कहानी ::
अनघ शर्मा

तूतनखामेन तुम्हारी नब्ज़….किस कलाई में चल रही है!!

1

धांय से गोली छूटती है और चीथड़े हवा में बिखर जाते हैं…….. परिंदे घबरा के चुप हो जाते हैं.  फिर जब उनके हवास कायम होते हैं तो उन्हें पता चलता है कि कुछ साथी उनका साथ छोड़ कर चले गये हैं.  दो घड़ी सहमी हुई हवा रुक के ज़मीन पर गिरे हुए उन परिंदों को देखती है. उन्नीस बरस कितनी नाज़ुक उम्र होती है……ऐसी उम्र में किसी को जाना नहीं चाहिए.  तूतनखामेन के लिए सुना है कि वह इसी उमर में कई राज़ पहले मन में फिर अपने ताबूत में दबाए चला गया. हजारों साल पहले नेफरतिती के कंधे के पीछे चुप खड़ी हवा तूतनखामेन को जाते देखती रही. हज़ारों साल बाद हवा ने शिप्रा के पीछे से कुमु को जाते देखा. हवा ने सब कुछ देखा सिवाय दिलचंद और अल्लो के दो बेटों को खून में लिपटे, धूल में लिथड़े हैरत से फटी आंखें लिए जाते हुए…

2

छह महीने हुए हम वापस लौट आये हैं. हम यानि मैं अजीत और मेरी पत्नी शिप्रा वापस वहीं आ गए हैं जहाँ से तीन साल पहले घबरा के गए थे. हताशा के पहाड़ की सरपट ढलान से गिरते हुए वापस उसी पत्थर से आ टकराये हैं जिसकी चोट से बचने के लिए छुपे फिर रहे थे.  वो एक ऐसी खाई थी कि जिसमें गिर के मरने के बजाय हम वापस उसी जगह पहुँच जाते थे जहाँ से गिरे थे.   बार-बार गिरने की अंतहीन यातना से बचने के लिए एक रोज़ हम यहाँ से चले गए थे पर हमारी यात्रा का रास्ता गोल निकला, देखते हैं कि जिस दरवाज़े से मुड़े थे अब घूम के उसी के सामने खड़े हैं.  इस पहाड़ के पत्थर बहुत नुकीले हैं और हमारी एडियों में ऐसे गढ़े हुए हैं कि निकालने के लिए दीखते नहीं पर हरदम चुभते रहते हैं.  जैसे इस घर की दीवारें बिना फ्रेम के हर जगह इशारे से बता देती हैं कि कभी यहाँ कुमु की बड़ी तस्वीर थी.  वहाँ इससे ज़रा छोटी वाली टंगी थी, वहाँ बचपन वाली.  उधर वो वाली जो उसके पहली दफ़ा दांत टूटने पर खींची थी.  जिसके लिए हम आपस में कहते थे कि शाम के रंग में इस फोटो के शेड्स बदल जाते हैं और कुमु कितनी शांत, कितनी प्यारी लगती है.  यूँ तो हम दोनों ही उसे बहुत प्यार करते थे पर शिप्रा का लगाव उससे कुछ ज़्यादा था ऐसा शिप्रा का मानना था.

“फ़ोटोज़ लगा लें कब तक उन्हें यूँ ही बंद कर के रखेंगे” दीवारों पर ख़ाली जगह देख अजीत ने पूछा
“लगा लो……… हमारे पास देखने के लिए फ़ोटोज़ तो हैं. दिलचंद और अल्लो के पास तो जी भर आने पर देखने के लिए शायद बच्चों की कोई फोटो भी न हो.”
“आजकल तो सस्ते से सस्ते फ़ोन में भी कैमरा होता है. सब होगा उनके पास भी, और वैसे अब देख के कर भी क्या लेंगे वे लोग.” अजीत ने कहा.
“वही जो हम अब कुमु की फ़ोटोज़ देख के करेंगे, मन को बांधने की कोशिश.” शिप्रा ने जवाब दिया.

अपने मन को बाँधने के लिए शिप्रा ने एक नया काम अपने जिम्मे ले लिया है. अब वह चिठ्ठियाँ लिखती है. जाने किस-किस सरकारी महकमे को रोज़ उसकी लिखी चिठ्ठियाँ पोस्ट होती हैं. हर भेजी जाने वाली चिट्ठी के साथ उसकी उम्मीद कुछ बढ़ती है कि यहाँ से जवाब आएगा और वह दिलचंद और अल्लो के लिए जिस न्याय की आशा रखती है वो पूरी होगी. हिन्दुस्तान जैसे देश में जहाँ लस्त-पस्त सिस्टम में चोर दरवाज़े सिर्फ़ इसी लिए बनाये गए हैं कि वे बहुत सारे लोग जिन्हें न्याय की ढाल मिलनी चाहिए उन्हें उन दरवाज़ों से बाहर धकेल कर ख़ारिज कर दिया जाये. उस पर से उसकी न्याय की ये चाहना उत्तर-पूर्व के दो ऐसे लड़कों के लिए है जो एक शक्तिशाली सरकारी मशीनरी के हाथों मारे गए हैं. उसकी ये इच्छा बहुत कठिन है. उसने इन लिखी जा रही चिठ्ठियों के लिए अपने लैपटॉप में “तूतनखामेन !!” नाम का फोल्डर बना रखा है.

3

“याद है कुमू के पैदा होने से पहले कैसे दिन थे अपने. किराए का घर, पैसे का कोई ठीक हिसाब नहीं. कभी हाथ खुला कभी फक्कड़. तुम्हार प्राइवेट नौकरी के साथ साथ तैयारी करना. केशव का आइडिया कितना काम कर गया कि ‘अजीत एक छोटी सी चूड़ियों की दुकान डाल ले, धीरे-धीरे बढ़ती रहेगी.’ फिर जिस साल कुमु हुई, जैसे मानो सब बदल ही गया. कोई सोच सकता था कि शिकोहाबाद जैसी जगह से निकल हम आगरा से होते हुए बेंगलुरु तक काम बढ़ा पायेंगे. जब तुम ट्रेनिंग को गईं तो कुछ महीनों की कुमु चार महीने तुम्हारे बिना कितनी आसानी रह गई थी. ताज्जुब की बात थी. शी वाज़ वैरी लकी फॉर अस” अजीत ने कहा.

“और हम कितने अनलकी थे उसके लिए. सच कह रहे हो तुम इतनी छोटी सी बच्ची कितने आराम से रह पाई ताज्जुब है. उससे बड़ा ताज्जुब ये है, तुम समझ ही नहीं पाए कि ‘शी वाज़ सफरिंग’. पहले तुम्हारे भरोसे छोड़ कर जाने की जो गलती की थी, जाने उसे फिर क्यूँ दोहरा दिया मैंने. सोचा था अब पहले से बहुत ज़्यादा कम्पोज़ड है, मैनेजेबल है तो तुम ध्यान रख लोगे. मुझे क्या पता था कि तुम यार-दोस्तों में, मीटिंगबाज़ी में, ड्यूटी फ़्री की शराबों में गोते लगाते रहोगे और हमारी बच्ची चली जाएगी.”

“मैंने कहा था तुमसे कि तुम एक हैंडीकैप्ड बच्चे को छोड़ कर डेप्युटेशन पर चली जाओ. कितना कहा तुमको कि मत जाओ यार, उसे अब तुम्हारे बिना इतने महीने मैनेज करने में बहुत स्ट्रेस होगा. पर तुमको तो फ्यूचर की रोज़ी पिक्चर दिख रही थी. क्या कहती रहीं थीं तुम कि अब हाथ-पैरों के कोर्डिनेशन्स बहुत बेहतर हैं. बस उसका रूटीन न बदलना, शार्प नौ बजे सुला देना…. पूरी नींद सोएगी तो शी विल बी फाइन. और जो ये वी.आर.एस लिया है न शिप्रा तुमने, ये भी अब दुःख में पति-पत्नी साथ बने रहेंगे ऐसा सोच के नहीं लिया है. अपने गिल्ट को रिडीम करने के लिए लिया है. कमी है हम पर यार पैसे की जो कहती रहीं कि इस डेप्युटेशन पर जाने से सैलरी बेहतर होगी और अगले पे-कमीशन के लगने पर बाकियों से कहीं ज़्यादा मिलेगा.’ अजीत एक सांस में सब कह गया. फिर कुछ देर रुक उसकी तरफ़ बिना देखे बोला ‘सुनो अब हमको इस ब्लेम गेम से बाहर निकलना चाहिए. आपस में चीज़ें बिगड़ती हैं तो लोग कोशिश करते हैं उन्हें बेहतर करने की. हम भी यार बियोंड रिपेयर तो नहीं हैं, लेट्स ट्राय टू वर्क ऑन अस.’ यहाँ का काम थोड़ा वाइंडअप करते हैं. आगरा चलते हैं कुछ समय के लिए. मैं शुरू में वहाँ का शो-रूम देखता रहूँगा और ठीक रहा तो वहाँ स्टाफ में से किसी को यहाँ भेज देंगे लोकल हेल्प के साथ चलाता रहेगा एक दुकान को. दाल-रोटी भर पैसा निकालता रहे यहाँ वाले काम से तो भी ठीक.”

…………………………………………..

आगरा का माहौल शिप्रा को अपेक्षाकृत कुछ रास आया. कुमु के जाने के बाद और नौकरी छोड़ने से बेंगलुरु की एकसार दिनचर्या में उसे जो अकेलापन और बेचैनी होती थी उसके उलट यहाँ घर को व्यवस्थित करने और कुमु की बेहतर परवरिश के लिए कोई डेढ़ दशक पहले छोड़े गए इस शहर को दुबारा नई और बदली रफ़्तार में देखना उसके समय बिताने के लिए कुछ सार्थक साबित हुआ. यहाँ आने पर एक इतना अंतर और आया कि उनके बीच जो चुप्पी थी वह घट कर ज़रा कम हुई है. अब एक दूसरे से कुछ कहने के लिए उन्हें कई-कई दिनों तक इंतज़ार नहीं करना पड़ता.

अजीत की साँस लेने की आवाज़ से शिप्रा ने जान लिया कि वह अभी तक जाग रहा है. अमूमन तो वह रोज़ शो-रूम से वापस आ, बचा हुआ काम खत्म कर तुरंत ही सो जाता है, पर आज जाने क्यों इतनी देर तक जागा हुआ है. उसने अंदाज़ लगाया कि दो या ढाई बजा होगा. थोड़ी देर कुछ सोचने के बाद उसने अजीत के कंधे को हिलाया.

“सुनो, पानी पड़ रहा है क्या?”
“नहीं तो ….”
“क्या साइड वाली खिड़की खुली हुई है?”
“नहीं यार, क्या हुआ?”
“ऐसे लगा जैसे बाँह पर पानी की बूंद गिरी हो.”
“एसी की हवा से लगा होगा.”
“अपनी उमर ही ऐसी है कि अब हवा भी चोट दे जाती है.”
“पचास के पास और क्या बनेगा.”
“अच्छा सुनो.”
“ह्म्म्म”
“कल दिलचंद से कह देना शाम को थोड़ी मछली दे जाए, बेहतर होगा कि तुम्हीं लेते आना वापसी में.”
“मैं क्यों? ख़ुद दे जायेगा, शो रूम से वहाँ जाऊँगा इतनी दूर, शाम को आयेगा ही पौधे देखने साथ लेता आएगा.”
“मुझे उसकी गली हुई सी उंगलियों को देख घबराहट होती है.”
“सारा दिन पानी में जो रहते हैं उसके हाथ.”
“तुम तो कह रहे थे कि मांस-मच्छी के काम नहीं करते ये लोग.”
“करते तो नहीं पर मजबूरी जो ना कराये आदमी से. वैसे हुआ भी तो कितना बुरा उसके साथ……… दो ही बेटे थे, साल भर के भीतर ही मर गए.”
“कैसे मरे?”
“मुझे नहीं पता, न मैंने पूछा भई?”
“तुम्हें किसने बताया.”
“शो-रूम में ही कोई कह रहा था.”
“क्या ऐज रही होगी?”
“उन्नीस एक साल के रहे होंगे दोनों.” कह कर वह चुप हो गया.
शिप्रा ने उसकी ओर करवट ले एक सांस छोड़ते हुए रुकी हुई बात को मानो आगे बढ़ाते हुए कहा.

