गद्य::
सौरभ पांडेय

स्वप्न बुक

“एक पक्षी के मरने पर कितने आसमान समाप्त हो जाते हैं”
– नवारुण भट्टाचार्य

सारी ध्वनियां दृश्य में रही हैं। मैं उन दृश्यों से भयभीत, उन्हें एक स्वप्न की तरह नोट कर रहा हूं।

स्वप्न

मुझे हाइड्रोफोबिया है। मुझे ऐसा लग रहा है कि मेरे आस पास की सारी चीजें, मेरे सारे खयाल, मेरे सारे अहसास जाने क्यूं किसी नदी में तैरने को बेचैन हैं।मैं पुल के एक छोर पर खड़ा सब कुछ देख रहा हूं। पुल हिल रहा है। एक भारी भीड़ पुल पर टहल रही है। मुझे अब अपने अहसासों के डूबने से ज्यादा डर इन लोगों के पुल से गिरने का लग रहा है। इनमें से मेरा कोई अपना नहीं लेकिन कोई पराया भी नहीं लग रहा है। एक औरत लाल साड़ी और दोनो हाथों में ढेर सारी चूड़ियों पहने हुए, अपने बच्चे की लाश को गोद में लिए, पुल पर चली जा रही है। बच्चे का चेहरा बिल्कुल किसी भगवान की तरह लग रहा है। पुल ज़ोर-ज़ोर से हिल रहा है। एक भिखारी नशे में कोई सूफ़ी गीत गा रहा है जिसकी हर पंक्ति में संगीत शुष्क होता जा रहा है। एक गाय और उसके पीछे एक सांड; दोनों अपनी जगह पर खड़े हुए संदिग्ध जान पड़ रहे हैं। पुल लोहे का है। दोनों तरफ तारों से बंधा हुआ है।

एक व्यक्ति कांपते पुल पर सेल्फी वीडियो रिकॉर्ड करते हुए ज़ोर-ज़ोर से चीख रहा है।

मैं खुद को आतंकित होने से बचाने के लिए वहां से उठकर, पुल की तरफ पीठ करके, आगे बढ़ने लगा हूं। मेरे आगे बढ़ते ही पानी में छपाक की आवाज के साथ पूरा पुल गिर गया, लेकिन लोग वैसे के वैसे ही हवा में टंग गए हैं। मैं हल्का सा मुड़कर जैसे ही पीछे देखता हूं, सब लोग अपने-अपने भार से पानी में आवाज़ करते हुए गिर जाते हैं। सिर्फ वह मरा हुए बच्चा जिसकी सूरत किसी भगवान से मिलती जुलती थी- वह तैरता हुआ पुल के पार आ गया है। वह अपनी मृत्यु शैय्या से उठकर अपने नन्हे-नन्हे कदमों से मेरी तरफ बढ़ता आ रहा है। मैं और तेजी से आगे बढ़ रहा हूं। बच्चे के हर कदम के साथ उसकी उम्र एक्सपोनेंशियली बढ़ती जा रही है। अचानक से मेरे पीछे मेरे कंधे पर किसी ने हाथ फेरा। मै चौंक कर देखता हूं कि पीछे अब वह बच्चा कहीं नहीं है। जबकि जो हाथ मेरे कंधे पर है- वहा मेरे पिता का है। उनकी कलाई में मां की लाल चूड़ियां खनक रही हैं। मैं उन्हें ऊपर से नीचे देख रहा हूं। वह हँस कर कहते हैं-  “तुम कहां भाग रहे हो”। मै वहीं जम गया।
“आओ चलो मैं भी तुम्हारे साथ ही चलता हूं, बहुत दिनों से तुम अकेले दिखाई दे रहे हो।”सातवें कदम में ही उनकी सांसें उखड़ने लगी हैं। मैं उन्हें कंधे से संभालते हुए सीधा खड़ा कर रहा हूं। उनकी खांसी की आवाज़ इतनी तीखी और तेज़ है कि मैं उसे अपने कानों से सुन भी नहीं पा रहा हूं। मैं उन्हें आगे डॉक्टर के पास तक ले जाना चाह रहा हूं, अगले कुछ ही कदमों में शायद वह फिर से मर जाएंगे, यह जानते हुए भी मैं उन्हें अपने साथ आगे लिए चलता हूं।दसवें कदम में ही उन्होंने दम तोड़ दिया। अब मेरे गोद में मेरे पिता की लाश पड़ी है, और उनकी सूख चुकी पतली कलाइयों से मां की लाल चूड़ियां बाहर आ रही हैं। मैं उन चूड़ियों को उनके हाथों से निकाल कर अपने हाथों में पहनने की कोशिश करता हूं, लेकिन सारी की सारी एक ही कोशिश में टूट जाती हैं। मै अपने बाप की लाश को गोद में उठाए घर की तरफ बढ़े जा रहा हूं। कुछ ही कदमों में लाश सड़ गई। एक गन्दी बदबू मुझे बेहोश किए जा रही है। मैं यह सड़ी हुए लाश लिए जाने क्यूं चल रहा हूं। इस लाश में सिर्फ मानवीय यथार्थ का सबसे घटिया रूपक ही शेष बचा हुआ है।

