कहानी ::
निशांत

निशांत

पचखा

जेठ की सुबह कुछ ऐसी होती थी कि पूरा गाँव एकसाथ जागकर अपनी-अपनी ड्योढ़ी पर आ खड़ा होता था। पूरब दिशा में सूर्य जब तक अपनी पूरी लालिमा बिखेरता उसके पहले ही गाँव के सभी लोग जाग जाते थे। औरतें सबसे पहले जागती थीं। औरतों का जागना समूचे गाँव को संगीत की ध्वनि से भर देता था। कितने ही सुर एक-दूसरे से टकराकर रोज ही अनंत में खो जाते थे। हर घर से अलग-अलग आवाज़ें आती थीं। हर घर की औरतें अपने तरीके से दिन का स्वागत करती थीं। बिहान बेला में गाये गये गीतों में एक तादात्म्य स्थापित हो गया था। गीत चाहे अलग-अलग ही क्यों न हो, आवाज़ एक जैसी ही निकलती थी। रघुवीर प्रसाद की पत्नी सरस्वती देवी पिछले तीस सालों से सुबह का स्वागत एक ही गीत से करती आ रही थीं—

“कलयुगवा में राम नाम भज ल हो..
कलयुगवा में राम नाम भज ल हो..
बेटा-बेटी कोई काम ना दिहि
छुट जायी तन से प्राणवा हो
कलयुगवा में राम नाम भज ल हो”।

रघुवीर प्रसाद अपनी पत्नी के साथ पिछले बीस वर्षों से अपने घर में अकेले रह रहे थे। रघुवीर प्रसाद का एक लड़का था। रघुवीर प्रसाद के लड़के को गाँव से गए बीस बरस हो गये थे। बीस बरसों से सरस्वती देवी और रघुवीर प्रसाद ने अपने बेटे का चेहरा नहीं देखा था। रघुवीर प्रसाद का एक पोता भी था। रघुवीर प्रसाद का पोता पिछले पाँच सालों से गर्मी की छुट्टियों में एक सप्ताह के लिए उनके पास रहने आता था। सरस्वती देवी तब तक गीत गाती थीं जब तक उगता हुआ सूरज उनके आँगन के दक्खिन कोने से दिखाई देना बंद न हो जाता था। सरस्वती देवी का कमरा पूरब कोने में था। रघुवीर प्रसाद कमरे में नहीं सोते थे। रघुवीर प्रसाद पिछले बीस वर्षों से ड्योढी में सो रहे थे। आँगन बुहारते-बुहारते सरस्वती देवी दक्खिन कोने में जाकर खड़ी हो जाती थीं। सरस्वती देवी कोने में खड़ी होकर गीत गाती थीं। गीत की आवाज़ सुनकर रघुवीर प्रसाद की नींद खुलती थी। नींद खुलते ही रघुवीर प्रसाद सरस्वती देवी को आवाज़ लगाते थे। आवाज़ सुनते ही सरस्वती देवी ताँबे का लोटा में पानी लेकर ड्योढ़ी में जाती थीं। रघुवीर प्रसाद पानी पीकर अपने चमड़े का जूता पैरों में डालते और पूरब की ओर चार कदम चलकर ड्योढ़ी का दरवाजा खोलते थे। ड्योढ़ी का दरवाजा खुलते ही ड्योढ़ी लाल-सुनहले रंगों से भर जाती थी। सुनहले रंग जब रघुवीर प्रसाद की देह पर पड़ते तो बीती हुई रात का अंधेरा उनकी देह से अचानक ही उतर जाता था। ड्योढ़ी वाले दरवाजा के खुलते ही सरस्वती देवी अचानक ही ड्योढ़ी से गायब होकर आँगन में पहुँच जाती थीं। सरस्वती देवी का आँगन में पहुँचना रघुवीर प्रसाद को बिल्कुल साधारण लगता था। सरस्वती देवी का आँगन में पहुँचना कोई जादू नहीं था, ऐसा पिछले बीस वर्षों से हो रहा था।
सरस्वती देवी के आँगन में जाते ही रघुवीर प्रसाद चार कदम चलते हुए दरवाजे से बाहर निकलते। बाहर निकलते ही रघुवीर प्रसाद एक ढ़लान से उतरकर सीधे अपने खलिहान में पहुँच जाते थे। खलिहान में पहुँचकर वह खलिहान के बीचो-बीच खड़ा होकर अपने बगीचे पर नज़र दौड़ाते। इस बार आधा जेठ बीतने के बाद भी गेहूँ खलिहान में ही पड़ा हुआ था। बगीचा, खलिहान से सटा हुआ था। खलिहान, बगीचे से इतना नजदीक था कि बगीचे को देखने में रघुवीर प्रसाद को अधिक मशक्कत नहीं करनी पड़ती थी। खलिहान में पहुँचते ही रघुवीर प्रसाद थोड़ा परेशान सा दिखे। न जाने कितने वर्षों के बाद इस बार आधा जेठ बीतने के बाद भी अनाज खलिहान से आँगन तक नहीं पहुँचा था। रघुवीर प्रसाद का चेहरा खलिहान के बीचोबीच खड़े, इस प्रकार दिख रहा था कि रघुवीर प्रसाद बीस वर्षों के बाद किसी जेठ में इतने परेशान दिखाई दे रहें हो। रघुवीर प्रसाद अचानक से बगीचे में चले गये। बगीचे में मालदह आम के आठ पेड़ थे। बगीचे के चारों कोने में दो-दो मालदह आम के पेड़ थे। रघुवीर प्रसाद पूरब कोने में जाकर खड़े हो गये। खड़े-खड़े उन्होंने आम का एक फल छुआ। उनका छुआ कुछ ऐसा था कि वह पहली बार इतनी सुबह पेड़ से लटकते हुए किसी फल को छू रहे हों। रघुवीर प्रसाद ने मन ही मन अनुमान लगाया कि फल दस दिनों बाद तोड़ने लायक हो जायेंगे। रघुवीर प्रसाद फिर खलिहान में आकर खड़े हो गये और गेहूं के बोझे को एकटक देखने लगे। रघुवीर प्रसाद को खयाल आया कि अगर इतनी सुबह वह संपत के घर जाकर उसे बुला लाएं तो कल तक अनाज उनके आँगन में पहुँच जायेगा। इसी खयाल में रघुवीर प्रसाद कहार टोला में संपत को बुलाने चल दिए। रघुवीर प्रसाद अपने दाएं हाथ में बकूली (छड़ी) को लिए इस तरह चल रहे थे कि संपत उनके खलिहान में तुरंत हाजिर हो जाएगा। संपत के टोले में पहुँचते ही रघुवीर प्रसाद को रोने की आवाज़ सुनायी दी। रघुवीर प्रसाद पहली बार इस प्रकार इतनी सुबह किसी का रोना सुन रहे थे। संपत को दो दिनों पहले लू लग गयी थी। संपत की पत्नी बेतहाशा रो रही थी। वहीं खड़े एक आदमी का कहना था कि अगर संपत को हरा आम मिल जाता तो वह बच जाता। अगर संपत को हरा आम मिल जाता तो उसका लू उतर जाता। रघुवीर प्रसाद को इस बात से बड़ी ग्लानि हुई।

वहाँ से रघुवीर प्रसाद संजीवन बेलदार के घर की ओर चल दिए। संजीवन बेलदार के घर पहुँचते ही उन्होंने देखा कि संजीवन बेलदार हथेली को रगड़कर खैनी झाड़ रहा है। संजीवन बेलदार अपने चबूतरे पर बैठा था। रघुवीर प्रसाद का मन हुआ कि संजीवन के साथ वह भी चबूतरे पर बैठ रहें। एकाएक उत्पन्न हुए इस खयाल को रघुवीर प्रसाद ने मार दिया। वह खड़े-खड़े ही संजीवन से बोले, ” ऐ! संजीवन, आज आकर बगीचे से आम को तोड़ दो”. संजीवन अचानक से कही इस बात को सुन नहीं पाया। संजीवन, रघुवीर प्रसाद को एकटक देखने लगा। संजीवन पहली बार रघुवीर प्रसाद को इस तरह देख रहा था। रघुवीर प्रसाद का चेहरा उसको डरावना लगा. कुछ इस तरह कि अब गाँव में कुछ बुरा होगा।

रघुवीर प्रसाद थोड़ी देर बार अपने दालान में बैठे थे। उनके नाश्ते का वक़्त हो गया था। नाश्ता खत्म होने के पहले ही संजीवन उनके पास हाजिर था। संजीवन के हाथ में हरे रंग का टाट था। रघुवीर प्रसाद ने उसको बगीचे में जाने को कहा। संजीवन के साथ उसके दोनों लड़के भी आये थे। बड़ा लड़का छोटे लड़के से थोड़ा लंबा था। बड़ा लड़का सबसे आगे चल रहा था, बीच में संजीवन और सबसे पीछे उसका छोटा लड़का। वे तीनों इस छोटी दूरी को थोड़ा बड़ा करके चल रहे थे। बगीचे में पहुँचते ही छोटे लड़के ने एक आम तोड़ लिया। संजवीन ने छोटे लड़का को इस तरह मारा की दायीं तरफ उसका गाल लाल हो गया। बड़े लड़के ने पूरब की ओर टाट को बिछा दिया। टाट बिछाते समय बड़ा लड़का अपने छोटे भाई को रोते हुए एकटक देख रहा था। ऐसा करने से बड़े लड़के का पाँव टाट से फँस गया और वह गिर पड़ा। उसके गिरते ही संजीवन ने उसको चार गंदी गालियां दी। संजीवन कोने में खड़े होकर सोच रहा था कि वह किस तरफ से पेड़ पर चढ़ेगा। पेड़ पर चढ़ना आसान नहीं था। पेड़ पर चींटियों का घर था। बड़ा लड़का गिरकर फिर खड़ा हो गया था।

कुछ देर बाद रघुवीर प्रसाद भी बगीचे में आ गये थे। रघुवीर प्रसाद ने आते ही बड़े लड़के को दालान में से कुर्सी लाकर बगीचे में लगाने को कहा। बड़ा लड़का तुरंत खलिहान में पहुँच गया। वह बहुत सावधानी से चल रहा था, वह फिर गिरना नहीं चाहता था। उसने दालान में पहुँचकर पहले आसपास का जायजा लिया, फिर वहाँ पड़ी कुर्सी पर वह बैठ गया। कुर्सी पर बैठते ही उसे संजीवन की गालियां याद आईं। वह तुरंत कुर्सी से उठ गया। वह कुर्सी को दोनों हाथों से पकड़कर बगीचे में पहुँच गया। कुर्सी के पहुँचते ही रघुवीर प्रसाद, कुर्सी पर दोनों पैर चढ़ाकर बैठ गये। संजीवन अभी भी एक कोने में खड़ा होकर कुछ सोच रहा था।

सरस्वती देवी का जीवन कुछ ऐसा था कि उन्हें पता रहता था कि किस क्षण वह आँगन में कहाँ खड़ी होंगी। ऐसा बीस वर्षों के असाधारण प्रयास से संभव हो पाया था। बीस सालों से नियमित किए गए प्रयास से उनका जीवन सरल हो गया था। उन्हें पता था कि उन्हें नाश्ते के बाद क्या करना है और कहाँ मौजूद होकर करना है। लेकिन अचानक से सरस्वती देवी को आज अपनी बड़की ननद का खयाल आया। यह खयाल असाधारण था। शायद बीस सालों के बाद पहली बार उनको अपनी बड़की ननद का खयाल आया था। सरस्वती देवी की बड़की ननद को अपने नईहर आये बीस बरस हो गये थे। सरस्वती देवी का लड़का भी बीस वर्षों से उनसे मिलने नहीं आया था। न जाने क्यों सरस्वती देवी को एक गीत याद आया जो अक्सर उनकी बड़की ननद गाया करती थीं—