“तुम्हें पता है अजीत, सुनते हैं कि मिस्र का राजा तूतनखामेन भी उन्नीस बरस का था जब गया. उसके मकबरे में आज तक कोई नहीं जान पाया कि उसकी उमर बढ़ी या वहीं रुक गई. कहते हैं कि उसकी माँ नेफरतिती को भी उसके मकबरे के भीतर ही दफ़नाया गया; ताकि उसके बीमार, चलने में कमज़ोर बेटे को मरने के बाद भी अकेले में कोई तकलीफ़ ना हो. अपनी कुमु की उमर भी तो इतनी ही थी ना, है न……..काश मैं उसके साथ जा पाती. मैंने उसे अपने दिल के अंदर और कस के चिपका लिया है जहाँ से वह किसी को नहीं दिखे. यूं भी दिल हम सब के कभी न कभी एक बार मकबरे में बदल ही जाते हैं, जिनमें जाने वाले की उमर वहीं पर छूट जाती है जहां से उसे पार किया था. ठीक जैसे किसी फ्रेम में बंद जहां से पीछे पलट के जाने की सहूलियत ही नहीं और आगे की राह पर बस अंधेरा हो.”

“अच्छा अब सो जाओ यार,  थकती नहीं हो तुम, हर वक़्त एक ही बात ले कर बैठी रहती हो. तुम कहोगी तो मैं दिलचंद से कह दूंगा कि बगीचे और घर की थोड़ी हेल्प के लिए अपनी बीबी को भेज दिया करे. वैसे भी वह काम ढूंढ रहा है उसके लिए. कह रहा था जहाँ हाउस हेल्प थी उन लोगों का ट्रान्सफर हो गया है.” अजीत ने कहा.

“फिर दिलचंद का क्या होगा?”
“वह तो पहले भी सुबह शो-रूम की साफ़-सफाई करता रहा है, वापस बुलवा लूंगा उसे वहाँ, तुम यहाँ का देख लो.”
“ठीक है, सही लगी और साफ़-सुथरी हुई तो किचन के काम के लिए रखने में कोई दिक्कत नहीं मुझे.” शिप्रा ने करवट बदलते हुए कहा.

4

शिप्रा ने उसे देखा. मझोले कद का डील-डौल, चेहरे पर एक लगातार सी दिखने वाली थकन और उम्र जैसे असल से कई साल आगे हो. उसकी आँखें थकान से इतनी भरी हुई थी कि पता ही नहीं चलता था कि वे बंद हैं या खुली हैं. और अगर खुली भी हैं तो क्या कुछ देख भी पा रहीं है. उस समय शिप्रा को ये कहाँ मालूम था कि उत्तर-पूर्व की मझोले कद की ये स्त्री उसके जीवन की धुरी को बदलने वाली है, और न ही उसे ये अन्दाज़ा था कि ये सम्बन्ध उसके भीतर की बेचैनी को एक ऐसी गति देगा जो आगे चल कर उसके व्यक्तिगत दुःख के बरक्स किसी दूसरे के दुःख को पहले खड़ा कर देगा और न्याय को लेकर उसकी धारणाओं को एक नया रुख देगा.

“जिनके यहाँ पहले थीं वहाँ क्या काम करती थीं? शिप्रा ने पूछा?
“साफ़-सफाई और पेड़-पौधों का काम. खाना नहीं बनवाते थे वो लोग.”
“क्यों?”
“उनको हमारा बनाया खाना अच्छा नहीं लगता था. कहते थे कि हमारी तरफ का अजीब सा स्वाद है.”
“तुम्हारी तरफ़ से मतलब?”
“मणिपुर से हैं हम लोग. अब तो सोलह-सत्रह सालों से यहीं है दीदी.” वह बोली.
मणिपुर का नाम सुन शिप्रा ने पलट के अजीत की तरफ देखा. फिर बिना कोई प्रतिक्रिया दिये वह उससे बोली.
“ठीक है मैं कल ख़बर करवाती हूँ, जैसा भी रहेगा ये दिलचंद को बता देंगे.”
उसके जाने के बाद शिप्रा ने उसके लाये हुए प्लास्टिक के डिब्बे में पड़ी एक साफ़ की हुई, सलीके से टुकड़ों में कटी मछली को देखा.
“मुझे नहीं पता था.” अजीत बोला.
“हद्द है यार, इतने सालों से इसका आदमी तुम्हारे शो-रूम पर काम कर रहा है और तुम्हें पता ही नहीं की कहाँ से है? मैं तो शक्ल से पहाड़ी समझी थी. बाहर के लोग हैं जाने कैसे हों?”
“मैंने थोड़े ही, वो तो कई साल पहले यहाँ वाले मैनेजर ने रखा था. इतने सालों से दिलचंद काम कर रहा है शो-रूम पर, सब ठीक ही है.” अजीत ने सफ़ाई देते हुए कहा.

जब वह उसके यहाँ काम करने आई तो धीरे-धीरे उसके सलीके ने, सहज आचरण ने शिप्रा के संशय को खत्म कर दिया. कुछ महीनों बाद शिप्रा ने एक दिन उससे पूछ ही लिया.

“तुम्हारे दो बेटे हैं न अल्लो?”
“थे, अब नहीं हैं.” उसने जवाब दिया.
“थे मतलब? क्या हुआ उन्हें?” जान कर भी शिप्रा ने ऐसे पूछा जैसे उसे कुछ पता ही न हो.
“मर गया न दीदी हमारा दोनों बेटा. बड़ा वाला देबाशीष दो हजार में मर गया और छोटा वाला निपेन दो हज़ार एक में.”
“कैसे?”
“मारा ना हमारे बेटों को, औरों को भी मारा………. स्पेशल फ़ोर्स मारता है सबको वहाँ …. हर दिन मरता है. उनका कोई कुछ कर नहीं पाता दीदी.”
“ऐसे थोड़े ही होता है कहीं. कोई तो रोक टोक होगी ही.”
“कोई रोक नहीं दीदी. वो आते हैं जहाँ मन करता है ताड़ताड़ गोली चलाते हैं और निकल जाते हैं.
“तुम्हारी बातें सच हैं या कुछ मिर्च-मसाला लगाया है इनमें.” शिप्रा की आवाज़ में संशय था.
“दीदी जिनके बच्चे मर जाते हैं या मार दिये जाते हैं उन माँ-बाप को सच-झूठ को अलग करने की समझ नहीं बचती. जितना याद रहता है वह सच मान लेते हैं, जो भूलते जाते हैं उसे झूठ. माँ-बाप बच्चे की मौत की कोई बात भूल जायें तो वह सच कैसे हो सकती है. सच कहीं जाता है सामने से.” उसने जवाब दिया.
“जानती हो मेरी बेटी जब खत्म हुई तो मैं उसके पास नहीं थी. कुछ महीनों से दूसरे शहर में नौकरी के सिलसिले से थी. मुझे सबने जो बताया मैंने उसे ही सच मान लिया. मेरा जो सच है क्या वो झूठ हो सकता है.” उसकी बात सुन एकाएक शिप्रा उससे पूछ बैठी.
“जिसने आपको ये सब बताया उसका और आपका झूठ-सच तो साझा है दीदी. क्या हुआ था आपकी बेटी को?” उसने कुछ ठहर कर पूछा.

“मेरी बेटी पैदा होने के कुछ बाद से ही बीमार रहने लगी थी. मैं उन दिनों भी उसके पास नहीं थी. हमें लगता तो था कि कुछ अलग है. पर क्या है ये समझ नहीं पा रहे थे. कुछ समय बाद जब डॉक्टर से मिले तब हमें पता लगा कि बात क्या है. एक बीमारी होती है दिमाग की जिसमें दिमाग पर दबाब बनने लगता है जो कि धीरे-धीरे कई तरह के बदलाव पैदा कर देता है. जिससे बच्चों में मांसपेशियों से जुडी अलग-अलग तरह की दिक्कतें शुरू होने लगती हैं. कुछ बच्चों में पैदा होते ही पता चल जाता है कुछ में थोड़े महीनों बाद लक्षण दीखते हैं. शुरू से ही उसके संतुलन बनाने की क्षमता में कमी थी जिस कारण उसे चलने-फिरने में दिक्कत आने लगी थी. वह चल तो लेती थी पर दोनों पैरों में बहुत दूरी रहती थी. जो नार्मल लोगों में नहीं दिखती जिस वजह से वह कई बार गिर पड़ती थी. हाथ भी सामान्य तरीके से काम नहीं करते थे उसके हालाँकि वह अपना खाना खा लेती थी. धीमे-धीमे पानी का ग्लास पकड़ के पानी पी लेती थी. ऐसे काम कर लेती थी जिनमें हाथों को बहुत मजबूती से किसी चीज़ को पकड़ना नहीं पड़ता है. पेन्सिल पकड़ के लिखने की कोशिश भी करती थी. उसके बात करने के लहजे में भी अंतर था; पर हम लोग समझ जाते थे. बाद के सालों में हमने उसके लिए मोटर वाली व्हील चेयर ले ली थी जिसे वह साधना सीख गई थी. उस पर बैठना, उतरना साध लेती थी. उस रात वह शायद पलंग पर लेटी तो होगी पर जाने कैसे गिर गई. घर में कोई था ही नहीं जिसे पता चलता कि क्या हुआ है. अजीत दोस्तों के साथ पार्टी कर रहा था. जब लौट के आया और उसके कमरे में गया तब देखा. तुरंत ही हॉस्पिटल ले कर गया, कुछ घंटे डॉक्टर्स ने कोशिश भी की पर…………” शिप्रा ने कहा.

क्या शुरू से ऐसी ही थीं? मतलब ऐसे कैसे? उसने पूछा.

“उसके जन्म से पहले जब वह होने वाली थी मैंने कुछ महीने तक एक जगह काम किया था जहाँ केमिकल इस्तेमाल होते थे. उनदिनों हमारा काम वगैरह कोई बहुत अच्छा नहीं था, सो हम दोनों को जो भी ठीक सा काम मिलता उसे जॉइन कर लेते थे. फिर आखिर के महीनों तक टेस्ट वगैरह में डॉक्टर कुछ समझ ही नहीं पाई की ऐसा कुछ होगा. सब नार्मल ही लगता रहा था उसको. कोई ज़रा भी अंदेशा होता तो तुरंत काम छोड़ देती मैं. उसके पैदा होने के तीन महीने बाद मुझे सरकारी नौकरी मिली तो अजीत और एक नौकरानी के भरोसे उसे दो महीने के लिए छोड़, मैं ट्रेनिंग पर चली गई. तब तक तो हमें कुछ आईडिया ही नहीं था.” कह कर वह चुप हो गई.

शिप्रा ने बाहर की तरफ़ देखा हल्के-हल्के बादलों के साथ अन्धेरा उतरने लगा था. रात के उतरने से ज़रा पहले ये धुंधलका एक छोटे अंतराल के लिए इन दिनों अक्सर आकाश पर फैल जाता है. ये अन्धेरा उसकी उदासी को और गहरा कर जाता है. अमूमन उसकी कई रातें जागते हुए ही बीतती थीं. कभी-कभार दो-चार रात बाद किसी रात मैलाटोनेन की गोली से नींद आ भी जाए तो अगले पूरे दिन उसे इस बात की शर्मिंदगी रहती कि वह सो कैसे सकी.

“क्या दिलचंद के हाथों में अभी भी गलन है?” शिप्रा ने बिना उसकी तरफ़ देखे पूछा.
“हाँ, पर कुछ ठीक हैं अब उसकी हथेलियाँ. आपके बताने के बाद रोज़ रात को थोड़ी देर आग के सामने सिकाई करता है तो अब सही हैं.”
“छोड़ क्यों नहीं देता मछली बेचने का काम? तुम तो वैसे भी पूजा-पाठ मानते हो.”
“हाँ वैसे बेचते तो नहीं हैं पर खाते तो हैं हम लोग मछली. यहाँ नहीं पहले पीछे से ही खाते आ रहे जाने कितनी पीढ़ी से.”
“तब भी काम करता है वह वहाँ?”
“दिलचंद के जिस रिश्तेदार के साथ हम सब छोड़ के यहाँ आये वह कई दिनों के बाद यही काम दिला पाया. वह खुद भी यहाँ दुकान में मछली बेचता था. मैंने ही कहा था
इसे जो काम मिला है कर लो. हमारे पास उम्र भी कहाँ रही बहुत जो ये सब सोचें. मैं जाऊं अब दीदी? सुबह जल्दी आ कर पहले बगीचे का काम समेट लूंगी.” उसने पूछा.
“ठीक है पर आठ बजे से पहले मत आ धमकना.”
“क्या सोते हुए आप को उसकी आवाज़ सुनाई देती है दीदी.” जाते हुए अचानक उसने रुक के पूछा.
“क्या तुमको उनकी आवाज़ सुनाई देती है.” जवाब में शिप्रा सवाल कर बैठी.
“उनकी क्या मुझे तो गोली की आवाज़ भी सुनाई पड़ती है. दो गोली एक दूसरे के  बाद चलती हैं और मेरे आर-पार निकल जाती हैं.” आज शायद पानी पड़े कह कर वह बाहर निकल गई.

……………………….

उसे ऐसा लगा जैसे तेज़ आवाज़ करती हुई गोली चली हो. गोली चली और बादलों के पीछे छुपे चांद को चीरती हुई आसमान में कहीं जा कर गुम हो गई. बरसते हुए पानी ने खिड़की के साफ़ शीशे को ढक कर रात और गहरी कर दी थी. बूंदें खिड़की पर नहीं मानो उसके तलवों पर पसीने की मानिंद आ कर ठहर गईं थीं.

“सुनो कहीं गोली चली है” उसने अजीत को उठाते हुए कहा.
“कहीं नहीं चली, बारिश हो रही है, बादल गरजे होंगे. सो जाओ यार और मुझे भी सोने दो. जब से इस दिलचंद और अल्लो की बातों में घुसना शुरू किया है तब से तुमने ये नए-नए शिगूफे चालू कर दिए हैं.”
“दवाई दो मुझे पहले.”
“जब तुम्हें एंज़ाइटी रहती है तो इन सबके पचड़ों में पड़ती ही क्यों हो?”
“उसके लड़के की छाती पर सामने गोली दाग थी फ़ोर्स ने पता है तुम्हें.”
“कौन जाने क्या-क्या करते फिरते हों, किस काम में लिप्त हों उसके लड़के?” अजीत बोला.
“सीना चीर के पार होती गोली चोर और मुंसिफ़ नहीं देखती…. गोली छूटती है धाँय से और चीथड़े हवा में. फिर अफस्पा की आड़ में कितने असीमित अधिकार फ़ौज के हाथ में रहते हैं क्या जानते नहीं हो तुम. कितने इनोसेंट लोग इस आर्म्ड फोर्स स्पेशल पावर एक्ट की भेंट चढ़े हैं किसी के पास हिसाब भी नहीं होगा. किसी भी लोकतांत्रिक देश के सभ्य समाज में ऐसे बर्बर कानून का वजूद होना चाहिए, ऐसे कानून को कहीं जगह मिलनी चाहिये भला. कोर्ट ने ऐसे ही मुआवज़े की बात थोड़े कही होती अगर इनके बच्चे बेकसूर न होते. वहाँ इस कानून की आड़ में जब-तब अबोध बेक़सूर बच्चे मारे जा रहे हैं. माँ-बाप के सामने बच्चे छलनी-छलनी कर दिये जाएँ तो कलेजा टुकड़े-टुकड़े नहीं हो जायेगा. हमारी अपनी परेशानी तो कुछ भी नहीं इनके सामने. शुक्र है हमारी कुमु………..” शिप्रा ने कहा.
“हमारी कुमु क्या???” अजीत ने ज़रा तुर्शी से पूछा.
“कि बीमारी से गई, आज नहीं तो कल तसल्ली दे देंगे खुद को की तखलीफ़ से बची हमारी बच्ची.” शिप्रा ने शायद कुछ और भी कहा जो बाहर बादलों की गड़गड़ाहट में डूब गया.
“सो जाओ अब यार…. .” अजीत ने उसका हाथ अपनी छाती पर रखते हुए कहा.
“अच्छा तुम्हारे पास कुछ एक्स्ट्रा पैसा पड़ा है क्या  इनके लिए?” उसने पूछा.
“पाँच-सात हज़ार चाहो तो दे दो.” वह बोला.
“इतना नहीं कुछ ज़्यादा सोच रही हूँ मैं जितने से इनकी लीगल हेल्प करने लायक कुछ व्यवस्था बन जाये.” उसने कहा.
“हर्गिज़ नहीं, न तो इतना पैसा है हाथ में, न ऐसे किसी पचड़े-झमेले में पड़ने कि ज़रूरत है हमें. मैं वैसे भी सोच रहा हूँ अब हमें वापस बेंगलुरु लौटना चाहिए. कितना वक़्त हुआ यहाँ आये हुए. जब से आये हैं एक बार भी जाना नहीं हुआ वहाँ. बीच-बीच में आते-जाते रहेंगे यहाँ. तुम्हारा मन करे तो अपनी हेल्प के लिए इसको ले चलो साथ कुछ महीनों के लिए. घर वगैरह सेट करा देगी. मदद के लिए इसे कुछ एक्स्ट्रा पेमेंट करना चाहो तो कोई हर्ज़ नहीं.” अजीत ने रुखाई से जवाब दिया.
“पर मैंने इस मदद के लिए नहीं पूछा था. शिप्रा ने कहा.

जाने अजीत ने उसकी बात सुनी नहीं या न सुनने का दिखावा कर आँखें बंद कर लीं.

5

“मेरे पास अब तक देबाशीष कमीज़ रखी हुई है, जो उसने उस दिन पहनी थी. हरे-सफ़ेद चौखाने पर उस दिन का चिपचिपा खून सूख़ कर अब एक और पक्के रंग का हुआ. निपेन को घर के पास के तालाब से उठा के ले गए थे. वो भात की धुलाई कर रहा था. नंगे बदन था, उसकी कमीज़ वहीं पास में रखी हुई थी, पहनने ही नहीं दी ऐसे ही खींचते हुए उठा कर ले गए. बाद में उसकी कमीज़ कभी नहीं मिली जाने कहाँ खोई. अब जब बहुत याद आती है तो देबाशीष की कमीज़ छू कर देख लेती हूँ.”

कितने ही दिनों से शिप्रा को अल्लो की कही ये बात बेचैन किये जा रही थी. उसने अलमारी खोल एक बैग उठाया और उसमें से कुछ कपड़े निकाल पलंग पर फैला दिये. धीरे से उसने उस ढेर में से एक फ्रॉक खींच के निकाली, उलट-पुलट के देखी और देर तक सूंघने के बाद वापस उन्हीं कपड़ों में रख दी.

इन दिनों जब से उन्होंने आगरा से वापस लौटने का तय किया है तब से उसकी बैचैनी कुछ ज़्यादा बढ़ गई है. जैसे पानी के ठहर जाने के बाद उसमें एक बार फिर भंवर उठ गया हो. आज कई दिन बाद उस के कपड़ों को छू कर शिप्रा ने महसूस किया कि मानो कुमु को ही छुआ हो.

“तुम लोग यहाँ आने से पहले क्या काम करते थे?” एक दिन शिप्रा ने उस से पूछा.
“निपेन और दिलचंद तो धान के खेतों में काम करते थे. मैं और देबाशीष ‘लसिंगफ़ी’ बनाने का काम करते थे.”
“ये क्या होता है?”
“ये एक तरह का मोटा कपड़ा है, जिसे हम बनाते थे. ठण्ड में ओढ़ने-पहनने के काम आता है.”
“तो क्या तुम इसे बेचते थे?

“हाँ, नूपी केंइथल (औरतों के बाज़ार) में एक छोटी दुकान थी. लगभग पिछले पाँच सौ सालों से ये पूरा बाज़ार बस हम औरतें ही चलाती हैं. बहुत मजबूत होती हैं हमारे तरफ़ की औरतें. अंग्रेजों ने जब हम पर पाबंदियाँ लगाईं तो उनके खिलाफ़ अस्सी साल पहले ‘नूपी लान’ (औरतों का युद्ध) तक छेड़ दिया था हमारी औरतों ने.” अल्लो की आवाज़ में गर्व की धमक थी.

“हाँ औरतें मजबूत तो हैं तुम्हारी तरफ़, अब इरोम को ही देख लो.” शिप्रा ने कहा.

इरोम का नाम सुनते ही अल्लो की आवाज़ में ज़रा देर पहले जो उत्साह था वह डूब गया.

“वो मजबूत नहीं होतीं तो हम जैसों को जिनकी कहीं कोई सुनवाई नहीं, उनके लिए सालों चलने वाली भूख हड़ताल पर क्यों बैठ जाती? इरोम तो हम सब के लिए माँ जैसी है. हमारे साथ हुए हादसे के बाद उसने ये भूख़ हड़ताल की, और हमारे लिए ही तो उसने इतने साल तक ये हड़ताल रखी. फ़ोर्स की अमानवीयता के खिलाफ़ हक़ और न्याय की आवाज़ उठाई.”

“कैसा हादसा?

“जब से अफस्पा लगा के फ़ोर्स को सब अधिकार दे दिये हैं तब से हमारी ज़मीन पर दीदी हर दिन कोई हादसा होता ही रहता है. बिना कारण कहीं भी कभी भी लोगों को मार दिया जाता है, गोलियों से भून दिया जाता है. बहुत तनाव है वहाँ और जीना काफी मुश्किल. हम तो सब छोड़ के यहाँ भाग आये पर सब कोई हमारी तरह कमज़ोर नहीं होता है. लोग लड़ते हैं अपने घर, अपनी ज़मीन से फ़ोर्स को निकालने के लिए ताकि उनके बच्चे खुल के साँस ले सकें. उनकी पीठ और छाती को कोई गोली चीर के न निकले, पर ऐसा होता नहीं. सालों पहले से, शुरू से ही वहाँ इस कानून को हटाने और स्वतंत्र राज्य की माँग के कारण फ़ोर्स से टकराव है. जब फ़ोर्स ऐसे बाग़ी गुटों पर जोर नहीं चला पाती है तो आम जनता पर अपना गुस्सा निकालती है. गोलियों से छलनी कर देती है और हम शरीर से रिसते खून को बस देखते रह जाते हैं.”

शिप्रा ने उठ कर उसे पानी का ग्लास पकड़ाया और उसके कंधे को सहलाने लगी. कुछ देर के विराम के बाद अल्लो ने दुबारा कहना शुरू किया.

“अक्टूबर खत्म होने तक तेज़ सर्दी शुरू हो गई थी. सर्दियों के कुछ सामान की खरीदारी करनी थी तो मैं देबाशीष को साथ ले कर अपनी बहन के घर मलोम गई थी. हमेशा ही जाते थे हम दोनों वहाँ. देबाशीष को पता था कि बाज़ार से क्या लाना है. हमारा तय था कि नवम्बर के पहले हफ़्ते में जायेंगे, सामान खरीद के दो दिन मलोम रुक, वापस घर आ जायेंगे. उस दिन वह अपनी मौसी के साथ सामान खरीदने के लिए निकला फिर दोनों कभी जिंदा वापस ही नहीं आये. मेरी बहन के घर के पास ही बस स्टॉप था. उनको भेज कर मैं कमरे में आ के रात के खाने के लिए मछली पर मसाला लगाने लगी थी कि थोड़ी देर में एक धमाका सुनाई दिया. मैंने दौड़ के खिड़की के बाहर झाँका तो फ़ोर्स की एक टूटी-बिखरी जीप और कुछ लोग भागते हुए दिखे. जब तक कुछ और समझ में आता तब तक फ़ोर्स के सैनिकों ने भागती हुई भीड़ पर सामने से गोलियां खोल दीं. गोलियों की आवाज़ सुन कर मैंने सोचा कि अब तक तो उन्हें बस मिल भी गई होगी और वे अब तक चले गए होंगे. डर के मारे मैंने खिड़की बंद कर दी और वापस आ कर कुर्सी पर बैठ गई.”

“फिर क्या हुआ?” शिप्रा ने पूछ तो लिया पर उसे लगा कि उसकी साँस भारी हो कर कहीं फँस गई है.

“मेरी बहन का पति दुपहर में खाना खा के अन्दर कमरे में सोया हुआ था, वह भी उठ कर बाहर आया गया. अब गोलियां चलना बंद हो चुकी थीं. हम दोनों वहीं बैठे रहे. एक सेकंड को भी नहीं हिले जब तक शाम को आ कर फ़ोर्स के लोग हमें और बाकि सब को घरों से निकल के बस स्टॉप पर नहीं ले गए. इस भाग-दौड़ में मेरे एक पैर की चप्पल कहीं गिर गई थी. एक जगह मुझे पैर के नीचे कुछ चिपचिपी सी चीज़ महसूस हुई. मैंने देखा मेरा पैर खून की एक गाढ़ी धार के ऊपर रखा हुआ है जिसमें मेरी उँगलियाँ चिपकी हुईं थी. मैंने घबरा के पैरों को वहाँ से उठाना चाहा पर मेरे पैर वहाँ से आगे ही नहीं बढ़े. हम सब को सड़क किनारे सर नीचे कर एक लाइन में बिठा दिया था. वहीं से सर नीचे किये हुए हमने वहाँ बिखरी हुई लाशों को देखा. पुलिस तब तक आ गई थी और वहाँ से एक ट्रक में लाशों को डाल कहीं ले जा रही थी. किसी को सही-सही कुछ मालूम ही नहीं था कि वहाँ क्या हुआ है और इस गोलीबारी में कितने लोग मरे. अब तक कर्फ्यू लग चुका था मैं मन ही मन ये दुआ मांगती रही कि उन्हें वहाँ पता चल गया हो कि यहाँ कर्फ्यू लग चुका है, वे आज रात वहीं कहीं रुक जायें और कल ढील के बाद ही घर वापस आयें आज नहीं. वो पूरी रात डर में और अगला दिन इंतज़ार में बीता. तीसरे दिन सफ़ेद कपडे में लिपटे हुए वह दोनों घर आये. मैंने देखा कि देबाशीष की कमीज़ कंधे से बाजू तक खून में सनी पड़ी है. सूखे खून से उसके कपड़े अकड़ गए हैं. उसकी कमीज़ उतार मैंने बार-बार उसकी नब्ज़ टटोल कर देखी पर कहीं कुछ नहीं……. सब ख़ामोश था. मैंने उसकी कलाई अपनी कलाई के ऊपर रख उसकी बंद नब्ज़ को अपनी कलाई में उतार लिया, अब उसकी नब्ज़ मेरी कलाई में चलती है. फ़ोर्स के अधिकारी कहते रहे कि उन्होंने गोलियां हमलावरों पर दागीं थी किसी बेक़सूर पर नहीं. पर मुझे पता है उन्होंने जानबूझ बेकसूर लोगों को मारा था.”

शिप्रा ने महसूस किया कि अल्लो की आवाज़ कितनी स्थिर और शांत थी. उसने सोचा कि हादसों के बीतने के सालों बाद उनमें आवेग की जगह गहरी उदासी उतर जाती है.

“सुना है कि कुछ साल पहले कोर्ट ने उस हादसे में मारे गए सभी लोगों के परिवार को मुआवज़ा देने की बात कही थी.”

“मुआवज़े का क्या करता है कोई, जो बच्चे गए वह लौट कर तो नहीं आ सकते. पर एक ये तसल्ली है कि ऐसा कह कर कोर्ट सभी मारे गए लोगों को बेकसूर मानती है.” वह बोली.

“एक तरह से कुछ न्याय तो मिला ही.”

“न्याय इतना आसन कहाँ होता है. किसके लिए कितना न्याय पूरा माना जायेगा ये पता लगाना बहुत मुश्किल है. फिर मेरे निपेन की तो अभी तक कोई सुनवाई ही नहीं हुई. उसको मारने के बाद यूँ ही फेंक गए. कहते थे कि वह किसी उग्रवादी संगठन के साथ मिल कर उगाही करता था. लोगों की कमाई में से हिस्सा मांगता और चोरी-चकारी जैसे गलत कामों में भी पड़ गया था. पर मुझे मालूम है कि ये सरासर झूठ है. उसे मार कर ऐसी बातें बना दी थीं उसके लिए. मैंने उसकी नब्ज़ भी अपनी कलाई में उतार ली है. जब तक मैं हूँ तब तक दोनों मेरे साथ जिंदा हैं. अब मेरी कलाइयों में दो-दो नब्ज़ चलती हैं दीदी.” कह कर वह चुप हो गई.

“हम सोच रहे हैं अब वापस बेंगलुरु लौट जाएँ. यहाँ सब ढंग से जम गया है दुबारा तो अब वापस लौट जाना चाहिए हमें. हमारा सर्कल है वहाँ एक छोटा घर भी है. तुम भी चलना, हमारे साथ कुछ टाइम रहना और फिर वापस लौट आना. तुम अब घर जाओ, आराम करो” शिप्रा ने उससे कहा.

6

खाने की मेज़ पर वह दोनों आमने-सामने बैठे थे. अमूमन तो वह अजीत के बगल में ही बैठती थी. पर वह जानता था जिस दिन शिप्रा को उस से कुछ विशेष कहना होता था तो ठीक सामने वाली कुर्सी पर बैठती थी. ताकि बात करते हुए आँखें एक दूसरे के चेहरे पर टिकी रहें.

“मैंने बहुत सोच कर देखा.” उसने अजीत से मुखातिब हो कर कहा.

“क्या?”

“कि हमें अल्लो और दिलचंद की आवाज़ उठाने में हेल्प करनी चाहिए. जब एक अनजान लड़की उन मारे गए अपरिचितों के लिए खड़ी हो सकती है तो हम क्यों नहीं?”

“क्योंकि वह इनकी अपनी है. उसके और इनके उस ज़मीन के साथ साझे दुःख हैं. इन मुश्किलों से, दुखों से उबरने का रास्ता भी वही लोग साथ मिल के निकालेंगे शिप्रा. हम कोई नहीं हैं, न हमें बीच में कूदना चाहिए.” अजीत ने कहा.

“मन किसी के साथ जहाँ से जुड़ना चाहे वहीं से जुड़ जाता है. भावना से जुड़ने के लिए इतने तीन-पाँच कहाँ देखता है मन. उसके दोनों बच्चे सिस्टम के हाथों मारे गए हैं. एक को कुछ न्याय मिला अब दूसरे के लिए किसी को कोशिश करनी होगी.”

“अब तुम अफस्पा हटाने की मुहीम चलाओगी?”

“जो चीज़ मेरे हाथ में नहीं है उसका तो कुछ किया नहीं जा सकता पर बाकी चीजों के लिए तो कोशिश की ही जा सकती है.”

“और ये बाकी चीज़ें क्या हैं? इनके लिए पैसा कहाँ से आएगा? उन दोनों के पास तो धेला भी नहीं होगा.”

“ये बाकी चीज़ें हैं सिस्टम के हर उस दरवाजे को खटखटाना जहाँ से इनके लिए कोई उम्मीद जगे, सुनवाई हो. हर जगह चिठ्ठियाँ भेजेंगे हम जब तक कि इनके सपोर्ट में कहीं से जवाब न आये. कुमु के जाने के बाद मेरे अंदर जो ख़ालीपन आया है न वह शायद ऐसे ही भरे. मैंने तय कर लिया है कि अब क्या करना है.” शिप्रा की आवाज़ में निश्चय किये जाने के बाद वाली तटस्थता थी.

“जब तय कर ही लिया है तो गो अहेड.” कहता हुआ अजीत कमरे से बाहर निकल गया.

………………

अजीत ने कमरे में झांक कर देखा. कुमु की आराम कुर्सी पर बैठे-बैठे शिप्रा जाने कब से गहरी नींद में सोयी थी. पास ही ज़मीन पर गद्दा बिछाए अल्लो भी सो रही थी. जब से वे वापस लौटे हैं शिप्रा का ज़्यादातर समय इसी कमरे में बीतता है. कुमु के इस कमरे को स्टडी में बदल अब सारी लिखाई पढाई का काम वह यहीं से करती है. अजीत ने देखा मेज़ पर रखा टेबल लैंप जल रहा था और वहीं नज़दीक शिप्रा का खुला लैपटॉप रखा हुआ था. वह दबे पाँव लैंप बुझाने के लिए कमरे में घुसा तो नज़र लैपटॉप में खुले पत्र पर पड़ गई. वह न चाहते हुए भी उस पत्र को पढने लगा.

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02/08/2020

माननीय राष्ट्रपति

भारत गणराज्य ,

नई दिल्ली.

आदरणीय प्रणाम,
मैं भारत गणराज्य की एक आम नागरिक हूँ और भारत गणराज्य की ही एक और आम नागरिकआर. अहोलोइबी सिन्हा’ (जो कि मणिपुर राज्य की मूल निवासी है, और विगत कई वर्षों से पहले आगरा अब बेंगलुरु में मेरे यहाँ घरेलू सहायिका है) और उनके पतिएस. दिलचंद  सिन्हाकी तरफ़ से आपसे प्रार्थनाबद्ध हूँ. मैं आपको ये पत्र बहुत आशा से लिख रही हूँ कि आपके द्वारा इसका संज्ञान लिया जायेगा एवंआर. अहोलोइबी सिन्हाऔर उनके पतिएस. दिलचंद सिन्हाको आपसे न्याय की जो उम्मीद है वह उन्हें मिलेगा.

माननीय मैं आपके संज्ञान में लाना चाहती हूँ किआर. अहोलोइबी सिन्हाऔरएस. दिलचंद सिन्हाके उन्नीस वर्षीय छोटे पुत्रएस. निपेन सिन्हासत्ताईस सितम्बर दो हज़ार एक (27/09/2001) में अपने गाँवलाम्ज़ाओतोंग्बासे अपने खेत में काम करते वक़्त ग़ायब हो गए थे. बाद में उनका शव उनके मातापिता को मिला.एस. निपेन सिन्हाके मातापिता को लगता है कि उसे संभवतः सशस्त्र बल के अधिकारियों द्वार पहले ग़ायब कर बाद में मार दिया गया हो.

मैं आपके संज्ञान में ये भी लाना चाहती हूँ कि ये वृद्ध मातापिता साल दो हज़ार (2000) में मलोम में हुए भीषण नरसंहार के पीड़ित भी हैं. ये उस दुर्भाग्यपूर्ण घटना में अपने बड़े पुत्रएस. देबाशीष सिन्हाको खो चुके हैं.

माननीय एक वर्ष के भीतर ही अपने दोनों तरुण पुत्रों को खो देने के बाद ये मातापिता मानसिक और शारीरिक रूप से व्यथित हो एवं खुद को सुरक्षित समझते हुए साल दो हज़ार तीन (2003) में मणिपुर छोड़ आगरा कर बस गए थे. जहाँ कालान्तर में ये हमारे एवं अन्य लोगों के यहाँ घरेलू सहायकों के रूप में काम करते हुए अपना जीवन यापन करते रहे.

आपको पत्र प्रेषित करने से पहले भी मैंने राज्य के कई सम्बंधित कार्यालयों में पत्र भेजे हैं परन्तु कहीं से कोई उत्तर नहीं पा कर आपसे न्याय की उम्मीद लगाई है. वे सभी पत्र आपके अवलोकनार्थ इस पत्र के साथ संलग्न हैं. मुझे उम्मीद है कि आप इस वृद्ध जोड़े की न्याय की इस आशा को टूटने नहीं देंगे और आप ये भी समझेंगे कि किस भय के कारण ये इतने वर्षों तक चुप रहे. आपसे विनती है कि आप इन विगत वर्षों के अन्तराल को इस प्रक्रिया में बाधा मान इनकी प्रार्थना पर गौर करेंगे.

सधन्यवाद .
प्रार्थी
शिप्रा ऋषि
बेंगलुरु

सूचनार्थ प्रतिलिपि
प्रधानमंत्री कार्यालय, नई दिल्ली
मुख्य न्यायधीशउच्चतम न्यायालय, नई दिल्ली
मुख्यमंत्री कार्यालय, मणिपुर

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अजीत ने चिठ्ठी पढ़, एक गहरी सांस खींच लैपटॉप बंद कर दिया. उसकी नज़र टेबल लैंप के नीचे दबे हुए एक फड़फड़ाते कागज़ पर पड़ी. उसने कागज़ बाहर खींचा और देखा कि कागज़ पर बिशनुप्रिया समुदाय के प्रसिद्द कवि ‘गोकुलानंद सिंगा’ की एक कविता का अंश लिखा हुआ है. उसने पढ़ना शुरू किया.

ओजनान अधर्मा घुमाताई कोटि, उठा आजी हबिहान ज्वालेया चेई जनानोर बाती.
(अज्ञान के अन्धकार में तुम और कितनी देर सोओगे, तुम को आज जागना होगा और ज्ञान का दीपक जलाने के बाद सामने देखना है)

अजीत ने कागज़ को वापस वैसे ही लैंप के नीचे दबा धीरे से शिप्रा को जगाया.
“चलो कमरे में चल के आराम से सोओ, बहुत काम किया आज.”
फिर शिप्रा का हाथ थामे, बत्ती बंद कर जैसे दबे पांव वह कमरे में दाख़िल हुआ था वैसे ही चुपचाप कमरे से बाहर निकल गया.

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अनघ शर्मा चर्चित युवा कहानीकार हैं. उनसे anaghsharma@hotmail.com पर बात की जा सकती है.

 

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