ख़त ::

प्रिय पाठक

मुख्य विमर्श यह है कि देश में फ़ासीवाद है. यह बात खुल कर 2018 में स्थापित हो गयी, जो ढँका छिपा था वह बार-बार सुनियोजित घटनाओं से ज़ाहिर होता रहा है. फ़ासीवाद क्यों है, यह भी सोचा जाना चाहिए, सोचा जा रहा है. कई बार मुझको लगता है कि देश में जो घट रहा है और जो षड्यंत्र राजनीतिक दल, बड़े व्यापारी और नीति निर्धारक कर रहे हैं, सब सीधा-सीधा थ्योरी की क्लास से निकल बाहर आ रहा है और इतनी सरल सीधी बातों को भी देश का एक बहुत बड़ा हिस्सा अनदेखा कर दे रहा है. दो उदाहरण दे देता हूँ. फ़ूको की शुरुआती कक्षा में पढ़ाया गया था कि अगर जनता को अपने वश में रखना है तो बल-प्रयोग से बेहतर है, सूचना केन्द्रों को अपने वश में कर लेना. दूसरे, मार्क्स हमेशा बेस और सूपरस्ट्रक्चर की बात करते हैं. ट्रम्प के और अपने यहाँ के वर्तमान प्रधानमंत्री के प्रचार अभियान और कार्यकाल के दौरान जिस तरह फ़ेक न्यूज़ का उभार हुआ (दूसरी पार्टियों ने अब सीखना शुरू कर दिया है और बहुत तेज़ी से – देर आए दुरुस्त आए की तर्ज़ पर), वह दरअसल सूचना केन्द्रों और सूचना की आवाजाही पर नियंत्रण की कोशिश ही है – यह भी अब बहुत पुरानी बात हो चुकी. जड़ में क्या है, इसका पता सरकार के चार साल में लिए फ़ैसलों, बनी नीतियों और योजनाओं और बैंकों , रोज़गार और अर्थव्यवस्था की स्थिति से चल जाता है ( जो वर्ल्ड बैंक रिपोर्टों की बात करते हैं उन्हें वर्ल्ड बैंक की पारदर्शिता पर थोड़ी पड़ताल करनी चाहिए).

आपको लग सकता है कि कोशिशें हो रही हैं. जो दक्षिणपंथी हैं, उनकी तरफ़ से भी और जो ख़ुद को उदारवादी कहते हैं उनकी तरफ़ से भी – सुधार योजनाएँ, सस्ता इंटर्नेट, नयी हाईटेक यूनिवर्सिटी, स्मार्ट शहर – काग़ज़ पर और इस तरह जैसे एहसान हो, इस तरह जैसे ख़ैरात हो – और प्रतिरोध भी हमारा यहीं मूलभूत तक जाकर ख़त्म हो जाता हुआ – शौचालय बनवा लेने से देश की सब समस्यायें ख़त्म हो गयीं ,पटेल की मूर्ति के बिना हमारी विदेश नीति फ़ेल थी, और यह सब कर देने से सरकार की ईमानदारी का फ़ैसला हो गया.

बहरहाल, राजनीति से फ़ासीवाद चूता हुआ बाक़ी जगह भी फैला है, इस ख़त का मूल मज़मून यही है.
पूँजीवाद ही है वह रीढ़ की हड्डी, जिसकी फ़ासीवाद एक बाँह है, और वैसे ही औसतता भी- पूँजीवाद से जुड़ी हुई और फ़ासीवाद से भी जुड़ी हुई. सभ्यता का इतिहास लिखते हुए शायद इक्कीसवीं सदी के इन पहले अठारह-बीस सालों को वैचारिक शून्यता की तरफ़ बढ़ते हुए सालों की तरह देखा जाएगा – और इसके साथ औसतताओं के उत्सव की बात भी होगी. अरुण कमल एक जगह लिखते हुए कहते हैं कि कविता से ऊपर क्या है – फिर उत्तर देते हैं, विचारधारा. मुझको भी लगता है इसके बिना जो होगा वह औसतता की तरफ़ भी जाएगा – स्टैंड ज़रूरी हैं. लेकिन क्या वह लिए जाते हैं?ऐसा ही दूसरा पेचीदा सवाल औसतता का है- इसमें सम्भवत: सोशल मीडिया का भी बड़ा योगदान है- साथ ही यह भी कि जज बन कर कौन तय करेगा कि क्या औसत है, क्या नहीं? कोई भी हर मिनट औसतता से ऊपर नहीं हो सकता. वैसे ही सम्भव है कि मैं औसत कवि रहूँ और बेहतरीन पाठक हो जाऊँ.

औसतता की संतान है वह “ग्रे इलाक़ा” जो सब जगह फैल गया है – इसके पहले यह क्षेत्र इससे बड़ा कभी नहीं था. आप नहीं जानते कौन क्या है , क़िससे क्या उम्मीद करनी है अगर करनी ही है तो – यह सब नहीं पता चलता. तो हो सकता है आप ख़ुद को एक ऐसे कमरे में पाएँ जहाँ एक कवि दूसरे कवि से किसी कार्यक्रम में बुलाए के लिए जुगाड़ कर रहा हो- हो सकता है आप अपनी नींद से जागें और आप एक ऐसी सभा में बैठे हों जहाँ आपके लिखे से ज़्यादा आपके दिखे का सम्मान हो. प्रिय पाठक, कोई आपकी तारीफ़ करे तो आप ख़ुश मत होईए, आप डर जाइए. अगर कोई ऐसा व्यक्ति जिसे आप ठीक नहीं समझते, आपसे ईर्ष्या करे, तो आप डर जाइए कि कहीं आप उस जैसे तो नहीं होते जा रहे. यह भी सही है कि बिना गुनाह किया, गुनाह चरित्र खुलता नहीं. एक सवाल यहाँ यह भी बन जाता है कि इस शुद्धता की उम्मीद साहित्यिकों से ही क्यों – डॉक्टर रक्षक होते हैं, इंजीनियर निर्माता हो सकते हैं – ईश्वरत्व तो कवि को ही प्राप्त है – फिर क्यों ना क्रॉस उसका इंतज़ार करे? क्यों एक पूर्व कवि की आत्मा कहीं से आकर उससे ना पूछे कि उसकी पॉलिटिक्स क्या है?

शायद औसतता-रीढ़हीनता- और यह जो स्याह है, इनके उत्सवों के अब सब पर फैल जाने का समय आ गया है – फ़ासीवाद और पूँजीवाद शायद इस तरह ही काम करते हैं. मैं समस्यायें गिनाता रहा हूँ पूरे ख़त में. आप कहेंगे कि मैं इन दिक़्क़तों और इनकी महीन रिलेटिविटी से जूझने के लिए उपाय क्या बता रहा हूँ तो मैं चुप हो जाऊँगा. लेकिन फिर भी मेरी समझ कहती है कि किसी नयी निर्मिति, किसी नए तंत्र के ज़रिए ही इससे लड़ा जा सकता है और मेरी समझ से वह नया तंत्र मार्क्सवाद से ही शुरू होगा. लेकिन मुझको यह भी लगता है कि मार्क्सवाद के जो भारतीय संस्करण हैं वहाँ भी पूँजीवाद और फ़ासीवाद के कीड़े अच्छी तरह लग चुके हैं. और ये संस्करण अब उसी तरह के हैं जैसे कैन्सर के इलाज के लिए कीमोथेरेपी – अंत में क्या होगा कोई नहीं जानता और पूरी तरह ठीक होना तय नहीं – विकल्पों का ना होना ही उनके बने रहने का कारण है – बाक़ी दुश्मन तो बड़ा है ही. इन कीड़ों को इलीटिज़म और पॉप्युलिज़म का नाम भी दे सकता हूँ – कम से कम सोशल मीडिया और कविता-साहित्य के परिपेक्ष्य में. फिर भी उम्मीद भी करनी हुई तो फ़िलहाल तो यहीं है.

मिलन कुंदरा से घोर वैचारिक असहमतियाँ हैं और उनके लिखे अधिकांश से विरोध रहता है. फिर भी उनकी एक किताब का एक छोटा हिस्सा याद आता है. उनका एक पात्र दूसरे के सामने एक प्रस्ताव रखता है. वह चाहता है कि सामने वाला दो में से एक चुने – दोनों विकल्प कुछ यूँ हैं – आप अपने समय की सबसे सुंदर अभिनेत्री के साथ सो सकते हैं, अगर आप इस बारे में किसी से कुछ ना कहें – या फिर आप अपने समय की सबसे सुंदर अभिनेत्री के साथ सड़क पर हाथ पकड़े घूम सकते हैं पर उसके साथ सो नहीं सकते- दोनों में से आप क्या चुनेंगे. मुझको लगता है कि जीवन इन्हीं दो में से एक के चुनाव के बारे में है.

जो बीत गया उसका कुछ नहीं किया जा सकता. जो आने वाला है उसके लिए लक्ष्य निर्धारण बहुत आवश्यक है. आने वाला साल ही निर्णायक युद्धों का साल है – यह कहने के लिए मुझे भविष्यवेता होने की ज़रूरत नहीं है. जो नष्ट हो रहा उसे बचाने की ज़रूरत है, जो नष्ट कर रहा है, उससे दूरी बरतने की – पेचीदगियाँ उलझाएँ बनिस्पत इसके हम उनसे जूझते रहें.

आपने पिछले एक साल में बहुत प्रोत्साहित किया. हमलोगों ने जो थोड़ा बहुत सोचा, उसका समर्थन किया, उसकी बेहतरी के लिए सुझाव दिया और जो ग़लत था उसको सुधारा भी. आने वाले साल से यही चाह है कि इंद्रधनुष फैल रहे स्याह से लड़ता रहे और अपने स्टैंड को और बेहतरी से आगे करता रहे. ग़लत की आलोचना के साथ हम अपनी आलोचना भी करते रहें, अपने भीतर की ग़लत चाहों, औसतताओं और स्याह से लड़ते रहें. चाहता हूँ इसीलिए होता हूँ, इतना ही काफ़ी हो.

बहुत प्रेम
अंचित

[पाठकों,  इन्द्रधनुष से संबंधित सभी सुझाव, सहयोग, प्रतिक्रिया, आप हमें editor.indrdhanush@gmail.com पर भेज सकते हैं. इन्द्रधनुष के सम्पूर्ण टीम की ओर से आप सभी को नव वर्ष की बहुत शुभकामनाएँ. ] 

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