फ़िल्म समीक्षा::
सैयद एस. तौहीद

फिल्मकार रॉबर्ट  ब्रेसां को सिनेमा का संत कहा जाना चाहिये जिनकी कविताई अभिव्यक्ति Au Hasard Balthazar को मर्मस्पर्शी सिनेमा  का ताज़ जाएगा. यह फिल्म गधे अथवा गर्दभ समान निरीह प्राणी के जीवन का भावपूर्ण डॉक्युमेंटेशन  करने में सफल रही थी. उस पशु के जन्म से लेकर अन्तोगत्वा मर जाने तक की यात्रा को इसमें समाहित करने का महान काम किया गया. बल्टजर सारे समय स्वयं की सीमित गरिमा अर्थात मौन रहने के बंधन में जीता रहा, उसे मालूम था कि जिस जीवन को वो जीता रहा, उसको लेकर वह कुछ भी नहीं कर सकता था . जीवन को लेकर यह स्वीकारोक्ति दरअसल उसकी योग्यता का परिचय दे रही थी, जिसका उसे संज्ञान था. बल्टजर को हास्यास्पद प्राणियों की जमात का नहीं कहा जाना चाहिए क्योंकि वो ना बोलना जानता था, ना ही गाना. वो चार पांवों वाला ‘इंसान’ नहीं था. सपाट शब्दों में कहूँ कि ‘बल्टजर’ एक तुच्छ व निरीह गधा था. उसकी जीवन यात्रा को देखें… सबसे पहले हम उसे  नवजात शिशु के रुप में देखते हैं, जोकि लड़खड़ाते कदमों के साथ अभी-अभी खड़ा होना सीख रहा है .  ख़ुशी के पलों में बच्चों ने पशु के माथे पर पानी की बूंदे छिड़ककर उसका बपतिस्मा सा कर दिया. दृश्य में महत्वपूर्ण संकेत यह है कि हालांकि चर्च के मतानुसार सिर्फ़ इंसान ही जन्नत में दाखिल किए जाएंगे, फ़िर भी खुदा ने बाकी प्राणियों के लिए भी ज़रूर जगह बनाई होगी. एक दिन बल्टजर भी  ईश्वर की उस दुनिया का हिस्सा होगा. बल्टजर का बचपना फ्रांस के दूरगामी ग्रामीण प्रांत में कट रहा होता है. कहानी का बड़ा अंश यहीं घटित होता है . गांव के लोग बल्टजर को पाल-पोस कर बड़ा कर रहे हैं, कई एक दफा वो एक ही जगह लौट-लौट कर आया है ,  जिनके सम्पर्क में उस निरीह पशु का जीवन कट रहा होता है , उनमें से  कुछेक ही परोपकारी हृदय वाले थे. मसलन वो शराबी जो अपनी तमाम खराबी के बीच बल्टजर के प्रति करुणा भाव भी रखता था.

मेरी (एना वाईजेम्सकी ) कहानी के प्रोटागनिस्ट (बल्टजर ) की सबसे पहली मालकिन थी. इस मासूम पशु का नामकरण उसी ने किया था. मेरी के पिता वहीं किसी स्थानीय विद्यालय में शिक्षक थे. जेक्स (वाल्टर ग्रीन ) व मेरी दोनों बचपन में साथ खेलते थे, गुजरते वक्त के साथ उनके बचपन का साथ जवानी के प्यार में तब्दील हुआ. जेक्स ने मेरी से वादा किया कि एक दिन दोनों शादी कर लेंगे. लेकिन घटनाएं तो कुछ अलग विचार लेकर चल रही थीं . जेक्स की मां चल बसी, ग़मज़दा पिता ने अपनी खेती-बाड़ी  अपने भरोसेमंद मेरी के पिता (फिलिप एजलीन)  के जिम्मे सौंप गांव-घर त्याग दिया. मेरी के दिल में उस पशु के लिए बहुत प्रेम-भाव था. वह बल्टजर के लगाम को बड़े शौक से फूलों से सजाती, लेकिन वह उस  मासूम पशु को बेवजह सताने वाले शैतान बच्चों को रोकने के लिए कुछ नहीं कर पाई . जेराड बच्चों की इस उद्दंड टीम का लीडर था. मेरी के पिता घमंडी व्यक्ति थे,  पर वह खेती-बाड़ी की जिम्मेवारी को बड़ी ईमानदारी से लेकर चल रहे थे. दुश्मनों की अफवाह कि वह अमानत में खयानत कर मालिक से दगा कर रहे हैं ,पर उन्होंने इसपर ध्यान नहीं दिया. ईमानदारी साबित करने लिए कोई भी दस्तावेज़ पेश करना उन्हे पसंद नहीं था.

मेरी की मां असहाय सी थी कि उसके पति की जिद ने घर को तंगी की ओर धकेल दिया था . इन हालात में बल्टजर को भी अपना घर गंवाना पड़ा, स्थानीय बेकर उसका मालिक हो गया. बदकिस्मती देखिए कि उद्दंड जेराड उसी घर का बेटा था. बल्टजर को अक्सर उसी निर्मम संगत में रहना पड़ा. नान को ग्राहकों के घर पहुंचाने के लिए  जेराड उसे अपने साथ ले जाता था. निर्दयी जेराड पशु के साथ निर्मम बर्ताव करता, हर समय उसे अपमानित करता. इतना सारा दुख झेलने बाद जाहिर था कि बल्टजर की हिम्मत टूट जाती, आखिर में वो अपनी जगह से हिलता एकदम नहीं  था. सनकी जेराड को इस पर भी सुकून नहीं मिला. उसने पशु को चलाने के लिए उसकी पूंछ को अखबार के टुकडे से जोड़ आग जलाने का उपाय खोज निकाला.

जेराड से मिले निरंतर अपमान व निर्दयता ने पशु को अधमरा कर दिया. मतलबी बेकर बेकार से हो चुके बल्टजर को फेंक देने की बातें करने लगा. जीवन-मरण की इस घड़ी में शराबी अरनॉल्ड (जीन गिल्बर्ट )उसकी रक्षा को आया. उसने उस  असहाय पशु को आततायी जगह से मुक्त कर नयी जिंदगी दी. बल्टजर के जीवन में स्वर्णिम दिन आए, उसे सर्कस में काम मिला. गणितज्ञ गर्दभ के रुप में उसका वक्त कट रहा था. पर वरदान में मिले ये दिन लेकिन जल्द ही ख़त्म हो गए.  एक सन्यासी के हाथ से गुजरते हुए उम्मीद की तालाश में भटकते हुए फिर से अपने पुरानी जगह पहुंचा. उसने इसी जगह से अपनी जीवन-यात्रा के आरम्भ को पाया था.  मेरी के पिता अभी भी वहीं काम कर रहे थे, इत्तेफ़ाक से मेरी भी वहीं थी. लेकिन अफसोस! यह सब भावनात्मक अंत को प्राप्त नहीं हो सका. मेरी का व्यक्तित्व कमजोर किस्म का था, ईमानदार जेक्स मेरी को संगिनी बनाने का पुराना वायदा लेकर आया. लेकिन मेरी ने प्रेम भरे प्रस्ताव को अस्वीकार कर उद्दंड जेराड का हाथ पकड़ा. जेराड उसके साथ खराब बर्ताव कर रहा था, लेकिन फिर भी वो उसके एटीट्यूड पर जान दे रही थी. बल्टजर की आँखों से हम ऐसी दुनिया को देख सकते हैं , जहाँ मिठास की उम्मीद बेमानी है. लोगो में चरित्र का अपार अभाव है. मैंने यही देखा.

किंतु बल्टजर ने क्या देखा ? ब्रेसां की सृजन दक्षता देखिए, वो एक पल नही रचते जिसे सही मायने में पशु की प्रतिक्रिया  शॉट्स कहा जाता. दूसरा कोई फिल्मकार होता तो पशु की मूवमेंट पर फोकस करता, खुर का घसीटना एवं आंखो को गोल गोल घुमाना नोटिस होता. लेकिन बल्टजर सिर्फ़ चलता या एक जगह खड़ा रहना जानता था. उसमें स्वयं के अस्तित्व की बड़ी पहचान नज़र आई, गर्दभ होने के आजीवन बोझ का उसे संज्ञान था. स्वयं के बोझ रूपी जीवन को उठाना या नहीं उठाना ही उसका विकल्प रहा, ग़मज़दा होना या नही होना या फिर खुश होना या नहीं होना भी…सब उसके दायरे से बाहर की चीजें रही जिन पर उसका कोई नियंत्रण नहीं था. अभिव्यक्ति के नाम पर उसे बस रेंकना मिला, यह कोई मोहक आवाज़ नहीं हुआ करती.

लेकिन गधे समान निरीह पशु को केवल इतना आता है. बल्टजर के रेंकने में बदसूरती भरी पड़ी थी, लेकिन दुनिया के समक्ष खुद को अभिव्यक्त करने का दूसरा ज़रिया भी कहाँ था ! उस मासूम फरिश्ते को बोलने की कुछ तो संतुष्टि ज़रूर हासिल हो सकती थी. हम दर्शकों में  ‘बल्टजर’ के हरेक अनुभव के प्रति गहरी संवेदना उत्पन्न होना लाजिम था. ब्रेसां ने फिल्मों के माध्यम से सभ्य मूल्यों का प्रसार किया, इन फिल्मों का एक रुहानी मकसद यह हुआ करता है कि पात्रों को जानने के लिए दर्शकों को पहल लेनी होती है. उनकी ओर चल कर जाना होता है, इससे पहले कि वो आधे-अधूरे  इस ओर आएँ. अधिकांश फिल्मों में सभी बातें  दर्शकों को लुभाने के लिए गढ़ी जाती हैं. मनोरंजन के लिए परिस्थतियों का निर्माण किया जाता है. प्रसिद्ध फिल्मकार हिचकॉक ने फिल्मों को दर्शकों में भावनाओं को जगाने वाला यंत्र कहा. रॉबर्ट ब्रेसां की सोच इस जमात से एकदम अलग रही.

ब्रेसां के किरदार सम्मान कर रहे हैं, अपने संग दर्शकों को भी वही प्रेरित कर रहे हैं. ताकि वो किरदारों के सम्बंध में निष्कर्ष पर आएं, जोकि दरअसल उनकी ही उपज थे. ब्रेसां का सिनेमा सहानुभूति का सिनेमा था. ब्रेसां  ने दर्शकों की भावनाओ को ट्रेन करना नहीं सीखा था. लेकिन उनकी सीमा यह रही कि वो अभिनेताओं को अभिनय का कोई अवसर नही देते. परफेक्शन के लिए एक ही सीन को बार-बार शूट करते हैं, अभिनय का एक अंश ना रहे इसके लिए बीस से पचास मर्तबा भी शूट करना गंवारा किया. ब्रेसां के अभिनेता केवल बोल व शरीर से अभिव्यक्त करते हैं. परफॉरमेंस को इस हद तक सीमित रखकर  ब्रेसां ने हालांकि एक किस्म की मौलिकता को पाया जो उनके सिनेमा को महानतमों की श्रेणी में रखता है.

इस फिलॉसोफी ने एक गर्दभ को ब्रेसां का चिरकालिक किरदार बना दिया. अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए बल्टजर ने कोई भी कोशिश नहीं की. शरीर से व्यक्त करने के लिए सनातन भावों का इस्तेमाल हुआ. बर्फ से ढका हुआ पशु  शीतकाल का संकेत दे रहा, पूंछ में आग लग जाने पर भयभीत हुआ. भर पेट भोजन कर संतुष्ट भी. घर-वापसी पर इत्मिनान का भाव रहा कि परिचित ठिकाना था. हालांकि सभी लोगों ने उस असहाय का आदर नहीं किया. कुछ लोग उदार रहे तो कुछ निर्मम. आदमी किस मंशा से सब कर रहा ? यह बल्टजर की समझ से परे था.

ब्रेसां संकेत दे रहे हैं कि हम इंसान ‘बल्टजर’ ही हैं. तमाम ख्वाब, आशा तथा योजना होने पर भी दुनिया हमारे साथ वही कर रही होती है जिसका जैसा अंजाम देना उसे भा रहा होता है. क्योंकि हम सोचने-समझने में सक्षम हैं. हम विश्वास के साथ जी रहे होते हैं कि उलझन का उपाय कर लेंगे. सवालों का जवाब तलाश लेंगे, लेकिन हमारी बुद्धि हमें तकदीर संवारने की शक्ति देकर भी अनजान खतरे से नही बचा सकती. सब कुछ तय कर भी बहुत कुछ नही तय किया जा सकता. जीवन से फ़िर भी निराश नहीं होना चाहिए. आदमी को  सहानुभूति व संवेदना का मार्ग अपना लेना चाहिए. दूसरों के दुख में शरीक होकर हमें आनंद की प्राप्ति होगी. कुशल-क्षेम बांटने का अनुभव मिलेगा.  उदास और अकेले रहना दुखों का विकल्प नही होता.

बहरहाल अंतिम दृश्य… वृद्ध एवं बीमार बल्टजर मौत के करीब है. वो भेड़ों की झुंड में बेपरवाह विचरण कर रहा है. ठीक इसी तरह के एक झुंड से ही उसने अपना जीवन शुरू किया था. भेड़ें उसके पास आकर अपना शरीर रगड़-रगड़ कर परेशान कर रही हैं. लेकिन वह इसकी परवाह न करके साथी से सूरज की किरणों का बंटवारा कर चल रहा है. और फिर वह थकान की वजह से झुक कर गिर पड़ता है, ईश्वर की दूसरी दुनिया उसका इंतज़ार कर रही है… इस बीच भेड़ें अपने काम पे लगी रहती हैं. और आखिरकार, निरीह बल्टजर को ऐसा जहान मयस्सर हो सका जहां बाकी प्राणी भी उसके समान सोच रखते थे.

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सैयद एस. तौहीद जामिया मिलिया से मीडिया में स्नातक हैं. सिनेमा केंद्रित पब्लिक फोरम  से लेखन की शुरुआत. सिनेमा व संस्कृति, विशेषकर हिंदी फिल्मों पर  लेखन. फ़िल्म समीक्षाओं में निरन्तर सक्रिय. सिनेमा पर दो ई-बुक्स और प्रतिश्रुति प्रकाशन द्वारा एक पुस्तक प्रकाशित. उनसे  passion4pearl@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.

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