कहानी ::
सौरभ पाण्डेय

सौरभ पाण्डेय

1
मैं पेंसिल की लकीरों में छुपा हुआ पापा का पुराना चेहरा देख रहा था. अब पापा का चेहरा बहुत बदल गया है. मेरी उनसे कभी कोई खास घनिष्ठता नहीं रही, वजह कुछ खास नहीं, शायद ईडिपस कॉम्प्लेक्स भी हो सकता है. असल में उन्हें बिल्कुल सादा जीवन पसंद है. बिल्कुल सादा जीवन जीना मुझे चौबीसों घंटे कैमरे की नजर में रहने जैसा लगता है. मैं जब से पापा को देख रहा हूँ, वो उसी कैमरे की नजर में हैं. वे डरते हैं कि कहीं कोई उन्हें देख ना ले. किस रूप में? ये भी शायद वो ही जानते हों. शायद वो रूप कोई अपराध हो उस कैमरा-ऑपरेटर की नजर में, लेकिन मुझे ये भी पता है कि वो कैमरा-ऑपरेटर कहीं नहीं होगा. बिल्कुल बिग बॉस (शो)की तरह. हाँ, बिग बॉस का जिक्र इस लिए भी क्योंकि पापा आए- गए बिग बॉस देख लेतें हैं. कोई रुटीन नहीं होता लेकिन शो के लिए सक्रिय रहते हैं.
पापा का एक पुराना पेंसिल स्केच था, जो आज मुझे अपनी कुछ पुरानी किताबें ढूंढ़ते हुए मिल गया. जिस दिन ये स्केच बन रहा था उस दिन पापा लॉन में कुर्सी डालकर बैठे हुए थे. मैंने तभी देखा, लॉन में रजनीश भाई भी बैठे थे. रजनीश भाई हमारे पड़ोस के घर के सबसे बड़े लड़के हैं. उनसे छोटी उनकी एक बहन रीति और एक छोटा भाई रोहित है.
वो पापा के ठीक सामने बैठे थे. शायद उनकी हाइट भी पापा के बराबर ही रही होगी. मैं सुबह सुबह सो कर उठा था. हल्की सर्दी के कारण सीधा लॉन में धूप लेने चला गया. मैं पापा के पीछे घास पर बैठ गया. रजनीश भाई कभी-कभी झुक कर इधर-उधर देखते तो उनका चेहरा जरा सा नजर आ जाता, मानो पापा मेरे और रजनीश भाई के बीच ग्रहण की तरह बैठे थे. यह ग्रहण तब तक चला जब तक कि खगोल वैज्ञानिक ने ग्रहण की तस्वीर नहीं ले ली. घंटे भर से कम में ही रजनीश भाई ने पापा को पेंसिल से कागज़ पर खींच दिया था. मैं अपनी छोटी उम्र के आश्चर्य को संभालते हुए भी ये मानने को तैयार नहीं था कि कोई  सिर्फ  पेंसिल से ही किसी का इतना सटीक चेहरा बना सकता है. वही पेंसिल जो मां मुझे सुबह लिखने को देती थी और मैं दोपहर तक उसे गढ़- गढ़ कर ख़तम कर देता था (मुझे पेंसिल से लिखना बहुत पसंद है), बाद में भईया की  क्लास के बाहर खड़े हो कर रोता था, फिर वो मुझे एक नई पेंसिल के साथ मेरी क्लास में छोड़ कर आते थे.
शायद मां उन्हें एक पेंसिल ज्यादा देती होगी मेरे लिए, तभी तो हर बार उनके पास मेरे लिए एक पेंसिल एक्स्ट्रा होती थी या शायद इस लिए भी क्योंकि भईया का लिखने में कोई इंट्रेस्ट नहीं था. उनकी किसी भी सब्जेक्ट की कोई भी कॉपी कंप्लीट नहीं रहती थी. ये बात जब पापा को पता चली थी तो उन्होंने ने भईया को बहुत बुरी तरह डांटा था और शायद मार भी पड़ी थी.मेरे स्कूल जाने के दूसरे ही साल भईया पेन वाली क्लास में चले गए. ये मेरे लिए ज़िम्मेदारी का पहला सबक था.इंसान कितनी छोटी उम्र से ही ज़िम्मेदार होने लगता है.