कुछ और कदम चलने पर मेरी गोद में अब सिर्फ उनकी देह का कंकाल ही बचा हुआ है।
मैंने उस कंकाल को सबसे छुपते-छुपाते रोड के किनारे, कूड़े के ढेर के पास फेंक दिया है।
वहां पर एक गाय और एक साँढ़ संदिग्ध अवस्था में खड़े हैं।

महानदी के लिए

रस्सी के पुल पर मछलियां लटक रही थीं, जिनके संभोग और अलग–अलग सेक्सुअलिटी के बारे में विचार करते हुए मुझे याद आया कि नदी में गिद्ध और बाज तैर रहे हैं। मैंने यह दृश्य देखा नहीं था बल्कि मैं याद कर रहा था। मैं जब भी उसके साथ होता तो मैं दो लगातार चीजें देखने के बीच में एक असंभव परिदृश्य याद कर लेता था, इस बात से परेशान होकर कि इस असंभावना ने मेरे भीतर स्मृति का रूप कैसे ले लिया?
मैं फिर देखना भूल जाता था। यह निश्चित रूप से उसी की उपस्थिति थी। मैं अभी-अभी दुनिया देख रहा था, जो कि पहले एक चीनी मिट्टी की  प्लेट में परोसी गई थी लेकिन इतनी हिंसा कि सबसे पहले प्लेट टूट गई। इसके बाद मैं देख नहीं सका और तुरंत याद करने लगा कि कैसे अचानक अपने कमरे में मैंने एक चीनी मिट्टी का चम्मच तोड़ दिया था जिसमें से एक औरत निकली थी। जिस पर धूप जैसे ही पड़ी वो प्रेगनेंट हो गई। डिलीवरी के टाइम पर एक लड़की पैदा हुई। जिसके एक हाथ में सूरजमुखी का फूल था, तो दूसरे कंधे पर एक अंधी गिलहरी बैठी हुई थी। मैं कोशिश कर, अपने भीतर की सारी दया निचोड़ कर भी उस अंधी गिलहरी के लिए हमदर्दी नहीं जगा सका। जो लड़की पैदा हुई थी, वही आज मेरे साथ है। जो मां का दूध पीने की जगह सूरजमुखी की पंखुड़ियां खाती रही।
हम एक पुल पर खड़े थे। जहां से सबसे करीब थी मृत्यु! लेकिन पुल के नीचे महानदी बह रही थी। हम दोनों पुल की बाईं तरफ खड़े थे । हमारे बगल से कार और बाइक सवार गुजर रहे थे। महानदी बिलकुल शांत और अपने प्रवाह की चौड़ाईयों को समेटती हुई, उसी पुल के नीचे खड़ी थी।
गिद्ध और बाज, इन्हें तैरता देख मैं अब इस सवाल का जवाब ढूंढने की कोशिश का रहा था कि मैं कहां हूं? “मैं एक लड़की के साथ हूं”। लेकिन यह जवाब भी मेरे लिए काफी नहीं था। मैंने नदी के पानी से पौने दो इंच ऊपर देखा, कुछ नहीं था। फिर मैं वहां से अपनी नजरें एक–एक इंच ऊपर–नीचे करके ये देखने लगा कि क्या इस तरह की तीव्र इच्छा से कोई मेरे देखने के दायरे में खुद को साबित कर सकता है? इस सवाल को कैद करती हुई एक आवाज़ सवाल को अपने साथ ले गई। कोई ठेले पर सिंघाड़े लादे आगे बढ़ रहा था।
लड़की के घुटने में चोट लगी है। वह पुल पर मेरे कंधे का सहारा लेकर खड़ी है। मेरे कंधे पर उसकी उंगलियों का सिकुड़ना लगातार मुझमें यह भाव जगा रहा है कि मैं उसे इसी नदी में ढकेल कर खुद भी कूद जाऊं और ज्यादा भारी होने की वजह से नदी में पहले मैं गिर कर मरूं।
“सुनने में आता है, नदी के पास जो उद्गम स्थल है वो, बहुत पहाड़ी नहीं है और लोग ये भी कहने लगे हैं कि महानदी सिर्फ बंगाल की खाड़ी जाने के लिए ही बह रही है। कुछ बंगाली प्रेम लगता है।”
ये बात बोलते हुए उसने मोबाइल से नदी की कुछ तस्वीरें ले ली हैं। नदी बादलों के विक्षोभ में, अपने किनारों को समेटती हुई बह रही है। नदी बह रही है, या बस नदी है। उसके मोबाइल की तस्वीरें देखते हुए मुझे गंगा की स्मृतियां खाए जा रही हैं।
“नदियों को तस्वीरों से नहीं पहचाना जा सकता है, उसके लिए उनके घाट निहारने पड़ते हैं।”
मैं यह वाक्य उन तस्वीरों को देखते हुए किसी सूक्ति की तरह बोल पड़ा।
सब कुछ अलग घट रहा था। हम दोनों जीवित थे और एक दूसरे से अलग, दूसरी दुनिया की तरह उस नदी को देख रहे थे। जिसका मृत प्रवाह ये संकेत दे रहा था कि नदी सूख चुकी है, अगले मानसून तक के लिए।

नृत्य

वह बिना किसी संगीत के नृत्य कर रही थी। उसके नृत्य के दौरान उसकी पायल पूरी देह का संगीत लिए बज रही थी। मैं उन पायलों का दैहिक संगीत सुनते हुए खुद को ये विश्वास दिला रहा था कि स्त्री-देह असल में संगीत की मूर्धन्यता का आवाहन है। जब भी वह एक पाँव पर पूरे शरीर को 360 अंश घुमाकर छोड़ देती तो ऐसा लगता कि उसकी देह के आधार के चौतरफा एक वृत्त सा बन गया है, जो उसकी नाभि के लम्बवत है। वृत्त -जिसमें  सिमटा जा रहा था समूचा सौरमंडल और धरती का गुरुत्वाकर्षण, उस सिमटने के साथ ही साथ अपकेंद्रित प्रेम मेरे भीतर पानी में तरंग की तरह फैल रहा था ।
नृत्य की बिल्कुल शुरुआत में उसके दोनों हाथ सटे हुए धरती की तरफ इंगित थे। जैसे ही उसने शुरू किया, उसके दोनों हाथों की हथेलियां एक क्षण को विस्थापन का अपार दुख लिये उसकी देह से दूर जा रहीं थी, तो अगले ही क्षण संस्थापन के मोह में उसके वक्षों के बीचों-बीच आकर ठहर जा रही थीं।  उसकी देह की चपलता से एक विद्युतीय तरंग मेर देह को झकझोर रही थी। मुझे उन तरंगों से राहत तब मिलती जब वो अपनी एड़ियों को धरती में धंसा कर अपनी कमर पर धरती के स्पंदनों को आकृति देती। आकृतियों की हर स्वतंत्र कोटि से ऊर्जा और सम्मोहन का सतत बहाव चतुर्विमीय था। उसके वक्षों में एक नैसर्गिक उछाल था, जो समय को लगातार परावर्तित कर रहा था।
जब वह अपने एक पैर को पूरा फैला कर दूसरे पैर के घुटने को थोड़ा सिकोड़ लेती और फिर फैले हुए पैर की तरफ अपने दोनों हाथों को ऊपर उठाकर अपनी कमर को चंद्राकार मोड़ती; तो लगता कि उसकी गर्दन से स्रावित होता हुआ; किसी राग की कोई सरगम, कोई गीत उसकी कमर तक खुद को उच्चारित कर रहा है। कमर की एक तरफ की सिकुड़न और दूसरे तरफ के खिंचाव को देख कर ऐसा लग रहा था कि सारे किन्नर उसके कमर पर अपनी हथेलियों के रखे हुए संगीत के दीक्षांत में हैं।