“हमर ननदी के भैया चिरैया…
कतेक दिन रहबै ओ मोरंग में”।

अचानक से ही सरस्वती देवी के समक्ष स्मृतियों का अंबार लग गया। एक स्मृति दूसरी से उलझकर गायब होती गई और फिर कई और स्मृतियां आँखों के आगे दस्तक देने लगीं। आह! स्मृतियों का ऐसा मायाजाल पहले तो कभी नहीं हुआ था। सरस्वती देवी अपने आप में सिमटती चली गईं। उन्हें पता भी न चला कि एक पहर बेर भी गिर गया। खाना तैयार करने का भी समय हो गया। पिछले बीस वर्षों से सरस्वती देवी गृहस्थी के एकालाप में कुछ इस तरह रत गई थीं कि उनकी अनेक स्मृतियाँ खंडित सी हो गईं थीं। आज खाना बनाते वक़्त अचानक से रघुवीर प्रसाद का चेहरा उनके आगे मंडराने लगा। सरस्वती देवी ने सोचा, ऐसा पहले तो कभी नहीं हुआ था, आज अचानक से मुझे हो क्या गया है. हे! प्रभु आप शक्ति देना मुझे, शक्ति देना मुझे। सरस्वती देवी जानती थीं कि इस पड़ाव पर उन्हें ईश्वर शक्ति नहीं दे सकता है। वह ईश्वर का नाम लेकर सिर्फ स्वयं को ढ़ाढ़स दे रहीं थीं। अचानक से उन्हें अपने पोते की याद आयी और वह फफककर रोने लगीं। ऐसा किसके साथ होता होगा कि कोई अपने पोते का चेहरा देखने के लिए तरस जाए। ऐसी नियति किसकी होती है। सरस्वती देवी अपने पोते को देखकर, अपने बेटे को भी देख लेती थीं।

संजीवन पेड़ पर चढ़कर आमों को हरे टाट पर गिरा रहा था। टाट के दोनों छोर को उसके दोनों लड़के पकड़े हुए थे। हरा आम हरे टाट पर गिरकर थोड़ी देर के लिए गायब हो जाता था। हरा आम हरे टाट पर ऐसे गिर रहा जैसे उसको घास पर गिराया जा रहा हो। रघुवीर प्रसाद ने संजीवन को पेड़ से उतरने को कहा। संजीवन पेड़ से उतरकर हरे आमों को बीस-बीस भागों में बाँटने लगा। कुल आम हुए चार सौ, जिसमें से संजीवन को मिले सिर्फ चालीस आम।

रघुवीर प्रसाद जब ड्योढ़ी में पहुँचे तो उन्हें घंटी की आवाज़ सुनाई दी। सरस्वती देवी रत होकर आराध्य की आराधना कर रही थीं। रघुवीर प्रसाद बहुत दिनों बाद उन्हें इतनी नजदीक से तल्लीनता के साथ उन्हें रत देख रहे थे। रघुवीर प्रसाद जाकर चुपचाप ड्योढ़ी में बैठ गए। कुछ देर बाद सरस्वती देवी खाना लेकर उनके सामने खड़ी थीं। सरस्वती देवी ने थाली को मेज पर रख दिया। रघुवीर प्रसाद उठे, चार कदम आगे की ओर बढ़े, अचानक से उनका हाथ सरस्वती देवी के माथे को स्पर्श कर गया। यह घटना सरस्वती देवी के लिए असाधारण थी। बीस सालों बाद कोई असाधारण घटना। सरस्वती देवी की स्मृतियां उमड़ पड़ी। रघुवीर प्रसाद झेंप गये। रघुवीर प्रसाद खाने को बैठे। हर निवाले के साथ उनका आधा अन्न पुनः उनकी थाली में गिर पड़ रहा था। रघुवीर प्रसाद गिरे हुए अन्न को दोबारा नहीं उठाते थे। यह उनके अंदर के आत्मघाती सामंतवाद का एक अंश था जो बहुत दिनों बाद अपनी कुंडली से बाहर निकला था। सामंतवाद हजारों बार खाने-पीने के तौर-तरीके में अपने आपको समाहित कर लेता है। सरस्वती देवी ने रघुवीर प्रसाद को ऐसे खाते हुए कब देखा था, उन्हें भी याद नहीं आ रहा था। सरस्वती देवी बेचैन हो उठी। एक ऐसी बेचैनी जो उनकी अनासक्ति को तोड़कर पैदा हुई थी। शामें, शाम की तरह कभी नहीं आयी सरस्वती देवी के जीवन में। शाम का आना अगली सुबह का न्योता होता था। सरस्वती देवी अपने घर की छत पर नहीं चढ़ती थीं। वह शाम को सीढ़ियों पर बैठकर निर्गुण गाती थी—

“जैसे बीते ले दिनवा…
जैसे कटी -कटी कटेले रतिया
एक दिन कटी जायी
जीवन के डोरीया
केहु सहाय भी ना होई..
कटी जायी जीवन के डोरीया
एक दिन देखत-देखत”।

रघुवीर प्रसाद और सरस्वती देवी के लिए रात का महत्व नहीं था। सुबह फिर हुई। रघुवीर प्रसाद से रहा नहीं गया। वह फिर संजीवन के घर गये। संजीवन के घर पर चीत्कार मचा हुआ था। रघुवीर प्रसाद लौट आए। लौटते हुए रघुवीर प्रसाद बुदबुदा रहे थे।
पचखा..पचखा..पचखा लग गया है गाँव को। वह अपनी ड्योढ़ी में आकर बैठ गए। वह बुदबुदाये जा रहे थे। गाँव को पचखा लग गया है। गाँव को पचखा लग गया है।
रघुवीर प्रसाद का पोता गर्मियों में अचानक से एक सप्ताह के लिए उनके पास आ जाता था। रघुवीर प्रसाद के लिए उसका आना कुछ निश्चित जैसा था। दोपहर को उनका पोता उनके साथ ड्योढ़ी में बैठा था। अचानक से रघुवीर प्रसाद बोल पड़े, “चंद्रमाधव, तुम्हें पता है, गाँव को पचखा लग गया है”। चंद्रमाधव सशंकित हो उठा, कुछ इस तरह कि पहली बार वह इस शब्द को सुन रहा हो। सरस्वती देवी आतंकित हो उठीं, उनके भीतर एक ऐंठन हुई। फिर वह एकटक से चंद्रमाधव को निहारने लगी। रात को करीब एक साल बाद उनके घर में चूल्हा जला था। चंद्रमाधव से एक शब्द नहीं बोल सकीं थी सरस्वती देवी। वह बस उसे निहारे जा रही थीं और अपने आँचल को अपनी आँखों पर रखकर आँसुओं को रोकने का प्रयास कर रही थीं।

अगली सुबह असाधारण थी। रघुवीर प्रसाद जाग गये थे। आज सुबह आँगन में गाने की आवाज़ नहीं हुई थी। रघुवीर प्रसाद सशंकित हो उठे। जस का तस उसी तरह बैठे रहे। फिर अचानक से आँगन में गये। चंद्रमाधव आँगन में टहल रहा था। फिर असाधारण ढंग से उनका प्रवेश सरस्वती देवी के कमरे में हुआ, शायद बीस बरस बाद।

रघुवीर प्रसाद ने आँगन में आकर संयमित ढंग से कहा, “चंद्रमाधव, तैयारी करो, सरस्वती अब कभी नहीं गायेंगी, तैयारी करो”।

शमशान घाट पर धधकती हुई चिता के सामने रघुवीर प्रसाद खड़े थे। कुछ और लोग थे जो उन्हें चलने को कह रहे थे। लोग सामने लगी गाड़ी में जाकर बैठ गए। चंद्रमाधव उनके कंधे पर हाथ रखकर खड़ा था। अचानक से चंद्रमाधव बोल पड़ा, “बाबा, चलिए”। रघुवीर प्रसाद उठे और गाड़ी में बैठे लोगों से बोल पड़े, “आप लोग जाइए”। रघुवीर प्रसाद, चंद्रमाधव का हाथ पकड़े चिता के पास खड़ा हो गये और बोलने लगे—

“आप लोग जाइए, आप लोग जाइए”।
गाँव को पचखा लग गया है।”

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निशांत कहानियाँ लिखते हैं। उनसे nishants.pat@gmail.com पर बात हो सकती है। निशांत से और परिचय एवं इन्द्रधनुष पर उनके पूर्व प्रकाशित काम के लिए यहाँ देखें : शव हत्या

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