पछिया हवा ::
आलेख : उपांशु

शुरुआत हेगेल से होनी चाहिए, भले ही हेगेल किसी भी हिसाब से शुरुआत नहीं हो सकते। ऐसा जानबूझ कर करना होगा क्योंकि हेगेल का अक्स डाइलेक्टिक का अचेतन है। भले ही अकादमिक दुनिया के अलावा कोई और पाठकवर्ग हेगेल न पढता हो, भले ही अकादमिक वर्ग ही हेगेल को लेनिन की-सी तन्मयता से न पढ़ रहा हो। शुरुआत हेगेल से इसीलिए होनी चाहिए। लेकिन इस यात्रा में वर्जिल की भूमिका बगैर किसी जटिलता के मार्क्स निभा रहे हैं।

अंग्रेजी का शब्द है “totality”, जिसका अनुवाद मैं “सम्पूर्णता” नहीं करना चाहता। मेरे मोहल्ले की खासियत उसकी तंग गलियाँ हैं। दोनों तरफ बने मकान इन गलियों की चौड़ाई तय करते हैं, कभी-कभी तो इनका खुलना और बंद होना भी। मकानों में रहने वाले गलियों के रास्ते घर पहुँचते हैं। क्या बिना गलियों के मकान घर बन सकता है? मकान कभी-कभी गलियों को बंद कर देते हैं। गलियों का होना न होना मकानों पर निर्भर करता है। यहाँ मौजूद जो द्वंद्व है उसके बिना मेरा मोहल्ला मुमकिन नहीं है। यद्यपि मोहल्ला इस द्वंद्व का असल समाधान नहीं है, लेकिन इस कथा के मुख्य किरदारों को हम भली-भाँति जानते हैं। मेरे इस भटकाव का मुख्य कारण totality की अधूरी संरचना पर आपका ध्यान केन्द्रित करना था। यदि मोहल्ला एक सम्पूर्णता है और मकान और गली इसके हिस्से तो इसका अर्थ यह नहीं कि मकान अपने-आप में कोई totality नहीं है।

हेगेल को मैंने डाइलेक्टिक का अचेतन कहा है, इसे गोस्पेल का दर्जा नहीं दिया, इसीलिए थीसिस-एंटीथीसिस और सिंथेसिस की बात नहीं कर रहा हूँ। क्योंकि मार्क्स हमारे मार्गदर्शक हैं, हमारी शुरुआत बगैर totality के नहीं हो सकती। गली की सड़क पर से मकान एक totality सा प्रतीत होता है। मकान के अन्दर कितने कमरे हैं, यह अन्दर जाकर ही बताया जा सकता है लेकिन कमरों की संख्या या उनका आकार जाने बिना भी मकान का सम्पूर्ण प्रतीत होना निश्चित है। प्रतीत होना और होना भिन्न बातें हैं। गौर करने योग्य भिन्न बातें। यदि आप मकान के हर कमरे से परिचित हैं, तो आपकी totality की समझ मुझसे बेहतर होगी, क्योंकि मैं केवल गली से आपके विशाल मकान को निहार पा रहा हूँ। यही वजह है कि मैं “प्रतीत होने” पर ज़ोर दे रहा हूँ। यही वजह है कि मैं totality शब्द को सम्पूर्णता कहने से हिचकिचा रहा हूँ।

लेकिन अगर आप उन दो दृष्टिकोणों के बीच का भेद समझ पा रहे हैं, तो अब मैं totality न लिख कर सम्पूर्णता ही लिखूँगा। इन दोनों सम्पूर्णताओं के बीच के भेद को हेगेल Aufheben या Aufhebung कहते हैं। ध्यान दीजिये कि गली से जब आप मकान के अन्दर पहली बार आये, मकान की सम्पूर्णता का पिछला चित्र आपके ज़हन से धुल गया। जर्मन भाषा में Aufheben का एक अर्थ मिटाना है, दूसरा लंबित करना है और तीसरा उठाना है। मकान में प्रवेश करते ही सम्पूर्णता की पुरानी आकृति मिट जाती है। मकान का हर कमरा देख लेने के बाद मकान को लेकर हमारी समझ एक नया आयाम ले लेती है। ऐसा अनायास होता है क्या? नहीं। पुरानी आकृति के धुल जाने और नई के गढ़े जाने के बीच हम एक द्वंद्व से जूझ रहे होते हैं। क्या ये वही मकान है जिसे मैं सड़क पर से देखा करता था? पुराने और नए के बीच के इस द्वंद्व को आप केवल विरोधाभास के रूप में नहीं देखते। यह शून्य और एक, होने और न होने या अन्धकार और प्रकाश जैसा नहीं है। आगे बाइनरी पर भी चर्चा करनी है इसलिए दो शब्द पहले ही लिख डालता हूँ। दरअसल बाइनरी एक तरह का सरलीकरण है। असल दुनिया में कुछ ऐसे द्वंद्व होते हैं जिनका हल केवल प्रतीकों में मुमकिन हो पाता है। असलियत का यथार्थीकरण करते हुए ऐसे द्वंद्वों का समाधान खोजना पड़ता है। यथार्थ बहुत हद तक एक ऐसी प्रतीकात्मक संरचना है जहाँ कल्पना के माध्यम से हम ऐसे द्वंद्वों का निवारण करते हैं।1

Aufhebung की समझ के लिए इस लंबित क्षण को समझना बहुत ज़रूरी है, जब पुरानी अवधारणा नया आयाम ले लेती है। मैं इसे लंबित क्षण कह रहा हूँ, लेकिन कहना Mediation चाहता हूँ। मेरा मकसद हेगेल का अनुवाद करना नहीं है, इसीलिए अनुवाद की समस्याओं से पहले ही खुद को बरी कर लेना बेहतर है। मकसद Mediation समझने का है, उसके सटीक अनुवाद का नहीं इसीलिए लंबित क्षण कहना ही बेहतर है। इससे Aufheben के साथ इसका सम्बन्ध भी ज़ाहिर हो जाता है। बाहर से देखे गए मकान और अन्दर आकर सभी कमरों के साथ देखे गए मकान की सम्पूर्णताओं के बीच का वो हिस्सा जब एक-एक कमरा हमारी समझ का हिस्सा बन रहा होता है। यह वो क्षण है जब हमारी सोच बदलाव की एक प्रक्रिया से गुज़र रही है। असलियत को ऐसे किसी प्रक्रिया की ज़रुरत नहीं है, यह प्रक्रिया हमारे लिए है, सोच की विकास के लिए है। हेगेल के हाथ में डाइलेक्टिक सोच को बेहतर समझने की विधि ही तो है। वो अलग बात है कि फिलहाल, मार्क्स के शब्दों में, यह अपने सिर पर खड़ी है।

अपनी रचना आई माइसेल्फ में मायकोवस्की लिखते हैं कि कोई भी रचना उन्हें मार्क्स की प्रस्तावना जैसा नहीं छू पायी। मैं हर बार खुद को उनसे सहमत पाता हूँ। यथार्थ की संरचना के बिना विचारों को आकार कौन दे सकता है? और यथार्थ है भी क्या? मार्क्स की पहली चुनौती इतिहास को आत्मसात कर लेने के दृष्टिकोण को है। हेगेल पर सबसे बड़ा लांछन यही है कि वह मार्क्स नहीं हो सके। ऐसा मैं नहीं जेमिसन कहते हैं। Absolute Spirit हेगेल के इतिहास का अंत है। और समस्या यही तो है कि हेगेल के इतिहास का अंत है। निश्चित ही मार्क्स पर स्पिनोज़ा का प्रभाव है कि वह इतिहास को किसी ध्येय से, किसी अंत की ओर अग्रसर नहीं देखते।  मार्क्स को अपना वर्जिल कहने के पीछे यह भी एक कारण है। हेगेल यदि एक वैचारिक अंत चाहते हैं तो उसके पीछे दर्शन की पारम्परिकता और उनका अपना कालखंड है। फिलोसोफी ऑफ़ राईट में Absolute Spirit का नाम संवैधानिक राजतंत्र यदि है, तो उसका कारण हेगेल का कालखंड ही है। दर्शन की पारम्परिकता ने हेगेल के डाइलेक्टिक को उसके सिर पर खड़ा रखा। फ्रेंच आन्दोलन के पश्चात नेपोलियन के हाथों साम्राज्यवाद के पुनरागमन ने हेगेल की निराशा को दार्शनिक आयाम दिया। यह निराशा उन अकेले की नहीं थी। बेतहोफेन की तीसरी सिम्फनी “एरोइका” में भी यह निराशा प्रत्यक्ष है। फ्रेंच आन्दोलन, उससे प्रभावित रोमांटिसिज्म और उसके पश्चात नेपोलियन के रास्ते बुर्जुआ शक्तियों का उत्सर्जन, इस द्वंद्व से हतप्रभ हेगेल के पास एब्सोल्यूट स्पिरिट के अलावा कोई और सिंथेसिस नहीं था। सामन्तवाद अपने आप ही पूँजीवाद को रास्ता नहीं दे देता। कई-कई आन्दोलनों का सहारा लिया जाता है। कई बार आन्दोलनों के खिलाफ काउंटर-आन्दोलन होते हैं। यदि आज आप किसी डब्बे को अपना घर कह रहे हैं तो इसलिए नहीं कि अंततः इसके अलावा कुछ और नहीं हो सकता था। इतिहास को देखने वालों में उसके अंत की कल्पना अमूमन मिल जाती है। लेकिन न ये वाजिब है न ही लाजिम। जहाँ उत्तरआधुनिकतावाद के प्रभाव में इतिहास को अक्सर एक और नैरेटिव की तरह देखा जाता है, वहीं कुछ विचारकों की माने तो उत्तर-आधुनिक विचार मार्क्स की देन है। ऐसे विचारकों के लिए यीशु के शब्दों में यही कहना मुमकिन है कि वे नहीं जानते वे क्या कर रहें हैं। जान भी रहे हैं तो उन विचारकों और उत्तरआधुनिक वैमर्शिकता का ग्रैंड नैरेटिव या मास्टर कोड एक ही तो है।  इसी विमर्श को बेहतर समझने के लिए डाइलेक्टिक की बेहतर, भौतिकवादी समझ बनाने की ज़रुरत पड़ने लगती है।

आप ही सोच कर देखे यदि इतिहास को कोई अंत या ध्येय नहीं है, तो पूँजीवाद मानव इतिहास का एक छोटा सा हिस्सा है बस। न यह खुद प्राकृतिक है, न इसके प्राकृतिकरण के लिहाज़ से दिए गए तर्क वाजिब हैं। ऐसे भी बहुत देर किसी कमरे में रह लेने के बाद, लगातार एक जैसी इमारत की सीढ़ी चढ़ लेने के बाद अक्सर दीवारों के रंग पर ध्यान नहीं जाता। हमारी अनुभूति सुन्न हो जाती है। इसी को राईफिकेशन (Reification) भी कहा जाता है। उदाहरण के तौर पर यथार्थवादी और आधुनिकतावादी कही जाने वाली रचनाओं को ले लीजिये। यथार्थवादी अपनी रचनाओं में यथार्थ को यथा उतारने की बात करते हैं। उनकी शैली में सामजिक शक्तियाँ, इंसानी रिश्ते, इनकी परस्परता, इनका द्वंद्व, लोक मूल्य पर अपने समय की संस्कृति का प्रभाव इत्यादि दोबारा निर्मित होती है। यथार्थ का ऐसी शैली में दोहराव साहित्य (और कला) का सबसे ज़रूरी ध्येय है। यह हमारी सुन्न अनुभूतियों को जागृत करने का है। लेकिन उन्नीसवीं सदी के अंत तक यथार्थवादी लेखन शैली भी रेइफाय (Reify) हो चुकी थी। उसकी आदत इस तरह लग चुकी थी जैसे अपने कमरों की लग गई है, इमारतों के पूँजीवादी ढाँचे की लग गई है। ऐसे में आधुनिक दौर के प्रयोग, अभिव्यक्ति की नए तरीके, अवाँ गार्द शैली इत्यादि भी यथार्थ को गढ़ने का ही ढंग था। हर दौर के कवि, रचनाकार, आर्टिस्ट इत्यादि इसी ध्येय से प्रयोग करते हैं। कहीं न कहीं उन्हें लगता है कि बीते समय की शैली से परिचितता, अनुभूतियों को समाज के मौजूदा द्वंद्व से मुखातिब नहीं कर पाते।

