समीक्षा ::
नैतिक
विनय शुक्ला की While We Watched एक ऐसी डॉक्यूमेंट्री है जो पत्रकारिता, फ़िल्म-मेकिंग और सामाजिक समीक्षा तीनों मायनों में बहुत महत्वपूर्ण है। जिस दौर में बहुत आसान है ख़बरों के नाम पर चिल्लम-चिल्ली, स्तुतिपाठ और औसत – सामान्यत: दिखाना, उस वक़्त हम गवाह बनते हैं एक ऐसी टीम के प्रयासों का जो अपनी सुविधा छोड़ लगी हुई है असल मुद्दे और असल सवाल, जनता के बीच से लाने में। एक तरफ़ सौरभ शुक्ला जैसे संवाददाता के काम में ज़मीनी चुनौतियों जैसे जान का रिस्क, गोपनीयता, सत्य की तह तक जाना आदि को फ़िल्म में जगह दी गयी है वहीं न्यूज़रूम में हर एपिसोड को तैयार करने के तनाव को भी कैप्चर किया गया है।
फ़िल्म-मेकिंग के पैमाने पर
इस फ़िल्म पर काम उस दौर में शुरू हुआ था जब ना रवीश को कोई पुरस्कार मिला था और ना ही उनके चैनल की स्थिति बहुत बुरी थी। विनय का विज़न ही है जो आने वाले समय की त्रासदी, पतन, रवीश के काम और जीवन में उतार और चढ़ाव दोनों ही परख पा रहा था। निर्देशन और एडिटिंग एक बेहद सरल और यथार्थपूर्ण जीवनी को नाटकीय बना देते हैं और फ़िल्म में आपको किसी फिक्शन के प्लॉट की तरह ही बहुत से क्लाइमैक्स (तनाव के पॉइंट्स)) नज़र आएंगे। फ़िल्म अगर सबसे ज़्यादा किसी पैमाने पर उत्कृष्ट है तो वह है डायरेक्टर विनय का विज़न जिसमे सामान्य में भी नाटकीय एंगल की समझ और आम में भी ख़ास के वजूद की पहचान मौजूद है। फ़िल्म को बड़ी आसानी से सिर्फ़ और सिर्फ़ रवीश के हीरो-वरशिप या स्तुतिगान का नैरेटिव बनाया जा सकता था, पर रवीश को केंद्र में रखते हुए विनय एक विचार को, पत्रकारिता और नागरिकता के मूल्यों को हीरो बनाते हैं। ज़रूरी बात ये कि सिनेमा का एक मूल नियम है कि बताने से ज़्यादा दिखा कर बात कही जाए। डॉक्यूमेंट्री में यह करना एक कठिन चुनौती है क्योंकि इसमें आपके पास कहानी नहीं है, सिर्फ़ विमर्श है, एक विचार है जो डायलॉग पर निर्भर करता है। विनय अपना विज़ुअल नैरेटिव बनाने के लिए अलग अलग चैनलों और एंकर्स के क्लिप्स लेते हैं, और उन्हें देश के मौजूदा हालात के समकक्ष रखते हैं ताकि अपनी बात सीधी ना कह कर प्रतीकात्मक ढंग से इंगित की जाए। ऐसे में वह सीधे उपदेश देने से बच जाते हैं और अपनी बात कह कर नहीं, दिखा कर बताते हैं। इस तरह फ़िल्म निर्माण की मूल संरचना से भी समझौता नहीं होता। जैसे शपथ समारोह में राष्ट्रगान के क्लिप का इस्तेमाल बहुत जीवंत ढंग से हुआ है। मौजूदा सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों के समक्ष आप भारतीय नागरिक होने की हैसियत से रोंगटे खड़े होना अनुभव करते हैं। रवीश की चुनावी यात्रा (चुनाव पर रिपोर्टिंग) को कैप्चर करते कुछ तीन-चार दृश्य बिल्कुल सिनेमाई उत्कृष्टता का उदाहरण हैं।
पत्रकारिता में क्राइसिस
रवीश को मैग्सेसे पुरस्कार मिलने से पहले नेपथ्य में एक आवाज़ सुनाई देती है – “In speaking truth bravely yet soberly to power, that journalism fulfils its noblest aim to advance democracy.”