स्केच को देखते हुए मेरे दिमाग में “ शाकालाका बूम- बूम” (जादुई पेंसिल पर आधारित एक धारावाहिक) घूमने लगा. ऐसा लग रहा था कि रजनीश भाई ने पहले कागज़ पर कुछ बनाया होगा और फिर पापा अचानक से कुर्सी पर प्रकट हो गए होंगे. हो सकता है कि ऐसा ही हुआ हो. तभी तो पापा रजनीश भाई को हमेशा भईया से बेहतर मानते थे. काश! भईया को स्केच बनाना आता तो इतनी मार नहीं पड़ती. ख़ैर, भईया को शायद मार खाना आता था लेकिन रजनीश भाई को नहीं. अपनी-अपनी  प्रतिभा थी. उस समय मेरी प्रतिभा ये थी कि पापा का कहा शब्दशः कर लेता था. शायद उस समय स्मार्ट फोन होता तो उनका स्केच देख कर मैं उतना खुश नहीं होता, और रजनीश भाई हमारे घर में इतने फेमस नहीं होते.
स्केच को पापा ने करीब पांच मिनट तक लगातार देखा. वो शायद खुद को पहचान नहीं पा रहे थे या वो भी मेरी तरह ही हैरान थे. मैं उनकी मदद करने के लिए लगातार ये बताए जा रहा था कि- “पापा ये तुम हो. ये देखो सिर वाली चोट भी बनाई है भईया ने, माथे का तिलक भी बनाया है.” पापा मुझे शांत रहने को कई बार बोल चुके थे. कुछ और देर स्केच को गौर से देखने के बाद उन्होंने रजनीश भाई को शाबाशी देते हुए कहा -“बेटा तुम्हारा भविष्य उज्ज्वल है. तुम्हारा हाथ बहुत साफ है. खूब नाम करो.”
रजनीश भाई के चेहरे पर एक हल्की मुस्कान थी जो उनके संतोष को बल दे रही थी. रजनीश भाई वैसे भी थोड़ा कम ही बोलते हैं, क्योंकि उन्हें थोड़ा कम सुनाई देता है. इसलिए वो इस शाबाशी पर भी खामोश ही रहे. पापा ने सिर उठाकर, बगल वाले अंकल को उनकी छत पर देखा. वे भी शायद अपनी छत से देख रहे थे कि रजनीश भाई कितना अच्छा बना रहे हैं.
पापा ने उन्हें संबोधित करते हुए कहा – “भाईसाहब ! आपके लड़के के हाथ में सरस्वती हैं.देखिए कितना सटीक चेहरा बनाया है.”
कोई भी चेहरा तब साधारण से असाधारण हो जाता है, जब वो अमूर्त हो जाए. ये स्केच भी अमूर्त(abstract) ही था. पापा उसे देख कर अपनी कल्पना कर रहे थे.
आज स्केच देख कर मेरे मन में यही सवाल आ रहा था कि क्या पापा उस समय ऐसे ही थे?
(उस समय मुझे इस बात की खुशी थी कि स्केच पेंसिल से बना था, कोई भी चाहता तो उसे मिटा सकता था. क्या जादुई पेंसिल से बनी हुई आकृतियों को मिटाने पर वो चीजें भी गायब हो जाती होंगी? अगर रजनीश भाई ये स्केच मिटा देते तो क्या पापा गायब हो जाते ?
पापा के गायब होने पर क्या मैं दुखी होता? शायद नहीं.
अगर गायब होते तो कहां जाते?
क्या ऐसे ही गायब होने को मर जाना कहते हैं?
उस समय मुझे ये भी लगता था कि इस दुनिया के सारे लोग इसी तरह किसी जादुई पेंसिल से, किसी दूसरी दुनिया में बनाए गए होंगे. जब हम लोग उन्हें पसंद नहीं आये होंगे, तो उन्होंने हमें एक बड़े से रबड़ (इरेजर) से मिटा दिया होगा. फिर मैं सोचता था कि मां को किसने मिटाया है! क्या ऐसा भी हो सकता है कि मां भी उन्हें पसंद न आयी हो? वैसे तो सब लोग ही मां की तारीफ करते थे. इसी वजह से मुझे लगता था कि मां ने खुद को ही रबड़ से मिटा लिया होगा.
तो क्या अभी भी उस दुनिया में मेरी मां होगी?
तो क्या मुझे भी किसी ने मिटा दिया होगा? नहीं. मां बोलती है कि तुम मेरे पेट से पैदा हुए हो.
तो क्या वो दूसरी दुनिया मां के पेट के भीतर है? (भईया और दीदी के लिए तो कह सकता हूँ.)

अंकल अपनी रेलिंग से लटककर देख रहे थे…उनके घर में लॉन नहीं है. उनकी छत हमारे लॉन की धूप रोक लेती थी. मां की ये भी एक शिकायत होती थी, मगर इसका कोई इलाज नहीं था.
मां के पास बहुत सारी शिकायतें थी जैसे- मैं कैरम क्यों खेलता हूँ? मैं क्रिकेट क्यूं नहीं खेलता?
मुझे क्रिकेट में फिल्डिंग करना बहुत पसंद था. मगर हमारे घर के पास वाले मैदान में, विकेट के अलावा बाकी फिल्ड में या तो कीचड़ होता था या गर्मियों में ईंट गिरी होती थी या सर्दियों में ठंड होती थी. बतौर फिल्डर, ये सब कुछ मेरी सेहत के लिए अच्छा नहीं था. मैं बतौर फिल्डर भी बहुत अच्छा नहीं था इसलिए मैंने कभी अच्छे मैदानों पर जाने का प्रयास भी नहीं किया.
मैं कैरम बोर्ड इस लिए भी खेलता था क्यूंकि दीदी भी मेरे साथ खेलती थीं या यूं कहूं तो मैं दीदी और रीति के गेम में अपना हाथ आजमा लेता था. दीदी मुझसे बहुत बड़ी हैं. मुझे कैरम और लूडो खेलना दीदी ने ही सिखाया था. पर दीदी को क्रिकेट भी बहुत पसन्द था. मैंने उन्हें खेलते हुए तो नहीं देखा था, पर देखते हुए देखा था. दीदी को द्रविड़ का खेल बहुत पसंद था.

 

सौरभ पाण्डेय का स्केच वर्क।

2
मेरा फोन काफी देर से बज रहा था, मै पापा का पेंसिल अवतार देखने में मग्न था. मां मेरे फोन के साथ मेरे पास आयी. कुछ देर तक कागज़ पर नजर दौड़ाने के बाद, थोड़ा परेशान हो कर मुझे देखने लगीं.
स्केच वाली घटना के बाद पापा अगली सुबह, रजनीश भाई को लॉन से आवाज़ दे रहे थे. मां को भी नहीं पता था कि पापा क्यों आवाज़ दे रहे हैं. मां के पूछने पर उन्होंने बताया कि,
“कल मैंने उसे कुछ दिया ही नहीं. कितनी मेहनत से उसने बनाया था, सोचा अभी दे दूं.”
मां को पापा की बात तो पसन्द आई, मगर उन्होंने पापा को बताया,
“रजनीश के मम्मी-पापा आज सुबह ही कुंभ मेले के लिए निकल रहे थे, शायद वो उन्हीं लोगों को बस स्टेशन तक छोड़ने गया है. कुछ देर में लौटेगा. मैं जब फूल तोड़ रही थी तभी उसकी मम्मी मुझे यह बोल के गईं थीं कि रीति और रजनीश यहीं पर रहेंगे. आए-गए देख लीजिएगा, किसी चीज की जरूरत हो तो… ”
पापा ने कहा-  “उसके आने तक तो शायद मै चला जाऊं.” फिर उन्होंने रीति को आवाज़ लगाई. वो शायद घर की सफाई कर रही थी.उसने छत पर कपड़े सुखाते हुए बोला “हां अंकल?”
पापा ने उसे घर पर बुलाया. (रीति ज्यादातर हमारे घर पर ही रहती थी. दीदी और रीति एक ही थाली के चट्टे बट्टे थे.) वो कुछ ही देर में काम ख़त्म कर हमारे घर आयी. तब तक पापा ऑफिस जाने के लिए बिलकुल तैयार थे. पापा ने अपने पर्स से 100 रुपए का एक नोट निकाल कर उसे थमा  दिया, और कहा- “ये रजनीश को दे देना, बोलना अंकल ने कल वाले स्केच के लिए दिया है.”
रीति ने पैसे लेते हुए स्केच देखने की मांग की.

