राजेश जोशी’ की कविताएँ ‘उल्लंघन’ ही नहीं करती बल्कि एक प्रति-संसार भी रचती हैं। पैरों को भटकने दो, खोजने दो नए रास्ते/ दिमाग़ को गढ़ने दो एक और अधिक सुंदर प्रति-संसार/ कि वह एक प्रजापति का मस्तिष्क है !
और एक अलग पृथ्वी भी कवि गढ़ना चाहता है-
“ओ सूर्य!
कुछ ऐसा करो, कुछ ऐसा करो
कि एक और पृथ्वी बनाओ
जिसे मुल्कों में तक़सीम न किया जा सके!
जो हर बेवतन का वतन हो
जहाँ हर गणतंत्र से निष्कासित कवि के लिए
अपना एक घर हो!”
प्रायः ‘राजेश जोशी’ की कविताएँ साधारण कथनों-वाक्यों से शुरू होती हैं लेकिन अंत तक आते-आते किसी गहरी सचाई की तरफ़ इशारा कर जाती हैं। ‘रोशनी’ कविता की शुरुआती पंक्तियाँ-
“इतना अँधेरा तो पहले कभी नहीं था
कभी-कभी अचानक जब घर की बत्ती गुल हो जाती थी
तो किसी न किसी पड़ोसी के घर में जलाई गई
मोमबत्ती की कमज़ोर-सी रोशनी हमारे घर तक चली आती थी
कभी-कभी सड़क की रोशनियाँ खिड़की से झाँककर
घर को रोशन कर देतीं और कुछ नहीं तो कहीं भीतर बची हुई
कोई धुँधली-सी मगर जिद्दी रोशनी
कम-से-कम इतना तो कर ही देती थी
कि दिया सलाई और मोमबत्तियाँ ढूँढ़कर जला ली जाएँ”
और अंतिम पंक्तियाँ इस तरह हैं:
इतना अँधेरा तो पहले कभी नहीं था
कि मुँह खोलकर अँधेरे को कोई अँधेरा न कह सके
कि हाथ को हाथ भी न सूझे
कि आँख के सामने घंटे अपराध की कोई
गवाही न दे सके
इतना अँधेरा तो पहले कभी नहीं था!
‘इतना अँधेरा तो पहले कभी नहीं था’ से मालूम पड़ता है कि कोई ऐसा दौर भी था जब थोड़ा उजाला भी था। रहा होगा लेकिन उस दौर के हल्के उजाले में ही वे कारनामे हुए जो आज अँधेरा छाया हुआ है। इस दौर को पिछले दौर की निरंतरता में इस तरह देखा जा सकता है कि पिछले दौर ने ही ऐसे बीज जो हमारा वर्तमान युग, अंधकार युग है। यह उस दौर के शासक वर्ग की नीतियों की ही परिणति है। ‘राजेश जोशी’ ही नहीं वरन हिन्दी कवियों-आलोचकों का एक ऐसा धड़ा है जो 2014 के पहले और विशेष रूप से नेहरू युग में खोया हुआ है, मानो वे लोकतंत्र के इतिहास के स्वर्णकाल रहे हों! उन्हें वह समाजवादी लोकतांत्रिक युग लगता है! यह समाजवाद की सही समझदारी तो नहीं कही जा सकती और न ही पूँजीवादी विकास के प्रति कोई स्पष्ट अवधारणा। ‘राजेश जोशी’ द्वारा इस दौर में रची गयी उनकी अधिकतर कविताओं में लोकतंत्र के तथाकथित स्वर्णयुग के प्रति एक लगाव ध्वनित तो होता है भले ही ध्वनन हल्के ढंग का हो।
इस देश के एक राज्य को लंबे समय तक अँधेरे में रखा गया। एक ठहराव की स्तिथि पैदा की गयी। कहा गया कि अब स्वर्ग शांत रहेगा और जिसके लिए उसके विशेष दर्जे को समाप्त कर खण्डित कर दिया गया। इस देश के कई राजनेताओं ने मर्दानगी से भरा बयान दिया कि वे अपने राज्य के लड़कों के लिए इसी राज्य की लड़कियों को लाएंगे! दावा किया गया कि एक बड़ी समस्या निपट गयी है लेकिन जाने कैसे समस्या थी कि जिसे निपटाकर सारे राज्य के चप्पे-चप्पे को छावनी में तब्दील कर दिया। इंटरनेट, फ़ोन अब प्रतिबंधित थे। ‘स्वर्ग का विभाजन’ कविता उस स्वर्ग की नारकीय स्तिथि का वर्णन है। ‘दक्षिणपंथ से आए शासकों की नज़र में यह स्वर्ग बहुत दिनों से खटक रहा था’ और:
“स्वर्ग विभाजित हो चुका था
और उसकी हैसियत एक दर्जा कम हो गई थी
उसकी नकेल अब लुटियन की राजधानी के हाथ में थी पिछली सदी के तानाशाहों के प्रेतों को अपने कंधों पर ढो रहे
सात समुन्दर पार से आए कुछ मेहमान, सुरक्षा के बीच
स्वर्ग की सड़कों पर घूम रहे थे
कि इस बात की ताईद कर सकें
कि स्वर्ग में ख़ुशहाली ही ख़ुशहाली है
किसी ने आधा सेब खाया हो या न खाया हो
किसी को भी स्वर्ग से बहिष्कृत किया जा सकता था किसी भी वक़्त
स्वर्ग में न फ़ोन चालू थे, न मोबाइल और न इन्टरनेट स्वर्ग में सिर्फ़ सन्नाटा था”
‘विरोध कर सकने वाली ताक़तें अब भी विरोध कर रही थीं‘ लेकिन ‘सारे खिड़की-दरवाज़े बन्द थे‘ और ‘सड़कों पर सन्नाटा पसरा था‘!
आज ‘नए-नए विषाणु पैदा हो रहे हैं हर दिन/ दम तोड़ रही हैं आबादियाँ‘। इस सदी ने सबसे वीभत्सतम दौर भी देखा। महामारी के दौर में पूँजीवादी व्यवस्था की आमानवीयता खुलकर सामने आ गयी। इसी कविता में ठीक आगे की पंक्तियाँ हैं- पृथ्वी, आकाश, जल, हवा और अग्नि/ सब सवालों के कटघरे में हैं/ नेपथ्य से कोई ‘प्रलय की छाया का पाठ कर रहा है ज़ोर-ज़ोर से/ यह सभ्यताओं के सबसे बड़े संकट का समय है/ सारी सड़कों पर पसरा है सन्नाटा/ बन्द हैं सारे घरों के दरवाज़े/ एक भयानक पागलपन पल रहा है दरवाज़ों के पीछे/ दीवार फोड़कर निकल आएगा जो/ किसी भी समय बाहर/ और फैल जाएगा सारी सड़कों पर‘!
‘इस घर में’ कविता की शुरुआत इस तरह होती है:
जीवन नाम का यह घर कितनी आशंकाओं और
दुर्घटनाओं से भरा है
फिर भी इसमें इतने बरसों से रहा आता हूँ
लेकिन ‘दीवारें धीरे-धीरे भुरभुरी होती जाती हैं/ पलस्तर झरता है/ एक पूर्वज कवि की कविता के मनु का चेहरा/
दीवार पर उभरता है/ हमारे समय की सबसे भयावह घटनाओं की एक फ़िल्म/ तेज़ी से दौड़ती है उसकी खोपड़ी को स्क्रीन बनाती हुई/ भय पाँव पकड़कर बैठ जाता है‘ और‘..जहाँ जिस जगह बहुत दिन रह लो/ उसमें रहने की ऐसी लत बन जाती है/ कि कहीं छोड़कर जाने का न मन करता है/ न हिम्मत होती है‘। कवि यहीं नहीं रुकता आगे कहता है- ‘फिर मेरा तो जन्म ही इसी घर में हुआ/ माना यह घर जर्जर हो रहा है, कभी भी गिर सकता है/ पर इतने बरसों से रहते-रहते ऐसा कुछ हो गया है/ कि इसको छोड़कर कहीं और जाने का/ मन ही नहीं करता‘। कविता का वाचक स्वयं के भीतर से गुज़रने को कतई तैयार नहीं है। उसके पास समाज की आलोचना है, मगर स्वयं की आत्मालोचना से कतराने वाला व्यक्ति है। यह पुनर्नवीकरण से नहीं गुज़रना चाहता। यह ठेठ मध्यवर्गीय यथास्तिथिवादी व्यक्ति है, जो उसी ‘लोकेशन’ से समाज पर दृष्टिपात करता है। वाचक अपनी इस केंचुल को उतारने की कोशिश करते रहने के बजाय इसी के भीतर छिपा रहना चाहता है ताकि सुविधावाद और अवसरवाद के लिए रास्ता बना रहे। यह जीवन नाम का घर अवसरवादी और सुविधापरस्त मध्यवर्गीय जीवन ही है! व्यक्ति चाहे मध्यवर्ग के समाज से जुड़ा अथवा मज़दूर वर्ग से, आत्मालोचना और भीतर के पुनर्नवीकरण की प्रक्रिया हमेशा जारी रहनी चाहिए।
मानवीय मूल्यों और संवेदनाओं का गहरे तक होना साहित्यकार होने की बुनियादी शर्तों में से एक मानी जा सकती है, हालाँकि हर मानवीय व्यक्ति साहित्यकार नहीं होता। इसके बाद दृष्टिकोण का महत्त्व भी है। दृष्टिकोण थोपा नहीं, बल्कि अर्जित किया जाता है। साथ ही, हम जिस तरह के वैचारिक घटाटोप के निकट रहते हैं, उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते। ‘कवि’ के ‘उल्लंघन’ की सीमाएँ बेहद स्पष्ट है। वह अपनी वैचारिक खोह से निकलना नहीं चाहता। यह ठीक है कि ‘आज़ादी बड़ी मुश्किल से हासिल हुयी थी’! ‘और उससे भी ज्यादा मुश्किल हर पल उसकी हिफ़ाज़त करना’ ताकि कोई बाज झपट्टा न मारने पाए, लेकिन बाज झपट्टा मार चुका है और यह तो होना ही था! पूँजीवादी जनवाद, समाजवाद नहीं हो सकता! न ही था। आज़ादी के बाद से ही सीपीआई और तमाम कम्युनिस्ट धड़े संसद में बैठकर यही कर रहे हैं! आवश्यकता है समाज के क्रांतिकारी पुनर्गठन और पूँजीवादी जनवाद से कहीं आगे बढ़ने की। लोकतंत्र, संविधान और आज़ादी निरपेक्ष चीज़ें नहीं है। आज इन्हीं लोकलुभावन शब्दों की आड़ में तथाकथित कम्युनिस्ट पार्टियाँ बुर्जुआ दलों की गोद में बैठी हुईं हैं! यह जिस पूँजीवादी जनवाद का गुणगान गाते नहीं थकते, दरअसल उसी की तार्किक परिणति फ़ासीवाद है!
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पिछले चार-पाँच सालों में यह तो हुआ है कि बिल्कुल नयी उम्र के लोग कविता के अलावा अन्य विधाओं की तरफ़ भी तेज़ी से आए हैं। इनकी तैयारी और दृष्टि दोनों पेशेवर और स्पष्ट है। साथ ही विषय की जानकारी और विचार की साफ़गोई भी इसी नयी, बिलकुल नयी जमात का पारिभाषिक गुण है। इसी कड़ी में मार्क्सवादी साहित्य चिंतन में गहरी अभिरुचि रखने वाले उमर भी हैं। भले ही यह किसी पटल पर उनके किसी लेख के प्रकाशन का प्रथम अवसर है, उनकी आलोचना-दृष्टि तुरंत ध्यान आकृष्ट करती है और अलग से अपनी जगह बनाती है। काशी हिंदू विश्वविद्यालय में परास्नातक (हिन्दी साहित्य) कर रहे उमर से siddiquizaeempbh@gmail.com पर बात हो सकती है।