लेकिन इस सब में प्रश्न व्याख्या का है।  उत्तरआधुनिकतावाद व्याख्या से भयभीत एक तरह की कुंठा को आश्रय देने का काम करता है। यह जानकार हैरानी नहीं होनी चाहिए कि पूँजीवाद की भूमि उत्तरआधुनिकतावाद के लिए उर्वर है। यदि हर विमर्श की अपनी धारा है, तो हर धारा के अपने उपभोक्ता हैं। हर उपभोक्ता के लिए उनके पसंदीदा ब्रैंड का विमर्श है। चाहे कला हो, शोध हो, या व्याख्या ही। ऐसी ही वैमर्शिकता को देखते हुए इतिहासीकरण का प्रश्न महत्वपूर्ण हो जाता है। इस प्रश्न को नीत्शे की जीन्योलोजी या फुकौ की पुरातात्विक विधि के सम्बन्ध में भी देखा जा सकता है। लेकिन मार्क्स के एक कथन इतिहासीकरण के सम्बन्ध में अहम है – “किसी भी कालखंड में उन्हीं विचारों का प्रभुत्व रहता है, जो सत्ताधारी वर्ग के विचार होते हैं।”

ऐसे में बिलकुल मुमकिन है कि सामन्तवाद के चरम पर राजाओं का दिव्य अधिकार उस कालखंड के लोगों को प्राकृतिक लगता हो। मार्टिन लूथर को सभी रेफोर्मेशन के लिए बखूबी जानते हैं। चर्च के भ्रष्टाचार के खिलाफ लिखी गई उनकी 95 थिसेस की महत्ता का पाठ आज भी पढ़ाया जाता है। लेकिन 1524-5 के दौरान इसी मार्टिन लूथर ने जर्मनी में किसान युद्ध के खिलाफ एक पर्चा लिखा था।शीर्षक था “किसानों की हत्यारी, चोर भीड़ के खिलाफ” (Against the murderous, Thieving hordes of Peasants)। इससे पहले लूथर एक लेख में सत्ताधारी राजाओं को किसानों का बगावत का कारण बता चुके थें। उन्होंने लिख भी दिया था कि राजा अपनी विलासितापूर्ण जीवनशैली के कारण ही लोगों को लूटते हैं, लेकिन साथ ही उनका यह भी मानना था कि किसान अच्छे ईसाइयों की तरह नहीं पेश आ रहें हैं। अगले पर्चे में, जिसका ज़िक्र मैंने ऊपर किया है, वे एक कदम आगे बढ़ जाते हैं। वह किसानों के आन्दोलन को इश्वर और मनुष्य के खिलाफ पाप बताते हैं। सत्ताधारियों से इन किसानों पर कहर बन टूट पड़ने का आग्रह करते हैं। और तो और किसानों से हमदर्दी रखने वाले राजाओं को बाइबल के रोमन 13:1-7 का हवाला भी देते हैं, जिसके अनुसार सत्ता को प्रभुत्व हासिल है और सत्ता के खिलाफ किसी भी तरह जाना भगवान के खिलाफ जाना है। इस आधार पर मिल्टन का पैराडाइस लॉस्ट एक अतिरिक्त आयाम ले लेता है। यह आयाम अलेगरी को राजनीतिकता या बहुत हद तक ऐतिहासिकता भी देती है।

जहाँ उत्तर-आधुनिकतावाद के लिए अलेगरी केवल विमर्श तक केन्द्रित है, इतिहासीकरण की मार्क्सवादी पद्धति व्याख्या को विमर्श के कैदखाने से बाहर निकालकर, वैमर्शिक नकाब के पीछे की सत्ताधारिता और उसकी विचारधारा पर से आवरण हटाना है। यह उत्तर-आधुनिकतावाद की कैद ही है जो किसी भी रचना को विमर्श का केंद्र मान बैठता है। इतिहासीकरण का पहला कदम डायलेक्टिक्स को समझना है। जब जेमिसन “ऑलवेज हिस्टरीसाइज़” का सूत्र देते हैं, वह ऐसा किसी इतिहासिकतावाद की आड़ में नहीं कर रहे। बिना डायलेक्टिक्स के इतिहासीकरण को समझना भूल है। बेंजामिन के बौने को याद रखना ज़रूरी है2। इतिहास का परिणामस्वरूप मान किसी वस्तु या सिद्धांत का अध्ययन, अपने आप में अधूरा कार्य है। इस खेल में कठपुतली के पास हर कार्रवाई का जवाब है। दरअसल इतिहासीकरण की मांग नीचे छिपे इस बौने को उजागर करना है जिसके हाथ में कठपुतली की तार है। यही प्रथम और अंतिम आधार है। यहीं व्याख्या की मांग है।

हमें समझना होगा कि इतिहास किसी अंत की ओर अग्रसर नहीं है। सामंतवाद का अंत पूँजीवाद के हाथों होने की दुहाई देने वालों से भी बचना होगा। ज़रूरत पड़ने पर उन्हें सही भी करना होगा। सामंती व्यवस्था यदि आज अपना प्रभुत्व खो चुकी है तो फ्रेंच आन्दोलन जैसी कोई घटना उसकी अकस्मात वजह नहीं थी। यह भी कहना कि फोर्ड और रॉकफेलर के प्रयासों ने ही पूँजीवाद को स्थापित किया अधूरी व्याख्या होगी। ऐसा इतिहास को विभागीय तौर पर देखने की प्रवृत्ति के कारण है। हर कालखंड में उत्पाद के अपने तरीके होते हैं। यह कहना कि अभी दौर पूंजीवादी है एक अधूरा संक्षेपण है। विस्तार से कहा जाए तो उत्पादन की सामंती व्यवस्थाएं अब भी मौजूद हैं लेकिन अभी के दौर की मूल उत्पादक शक्ति की प्रवृत्ति पूंजीवादी है। हमारी आधारभूत संरचना पूंजीवादी है। संस्कृति और विधि की व्यवस्था, वैचारिक और राजनीतिक व्यवस्था, उत्पादन क्षमता का केंद्र और उत्पादकों के सम्बन्ध, यानी मानव समाज का आधार, उसकी संरचना का आधार पूँजीवादी है। भले ही देहातों की संस्कृति में सामंत आज भी हो, भले ही घरों की चारदीवारी के भीतर पितृसत्तात्मक सामन्तवाद हो – इनका होना पूँजीवाद की शक्तियों को कमज़ोर नहीं कर रहा, बल्कि इस समय की मूल व्यवस्था को, उसकी ताकत को और तूल दे रहा है।

लेखक कथित या अकथित तौर पर न सिर्फ अपना दौर बल्कि अपने दौर में अपना वर्ग हित और अपनी वर्ग चेतना भी लिखते हैं। व्याख्या पर ज़ोर देने का मकसद पाठकों में ऐसी प्रवृत्ति को उजागर करना था। यह निश्चित है कि इतिहास किसी वजह को पूरा करने के ध्येय से नहीं बढ़ रहा। भले ही इतिहास लिखने के पीछे एक मकसद हो, इतिहास का अपना कोई मकसद नहीं है। फिर व्याख्या पर इतिहास लिखने वालों के मकसद को हावी होने देना कहाँ तक उचित है? एक सवाल उत्तरआधुनिकतावादियों के तर्क से बचने का भी है। इतिहासीकरण या डायलेक्टिक्स के ज़रिये वैमर्शिकरण के भीतर छिपे सत्ता के पूँजीवादी चरित्र पर से आवरण भी हटाना है।

एक प्रकार का विमर्श एक कमरे की तरह है और पूँजीवाद की ईमारत में ऐसे कई कमरे हैं। किन्हीं ख़ास आयोजनों में इन विमर्शों को एक-दूसरे से संवाद करने की अनुमति है – ऐसे संवादों को कभी-कभी inter-disciplinary या muti-disciplinary का नाम दिया जाता है। पूरी ईमारत को देखने की प्रेरणा केवल चंद तकनीकी शब्दों तक सीमित रहती है, लेकिन देखने की एक भी कोशिश पर बंदिश होती है। ऐसे में उत्तर-आधुनिकतावाद इतिहास को एक और नैरेटिव के तौर पर देखने की बात करता है। पहले भी इसे एक विभागीय दर्जा देकर कुछेक अकादमिक खिलौनों के साथ कैद करने की तकनीक हमारे पास थी। लेकिन हमें इतिहास के बनने में लगे वैचारिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक व्यवस्थाओं, इच्छाशक्तियों यानि उत्पादन की क्षमताओं के आधार पर देखना होगा।

साफ़ है कि विमर्श की विचारधारा विचार को बाँध कर रखने की मौजूदा तकनीक है। व्याख्या को ऐसे तकनीकों से मुक्त करना होगा। यही कारण है कि सदैव इतिहासीकरण करने की जेमिसन की सलाह हमारे इस समय के लिए महत्त्वपूर्ण है। लेकिन हिस्टरीसाइज़ का पहला कदम डायलेक्टिसाइज़ है, और यह डायलेक्टिक मूलतः भौतिकवादी है। पदार्थवादी नहीं भौतिकवादी, मसलन उत्पादक क्षमताओं के आधार पर वैचारिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक एवं वैधिक व्यवस्थाओं और इच्छाशाक्तियों की प्रक्रिया का आकलन। व्याख्या को भी इसी आधार पर समझने का प्रयास करना होगा।

जेमिसन की अपनी रूपरेखा तीन सकेंद्रित वृत्ताकारों की सहायता से समझी जा सकती है। केंद्र से खींचा गया पहला गोला राजनीतिक इतिहास का है, मसलन इतिहास की पुस्तकों का इतिहास, जिसके अनुसार किसी एक घटना का सूत्र अतीत की किसी अन्य घटना में खोजा जा सकता है। दूसरा गोला सामाजिक वर्गों के बीच के संघर्ष की व्याख्या करता है। तीसरा और आखिरी, पूँजीवाद और सामन्तवाद जैसे उत्पाद के माध्यम का आकलन करता है।

साहित्य या सामाजिक विश्लेषण के दृष्टिकोण से पहला आयाम समझने के लिए किसी भी साहित्यिक या सांस्कृतिक कृति को उस दौर की अभिव्यक्ति के रूप में देख सकते हैं। हर दौर के कुछ ऐसे द्वंद्व होते हैं जिनका असल में कोई निवारण नहीं हो पाता, जैसे राष्ट्रीयता का राष्ट्रवाद और अन्य अस्मिताओं का राष्ट्रवाद, जैसे राष्ट्रवाद और पूँजीवाद जैसी कोई महाराष्ट्रीय शक्ति। ऐसे द्वंद्व का समाधान किसी भी हाल में एक नैरेटिव के तौर पर ही संभव है, साहित्य में इस तरह की इच्छापूर्ति या फंतासी का नैरेटिव मिलना आम बात है। लेकिन हमारा सामजिक और राजनीतिक जीवन भी इस तरह के फंतासियों से ही गढ़ा गया है। अपने साहित्यिक कार्यों में आमतौर पर लेखक इस असलियत को भाषा की शक्ल में सब-टेक्स्ट की तरह लिखते हैं। असल द्वंद्व का भले ही कोई समाधान न निकले, रचना की प्रक्रिया में कल्पनात्मक समाधान का आविष्कार होता है। यह निश्चित है कि यह समाधान विचारधारा में डूबा हुआ होगा। विचारधारा यहाँ सामाजिक द्वंद्व को दो धुरों के बीच के विरोधाभास के रूप में प्रस्तुत करता है। हमें प्रतीकों, संकेतों, बिम्बों और संरचनाओं का आकलन कर ऐसे कल्पनात्मक विरोधाभासों की व्याख्या करनी है।

दूसरे गोले में वर्ग-संघर्ष, मसलन वर्गों के बीच के विरोध के सम्बन्ध, को उजागर करने की बात है। आमतौर पर रचनात्मक कार्यों में वार्गिक हिंसा सत्ताधारी वर्ग की विचारधारा के रूप में दबी होती है। विरोधी भाष्य को दबाने का प्रयास नया नहीं है। बेंजामिन के शब्दों में इतिहास को उसके खिलाफ पढ़ना यही तो है। धारा के विपरीत पढ़ने का अर्थ अब तक सत्ताधारी रहे विजेताओं की विचारधारा के खिलाफ पढ़ना है। हर पराजय अगले संघर्ष का बिगुल है, पराजय की कविताएँ विजयगीतों में आंशिक रूप से ही सही अंकित ज़रूर हैं। इतिहासीकरण इसी को उजागर करने की विधि है। इसी विधि के लिए कभी बिम्बात्मक अध्ययन तो कभी मनोविश्लेषण, इतिहास से विचारधारा का आवरण किसी भी तरह की व्याख्या से हटाया जा सकता है। ऐसी व्याख्या में हमारा मुख्य उद्देश्य इतिहास के विश्लेषण एवं स्वयं इतिहास को सत्ताधारी बुर्जुआ ताकतों से मुक्त करना है। वर्तमान को ऐसी ही व्याख्या आगे बढ़ने की शक्ति दे सकती है, अन्यथा अतीत के हर युद्ध की तरह यहाँ भी विजेताओं की सेना में पराजित ही सैनिक होंगे।

तीसरा और आखिरी गोला इतिहास का है। सामंती सामजिक तत्वों के मौजूदा अस्तित्व से हम कतई अनभिज्ञ नहीं हैं। हम जानते हैं कि सामंतवाद से पूँजीवाद तक की, या इतिहास के एक पन्ने से दूसरे तक की यात्रा लकीर की फकीरी में मुमकिन नहीं है। जेमिसन के अनुसार यहाँ शैली की विचारधारा पर भी विवेचना ज़रूरी है। अंत में शैली की विवेचना से ही रचना के भीतर दबे अलग-अलग सामाजिक संरचनाओं को प्रत्यक्ष किया जा सकता है। दरअसल किसी भी शैली की अपनी विचारधारा होती है जो कि रचना के कंटेंट की विचारधारा से अलग व आज़ाद होती है।

इन तीन आयामों को समझ कर किसी रचना को पढ़ना, या स्वयं इतिहास को ही समझना जेमिसन के अनुसार इतिहासीकरण का मूल है। इतिहास को यदि “जो हुआ वो वैसे क्यों हुआ” समझने की प्रक्रिया मान लें तो इतिहास के प्रभावक्षेत्र को समझा जा सकता है। इतिहासीकरण का अर्थ केवल इतिहास का अध्ययन नहीं है। ऐतिहासिकता केवल किसी सिद्धांत के इतिहास का बखान नहीं है। यह किसी भी कृति का मौजूदा समय के अनुसार, उसकी भौतिक और मौलिक ज़रूरतों के अनुसार वर्ग-संघर्षों के मद्देनज़र व्याख्या करने की विधि है। यदि इसके बाद भी इतिहास को उत्तर-आधुनिकतावाद की आड़ में एक और नैरेटिव की तरह पढ़ेंगे, तो यह हमारी भूल होगी।

नोट्स :   

  • 1(रियल, सिंबॉलिक और इमेजिनरी के सिद्धांत पर इसी लेख में और गहराई से बात नहीं की जा सकती। संभवतः अगली कड़ी में।)
  • 2(बेंजामिन अपने लेख Theses on the Philosophy of History में बौने और कठपुतली के खेल का अद्भुत दृश्य देते हैं।)

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उपांशु हिंदी के चर्चित कवि और अंग्रेज़ी के अध्येता हैं। ‘ठहरना-भटकना’ शीर्षक से उनका एक काव्य-संग्रह प्रकाशित है। इस आलेख के साथ वो इंद्रधनुष पर पाश्चात्य दर्शन संबंधी एक कॉलम लिखना शुरू कर रहे हैं, जो ‘पछिया हवा’ शीर्षक के अंतर्गत प्रकाशित होंगे। इंद्रधनुष पर उनके पूर्व-प्रकाशित कार्यों के लिए यहाँ देखें: उपांशु 

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