नए पत्ते ::
कविताएँ : अविनाश

भाषा की पेंचकसी

बसी-बसाई क्रूरतम भाषा को मथ कर
उस संगीतात्मकता का निर्माण जिसे साहित्यिक कहते फिरें—
होगी यह किसी कुंजी की खुराफ़ात।

उस संगीत को इस तरह बजाया गया
जैसे धुन ने ही पीछे आकर बनाया हो स्वयं के लिये वह वाद्य।

संगीत को हमनें खोजा है
और वाद्य यंत्रों का किया है अविष्कार।

भाषा को बनाते हैं कबीले और
उसे कसने का जिम्मा उठाते हैं यह साहित्यिक।

तुम्हें जब भी लिखनी हो कोई कथा,
लिखना उनकी दास्तां, उनकी ही जुबां में।

ऊब के दिन

1.

पंखे के नीचे गर्म-भाप सी हवा में सर्द-गर्म की अनुनादित तर में देखते रहते हैं आंगन में उग आई चहचहाती गौरैयों को।
उनके आने से विघ्न-बाधा उपज आती है। काम में और बमुश्किल ही सही पर उनकी चहचाहट लीपती है भीने चिड़चिड़ेपन को। अलस कर लोट जाते हैं, छोड़ देते हैं काफी काम जरूरी, और सर्द-गर्म सी गंध फुफकारते हुये, कोसते हैं दुपहरियों को।

खालिस बेचैनी समेटे हुये यह दुपहरी मेरे आंगन में रोजाना कुछ टुकड़े उलीचती है जिसे झाड़ पोछ कर नया हो जाना,
तरकीब भिन्न भिन्न लगाता हूँ जिसमें कभी रोना कभी सोना

आये दिनों पर लादते हुये बीते दिनों की छूटी बिवाईयाँ
पपड़ी की तरह आधे चिपके, आतुर, अलग हो जाने को
ऊब सी किनारे लग जाती हैं; दुपहरियाँ।

2.

रात होने पर कमरे की बत्ती बुझाये अपने घर में दिन भर से दबे-कुचले-उपेक्षित एकांत को समेटते हैं। मोबाइल स्क्रीन पर नामों के सामने हरी बत्ती जलाये अनगिन अपने एकांत को समेट कर यहाँ उपस्थित हो आये होंगे।

इच्छा होती है कि कहीं से कोई सिरा पकड़ा जाये और शुरू की जाये बात करनी पर छोड़ देते हैं। छोड़ देते हैं कि क्या कहा जाये? क्या कहा जाये जब सभी डूबे हुये हैं उतने ही बदजुबां पानी में जितने में हम। जब सभी के दुखों का अंक अव्व्वल आया हुआ है। जब सभी ही अपने प्रमाण पत्र के चीथड़े उड़ा हदस कर रोते हैं घण्टों।

ऊब भरी दुपहरियों से गुजर कर शाम की कर्कशता को झेलने के बाद जिस मुकाम पर अब सब पहुंचे हैं क्या वहाँ कोई बात की जा सकती है?

बात करने के लिये सबसे जरूरी है भाषा के भीतर पीड़ाओं के लिये यथोचित स्थान का बचे रहना।
बात करने के लिये यह भी आवश्यक है कि दो जन बोलने के अलावा सुनना भी जानते हों।
बात करने के लिये उसके बाद की तीसरी आवश्यक शर्त यह कि बात करने के लिये कोई रटा-रटाया वाक्य न कहा जाये।

ऐसे में नींद धीरे धीरे रात के पहर के साथ सरकती रहती है। उसे ख्याल आता है कि कल तो दुबारा दिनचर्या के निर्वात में टहलना होगा।

कवि की कविता

एक कविता और फिर नहीं
एक कविता और फिर एक और फिर रुक जाऊंगा
एक कविता और फिर एक और फिर एक और फिर रुकना पड़ेगा

मेरी देह से झरकर शब्द
कुछ खुरचे थकन के बिम्ब
और नियमित अंतराल में उपजने वाले
खालीपन के विन्यास से तैयार होती है कविता की रेसिपी

मेरी उपस्थिति का दस्तावेज़ कहीं और नहीं, इन्हीं कविताओं में है

जैसे चाँद असल में लटका रहता है चीड़ों पर

मेरे भीतर से कविता का प्रस्फुटन होता रहेगा;
मेरे बाद कविता की जगह रिक्त हो जायेगी

एक कविता और, और फिर, एक जीवन और

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 अविनाश हिन्दी कविता की नई पीढ़ी से सम्बद्ध कवि हैं। उनसे amdavinash97@gmail.com पर बात हो सकती है।

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