जब भी वह अपनी गर्दन को आगे पीछे या किसी कोण पर दाएं बाएं हिलाती तो उसके होंठों पर एक हंसी अनायास ही छा जाती थी। नाचते हुए उसकी आंखें मेरी आंखें खोज रही  थीं, लेकिन जब भी मैं उसकी आंखों में देखता तो मुझे मेरा अस्तित्व अवसाद ग्रसित दिखाई देने लगता।  उसने नाचने के  लिए अपने पीठ तक लंबे बालों को एक भंवर की तरह अपने सिर पर लपेट कर जूड़े में बदल दिया था, जिसमें मैं किसी नदी की कल्पना करने की बजाए अपने भीतर की उष्णता की कल्पना कर रहा था। वह नाच रही थी। उसके कान के छोटे झुमके चहक रहे थे। उसके चेहरे की मांसपेशियों में भावों की अनंतता विस्तार ले रही थी।
उसके दोनों कंधे यमक अलंकार के उदाहरण की तरह अपने अर्थों को बदलते हुए देह से पलायित हो जाना चाह रहे थे।  वह निश्चित रूप से कोई ऐसा नृत्य कर रही थी जिसे देखते हुए भाषा, भाव और व्याकरण की मौलिकता सीखी जा सकती थी।

बीरू, काया और शानो

निर्मल और बलदेव वैद को एक साथ पढ़ने का सुख ऐसा भी होगा मुझे नहीं लगता था–
लाल टीन की छत, एक चिथड़ा सुख, उसका बचपन और एक नौकरानी की डायरी को लगभग एक साथ पढ़ने के बाद ऐसा लग रहा है कि बीरू और काया एक दूसरे के साथ खेल रहे हैं। जिसमें बीच–बीच में काया बीरू को समझा रही है कि अपनी मां के बारे में ऐसा नहीं सोचते। खेलते हुए बीरू उससे कहता है कि “तुम्हें क्या, तुम्हारी मां तो मर ही जायेगी कुछ दिनों में, मेरी मां नहीं मरने वाली, भले मैं उसके बारे में कुछ भी सोचता रहूं।”
बीरू और काया को खेलता देख कर शानो सोचती है कि “कैसी अजीब लड़की है, इस धूल से सने लड़के के साथ खेल रही है। नहीं, ठीक ही है। इस छोटे से पिद्दे को देखो, इसी उम्र से अमीर घर की लड़कियों के साथ चिपकना शुरू कर दिया है। इस लड़की की फ्रॉक ज़रूर इसका बाप ले आया होगा। हां वही लाया होगा इस बार, मां तो बेचारी उठने के लायक भी नहीं है इसकी।”
शानो इसके बाद बीरू और काया को देखना बंद कर देती है और वापिस अपने घर की कुंडी खोलती है। जिसमें उसका भाई लेटा हुआ है जो कई महीनों से तेज बुखार से उबर नहीं पा रहा है। बीरू, काया के साथ जाखू के पहाड़ चढ़ रहा है। शानो बीरू की गन्दी शर्ट और काया की चमकती फ्रॉक के बारे में अपनी डायरी में लिख रही है। उसका भाई खांस रहा है।

***

सौरभ पांडेय हिंदी की सबसे नयी पीढ़ी से आने वाले कवि-गद्यकार हैं. उनसे sourabhkavi123@gmail.com पर बात हो सकती है.

Categorized in:

Tagged in: