कहानी ::
अविनाश

पीड़ा का एक शाश्वत सिद्धांत है कि उसकी तय समय-सीमा होती है, जिसके बाद वह निर्जीव हो जाती है. बड़ी से बड़ी दुर्घटना के बाद भी आपके पास स्मृति के कुछ छींटे रहते हैं जिनके साथ आप सांस ले रहे होते हैं, घर के काम कर रहे होते हैं, जीवन जी रहे होते हैं. मुझे अपने पिता की मृत्यु का दिन याद है, मैं दुखी था. जीवन में पहली मर्तबा कुछ स्वाभाविक था. पिता के मामले में चीज़ें इतनी आसान नहीं होती थीं. शब्द उन अनजान घेरों में गिरते थे जहां सबकुछ निरक्षर प्रतीत होता था. जैसे कि जीवन में हर क़दम के साथ, पिता का हाथ छोटा और छोटा होता जा रहा है.
वह गर्मी का दिन था, सभी भागलपुर घाट को छोड़ गए थे. मैं जड़वत था. वह भावनाएं जो मुझपर तारी होनी चाहिए थीं, शून्य में मिल गईं थीं. पिता अपने तयशुदा स्वर्ग की ओर कूच कर रहे थे. मैं केवल इतना चाहता था कि वह वहां पहुँच जाएँ और अंततः ढंग से सांस ले सकें. सांस लें और सांस छोड़ें. अब जबकि उनके पास देह ख़र्च करने को नहीं थी. मैं चाहता था कि वह वहां आराम से सुरक्षित पहुँच जाएँ. उनके स्वर्ग का रास्ता यूं तो चिता की ओर से था और मैंने उन्हें मुर्दों की नदी में फेंक दिया था. धूप असहनीय थी. कुछ देर तक कर्म-काण्ड की आभासी प्रक्रिया में व्यस्त तन ने चिलचिलाते धूप के भास को भुलाये रखा था. अकेले होने और परिस्थिति को आंकने के क्रम में बाधा बन रहे सूर्य का ध्यान आया. मैं घाट की दूसरी तरफ़, झाड़ियों के पास आसरा लेने चला. वहां पहुँच कर मैंने राहत की सांस ली. उस तरह की राहत, जिस तरह की शायद मेरे पिता ने महसूस की हो जब उन्होंने साँस लेना छोड़ा था. मृत्यु के शैतानों के आने से पहले का एक संक्षिप्त आलाप. थके फेफड़ों को चैन की नींद. स्मृतियों की बौछार से मैं घिर गया. मुझे अपने विचारों को एकीकृत करने की, उन्हें सलीके से तह करने की ज़रुरत थी. एकाग्र होने के कुछ असफ़ल प्रयासों के बाद, किसी पुरानी मोटर-बाइक के दिपदिपाते ‘खर्र’ की आवाज़ ने मेरा ध्यान बन रही विचार शृंखला से दूर, अपनी ओर खींचा. मेरे आस-पास यादों की लड़ी तन गई थी , जिन्हें उठा कर मुझे कहानी के स्वेटर में बुनना था. इस तरीके से बुना जाना था कि उससे मेरे पिता की याद को कोई चित्र मिल जाए. वह चित्र जो मैं यहां से ले जाऊँगा. अंतिम दृश्य. वह जिसे सख्ती से टेप नहीं किया गया हो. वह जो सांस ले सकता हो. वह जो उन्हें पुनः एक जीवित रूप दे सके; मरने से पहले का ढांचा. वह जिसे वह कम्बल की तरह ओढ़े रहते थे, हमें अपने पिता होने के नाटक में छलते हुए.
मैं सोचता हूं उनकी किन स्मृतियों को माँ अपने पास बचाएगी- वह जिसे सबकुछ समेटना था और अंत में बिखरे हुए के जंजाल में फ़ैल गया, या फिर वह जो दुनिया से बचा कर उनके आँचल में छिप कर नींद पाता था.
मैं इसी उहापोह में फंसा था कि किसी के रोने की आवाज़ मेरे पास आती हुई प्रतीत हुई. मैं अपने दुःख के आगे का दुःख भांपने लगा. कोई है जिसे इसी वक़्त दुःख का कोई अलग दृश्य दिखा है. कोई है जिसे उस रंग की पीड़ा अनुभूति हुई है, जो मुझसे अछूता है. कोई है जिसे सांत्वना की, कंधे की, एक मामूली साथ की, मुझसे ज़्यादा ज़रुरत है.
मैं इंतज़ार करता रहा उसके आने का. इस छाँव में उसके दर्द को जानने का, अपनी कमजोरियों को बताने का, एक-दूसरे को असाधारण साथ का भ्रम दिलाने का. वह रोना अब सिसकियों में बदल गया था, और मेरे और क़रीब आ रहा था. मैं अपनी स्थिति भूलकर आने वाले साक्षात्कार के लिए ख़ुद को तैयार कर रहा था. मुझमें एक अजीब भय पसर गया. मैं गायब हो जाना चाहता था, पर सबकुछ देखना-सुनना भी चाहता था. विडंबनात्मक.
वह कोई उन्नीस-बीस की लड़की होगी. वह मेरे से कुछ दूर पर बैठी. एकांत में ख़ुद को समझने की इच्छा लिए जब मैं उसकी तरफ़ प्रश्नवाचक निगाहों से देखता उसे दिखा, वह असहज हो गई. उसने धानी रंग की सलवार क़मीज़  पहनी थी, जिसके पल्लू से उसने अपने आंसू पोछे. मैं सहम कर दूसरी ओर देखने लगा. वह थोड़ी देर में सहज हुई, फिर एक स्नेहिल मुस्कान के साथ मुझे निहारा. हमारी नज़रें मिल गईं. हम शायद एक दूजे की व्यथा को आंक रहे थे.
मैं उसके बारे में अभी तक कोई राय नहीं बना पाया था कि तभी उसने मुझसे कहा, “कोई अपना गया ?”
मुझे कोई जवाब नहीं सूझा, बस उसे एकटक देखता रहा. फिर उसकी झेंप से मुझे स्मरण हो आया की उसने कुछ पूछा था. मैंने कहा, “अपना या पराया, जाने वाले को देख कर कौन दुखी नहीं होता.” उसने एक बोझिल मुस्कान मेरी तरफ़ उछाल दी. हम दोनों अब शांत थे. वाक्यों के निर्माण के पहले हमारी भाषा बन रही थी. उसके व्याकरणिक नियम ख़ुद को हम पर खोल रहे थे. वह दूब के साथ व्यस्त थी. अनंत की ओर झांकती, कनखियों से अदृश्य को छू लेना चाहती थी .
“रोना दुःख को हल्का करता है?”
“चोट लगने पर रोया जाता है.”
“आपको चोट लगी है?”
वह शांत हो गई. उसने घूरने के तरीके से मुझे देखा, फिर दूब नोचने लगी. बुदबुदाई, पर मैंने पूछने की हिम्मत नहीं की, कि वह क्या बोल गई. हम दोनों खाली हो जाना चाहते थे, पर अकारण व्यक्ति अपने मन की गाँठ कहां खोलता है.
“आप यहां अकेले क्यों बैठे हैं?”
“कुछ समझने की कोशिश में था.”
“आया समझ?”
“नहीं, शायद कभी न आए”
“तो फिर समझ तो आया”
मैं उसकी ओर उसी प्रश्नवाचक निगाह से देखने लगा.
“अरे, मेरा मतलब, कुछ चीज़ें कभी समझी नहीं जा सकतीं, यह जान-समझ लेना बड़ी बात है”
मैं उसकी विह्वल कोमलता पर मुस्कुरा दिया. बदले में उसने भी छुईमुई सी कोमलता ओढ़े एक मुस्कान छेड़ दी.
“आपने बताया नहीं आपको चोट कहां लगी?”
“आपने भी तो नहीं बताया की कौन अपना था?”
“अपना…”
“हाँ, दूसरों की मौत समझ आती है, अपनों की नहीं”
मैं जैसे किसी सांवले-से, दुबले-पतले संत की शरण में आ गया था. कितना आसान होता है, देखना. देखना इस तरह कि आपकी सारी कलई खुल जाए. मैं स्तब्ध था. वर्तमान में अटक गया था. मेरी सारी स्मृतियाँ कहीं खो गईं थीं. मैं उससे लगातार बात करना चाहता था.
“आपका कोई अपना गया है?”
“हाँ, बहुत पहले, मेरे दादू.”
“ओह्ह”
“अभी तो लगभग हर दूसरे का कोई अपना जा रहा है.”
मैं शांत रहा.
“मैं यहां अकेले नहीं आई थी, गुड्डू आया था.”
मैं उसकी ओर देखता रहा.
“वह बाइक पर घुमाने के लिए लाया था, लेकिन ज़बरदस्ती कर रहा था. मैंने मना किया तो वह नाराज़ हो गया. उसने मुझे कूल्हों पर जूते से मारा, और फिर अकेला छोड़कर भाग गया.”
वह मुझसे कुछ सुनना चाहती थी, पर मेरे पास शब्द नहीं थे. मौनी बाबा की तरह ही ज़रूरी जगहों पर मैं शब्दहीनता का देवता बन जाता हूं. मैंने नज़रें नीची कर लीं. उसने कोई प्रतिक्रिया न मिलने पर भी ज़ारी रखा –
“मेरा घर यहां से आठ किलोमीटर है, मैं जा सकती थी पैदल, पर सोचा कुछ देर आराम कर लूं”
“वो लड़का, कहां का है?’
“गुड्डू”
“हाँ, वही”
“वह मेरे गाँव का ही है, अब नाराज़ हो गया है. पता न अब बात होगी या नहीं”
“तुम बात करोगी उससे”
“हाँ, क्यों नहीं”
मेरा तार्किक मन उसके ह्रदय की कोमलता स्पर्श करने में असफ़ल था. मैं बस उसकी ओर देखता रहा. कुछ देर तक हम दोनों यूंही बैठे रहे, फिर वह अचानक बोल उठी, “मुझे उसे मनाना चाहिए.”
वह उठ कर चली गई. मैं उसे जाते हुए देखता रहा. मैं यहां क्यों बैठा हूं? क्या सभी दुःख किसी वैलिडिटी के साथ आते हैं. क्या वह दुखी थी? क्या मैं दुखी था?

●●●

अविनाश कवि लेखक हैं. उनसे amdavinash97@gmail.com पर बात हो सकती है. इंद्रधनुष पर उनके पूर्व-प्रकाशित कार्य के लिए देखें : एक कविता और, और फिर, एक जीवन और

Categorized in:

Tagged in: