प्रतिसंसार ::

आदित्य शुक्ल

आदित्य शुक्ल

[प्रियंबदा प्रिय.]
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इमराना कहती थी कि सब एक न एक दिन बिछड़ जाते हैं. एक दिन मैं उसपर चिढ़ गया. वीरू तो बचपन का दोस्त है, सब बिछड़ जाएं वो न बिछड़ेगा.

कुछ दिन पहले वीरू की चाची का कैंसर से देहांत हो गया. वीरू शहर छोड़कर चला गया. पर वह बिछड़ा तो नहीं न, पर क्या जाने कल का. फिर भी मैं इमराना की बात को पूरा सच नहीं मानता. हम सब एक समानांतर विश्व में जीते हैं. एक ही समय में अलग-अलग विश्व में. वीरू का विश्व बदल गया. मेरा विश्व बदल गया. प्रियम्बदा, तुम्हारा विश्व भी बदल गया. एक समय में जो व्यक्ति ठीक हमारे सामने होता है असल में सिर्फ वही अस्तित्व में होता है. जैसे अभी इसी वक़्त जर्मनी के म्युनिच् शहर का जीवन हमारे लिए तो अस्तित्व में ही नहीं है.मैं तुम्हारे लिए, तुम मेरे लिए या वीरू के लिए हम दोनों अब हैं ही नहीं. स्मृति में भी हमारी धुंधली सी तस्वीरें ही बची होंगी. और अगर कहीं पर मिल गए तो विश्वास ही न होगा और फूट फूटकर रोने लगेंगे जैसे मिट्टी का कोई घर भहराकर गिर जाता है.

वीरू के चाचा मिले थे जब मैं गांव गया. बोलने लगे दिल्ली आया था. सोचा तुमसे मिल लूं. लेकिन तुम भी शायद स्वस्थ नहीं थे और मैं भी आलस में रह गया. चाचा मुझसे कभी नहीं बोलते थे पहले. चाची के जाने के बाद वे अजीब हो गए हैं. बोलते कुछ हैं और बोलने का अर्थ कुछ और ही होता है. जब वे कहते हैं कि तुमसे मिलना था तो लगता है कह रहे हूं बहुत अकेला पड़ गया हूं यार. मुझे हट्टा कट्टा अकेला छोड़कर चाची क्यों चली गयी, बताओ न कोई.

मैं आँखे बन्द करता हूँ तो चाचा एक पगडण्डी पर गुजरते हुए दिखते हैं. पीछे से. पीछे से उनकी पीठ पर जैसी उदासी और अकेलापन छपा लिखा हो. आँख बन्द करता हूँ तो वीरू घर जाते दीखता है. वीरू की आँखों में पसरी निराशा देखता हूँ. उसे सामान पैक करते देखता हूँ. सामान पैक करते बीच बीच में वो अपने हाथ कभी सिर झटक देता है. सब कुछ देखना रैंडम है. सब दृश्य रैंडम है. जबकि उनमे से अधिकतर दृश्य मैंने अपनी आँखों से तो देखे ही नहीं थे. आँख बन्द करता हूँ तो तुम दिखती हो. सब कुछ ऐसे दीखता हैं जैसे हो ही नहीं. है भी क्या?

तुम्हारी कोई तस्वीर कभी देखी है मेरी नजर से? देखना.

शाम का कोई समय है. एक वृद्ध व्यक्ति अपने सर पर रखकर टोकरी भर बिल्लियाँ ले जा रहा है. कॉलोनी में जगह जगह बच्चे इकठ्ठे हो गए हैं कुछ खेलने, कुछ देखने, कुछ बस होमवर्क से खुद को बचाने के लिए. क्या यह बिल्लियाँ बेचने का मौसम है? तुम्हें बिल्लियां कितनी पसन्द हैं प्रियंबदा?

अगर यह सब कुछ एक तस्वीर, एक स्मृति में जज़्ब है तो भी झूठ है?

प्रिय प्रियम्बदा. प्रियम्बदा प्रिय. प्रिय प्रिय.

हस्ताक्षर नहीं.

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आदित्य शुक्ल कवि-गद्यकार हैं.  उनके कॉलम ‘प्रतिसंसार’ के अंतर्गत चिट्ठियों की एक श्रृंखला प्रस्तुत की जा रही है. उसी क्रम में यह दूसरी चिट्ठी है.  ये चिट्ठियाँ प्रेयसियों को और अपने वजूद को सम्बोधित हैं – आप चाहें तो ऐसा मान सकते हैं. आदित्य से shuklaaditya48@gmail.comपर बात हो सकती है. फीचर्ड तस्वीर –  एड्वर्ड मंच की ‘मेलंकलि’.  पहली चिट्ठी यहाँ से पढ़ी जा सकती है- हल्कापन और भार

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