विनय का इरादा भारतीय मुख्य धारा के मीडिया चैनलों के खोखलेपन को दर्शाना है। उत्तर सत्यवाद (Post-Truth) के दौर में, जहाँ सच नहीं, सच का भ्रम मात्र न्यूज़ बहसों की पुड़िया में पैक कर बाज़ार में बेचा जा रहा हो, वहाँ जानकारी की आवश्यकता तक को जन चेतना से मिटाने की प्रक्रिया काम कर रही है। इस प्रक्रिया को ही विनय अपनी डॉक्यूमेंट्री के केंद्र में रखते हैं। यूँ तो इसमें स्पॉइलर जैसा कुछ नहीं है, पर इससे ज़्यादा बोलना फ़िल्म के विस्तृत कंटेंट को कमतर रूप में प्रस्तुत करने जैसा होगा।
पूंजीवाद की जीत
ये कहानी (अगर कहानी कहें तो) वर्ल्ड-ऑर्डर की कहानी है। क्रूर ताकतों के काम करने के तरीके की कहानी है। कैसे एक संगठन को धीरे-धीरे एक योजनाबद्ध तरीके से कमज़ोर कर के उसे आर्थिक और वैचारिक मोर्चों पर अपंग बनाया जाता है। और कैसे सच को एक बड़े व्यापारी के हाथों में आत्मसमर्पण करने के लिए अंततः विवश किया जाता है। इसमें हाथ सिर्फ़ व्यवस्था का या उससे जुड़ी शक्तियों का नहीं होता, बल्कि तकनीक और बाज़ारवाद के इस दौर में निजी मीडिया हाउस तक आक्रामकता को नया नॉर्मल बना देने की ताक़त रखते हैं और विनय का काम इसी प्रक्रिया का जीवंत प्रदर्शन करता है। चैनल के संकट के समय रिपोर्टर सौरभ, जिन्हें बड़े चैनल से एक बड़े पैकेज पर बुलावा आता है, वह रवीश को कहते हैं – “मैं बहुत संघर्ष कर के रिपोर्टर बना हूँ। It’s a very emotional thing. बहुत सोचे सर, उसको मना कर दिया हमने।” रवीश जवाब में एक हल्की मुस्कान देते हैं। मुस्कान जो बवंडर में भी जल रहे एकमात्र दीये की उम्मीद को दर्शाता है। एक क्लिप में रवीश कहते हैं – “बिना intellectual capital के क्या न्यूज़रूम हुआ?” ये मीडिया के बदलते प्रारूप पर अभी के समय में सबसे बड़ी टिप्पणी है।
“हर युद्ध जीतने के लिए नहीं लड़ा जाता। कुछ लड़ाइयाँ ये बताने के लिए भी लड़ी जाती हैं कि कोई था जो लड़ रहा था।” (मैग्सेसे पुरस्कार समारोह में रवीश के भाषण से एक अंश)
विदेशों में लागातर चल रही इस डॉक्यूमेंट्री को भारत मे किसी डिस्ट्रीब्यूटर का न मिलना, विनय और उनकी टीम के वैचारिक स्टैंड को खुद ही सत्यापित करता है। While We Watched अपने दौर का बड़ा बयान है। ये तय है कि जब कभी भी पीछे मुड़ कर इस दौर को देखा जाएगा, इस दौर का इतिहास देखा जाएगा, ये फ़िल्म सबसे यथार्थवादी दस्तावेजों में से एक मानी जाएगी।
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नैतिक साहित्य के विद्यार्थी हैं और अंग्रेज़ी-हिंदी दोनों भाषाओं में काम करते हैं। उनसे nkwazir00@gmail.com पर बात की जा सकती है।