पापा जा चुके थे. रीति और दीदी आराम से स्केच देख रहीं थीं. मां ने मुझे भी तैयार कर दिया था. उस दिन मेरी दो परीक्षाएं थी- पहली पाली में जनरल नॉलेज, और दूसरी पाली में ड्रॉइंग की परीक्षा होनी थी.
मैं पहली पाली के प्रेम में था क्यूंकि मुझे जनरल नॉलेज की किताब और बातें बहुत फैसिनेट करती थीं. नए चेहरे, नई जगहें, देश, देश की राजधानी, एक्टर, राइटर और कुछ फेमस चहरे. यही तो होता था जनरल नॉलेज. लेकिन आर्ट की परिभाषा में मेरे पास सिर्फ इतना ही ज्ञान था कि-  क्लास  की कॉपी में दीदी से और एग्जाम की कॉपी में स्वप्निल से रंग भरवा लेना. स्वप्निल मेरी क्लासमेट थी और सीटिंग प्लान के हिसाब से मेरी एग्जाम पार्टनर. उस दिन भईया को स्कूल नहीं जाना था. उनकी परीक्षाएं खत्म हो गईं थीं.
मैं अपने चैप्टर्स याद कर रहा था. उस समय स्मार्ट फोन होता तो शायद मुझे इतना याद न करना पड़ता. खैर यह मेरा पसंदीदा काम होता था कि अपना याद किया हुआ सबकुछ स्कूल एग्जाम से पहले ही घर पर किसी से एग्जामिन करा लूं.
मै दौड़ता हुआ दीदी के पास पहुंचा और अपनी जनरल नॉलेज की बुक उन्हें पकड़ाते हुए बोला “कुछ भी पूछ लो इसमें से”. मेरा आत्मविश्वास हमेशा मुझे धोखा देता था. इसलिए दीदी मुझे कुछ सवालों में हीं घेर कर हरा देती थीं. हां, ये हारना ही था. यही एक खेल था जिसका मैं मास्टर था… याद करना. दीदी ने किताब रीति को पकड़ा दी. रीति ने तुरंत डराते हुए बोला, “कभी-कभी जीके के एग्जाम में किताब के बाहर से भी सवाल आ जाते हैं.”
मेरा दिमाग ये मानने को तैयार नहीं था. मगर रीति मुझसे काफी बड़ी थी, उसकी बात मैं ना मानूं, ये भी नहीं कर सकता था. किताब के पन्ने पलटते हुए उसने मुझसे एक दो सवाल पूछे, जिसका मैंने सही- सही जवाब दिया, लेकिन मेरे मन में ये डर बैठ गया कि अगर किताब के बाहर से  सवाल आ गया तो मैं पूरे नंबर कैसे लाऊंगा?
आह! दुख की भौगोलिकता ये थी कि मानों रीति ने मेरे चेहरे पर गरम विषुवत रेखा खींच दी हो.

अभी स्कूल जाने में करीब 15 मिनट बाकी थे. आज भईया मुझे स्कूल छोड़ने वाले थे. उन्होंने अपने कीमती टाइम में से समय निकाल कर मुझे अपॉइन्मेंट दिया था. अपॉइंटमेंट  शब्द का प्रयोग उन्होंने ही किया था. मैं इस शब्द के परिचय में बस इतना जानता था कि मुझे 9.20 पे उनके साथ निकल जाना था, एग्जाम 9.30 पे था और भईया मुझे 9.25 तक स्कूल छोड़ देंगे.
‘किताब के  बाहर‘ के  डर को बांधे मैं हरक्यूलिस पर बैठ कर चल दिया.
किताब के बाहर से तो कोई सवाल नहीं आया, लेकिन मैंने करीब दो सवाल छोड़ दिए थे. शायद किताब से ही थे. दोनों प्रश्न दो लेखकों के विषय में थे. इंटरवल में स्वप्निल से पूछने पर पता चला कि एक के जवाब में अरुंधती रॉय और एक के जवाब में सलमान रुश्दी लिखना था. दोनों को बुकर प्राइज मिला हुआ था.
उस समय ये दोनों नाम मेरे भीतर ऐसे जल रहे थे कि मानो कोई ज्वालामुखी फूट पड़ा हो. वैसे एक सवाल ज्वालामुखी के विषय में भी था. मुझे इस बात का  संतोष भी था कि शायद अब किसी के भी पूरे नंबर नहीं आएंगे क्यूंकि उस ज्वालामुखी का जवाब सिर्फ मुझे पता था-
“फ्युजियामा, जापान”.

मेरे दिमाग में यही चल रहा था कि इन दोनों लेखकों को उसी ज्वालामुखी में जला दूं. कैसे मेरे दिमाग की चढ़ाई से उतर गए ये दोनों? इन्होंने ऐसी किताबें ही क्यों लिखीं, जिससे कि ये दोनों मेरी किताब के सवाल बन गए?
खैर अब तो पूरे नंबर आने से रहे. इन दो नामों का ज्यादा दुख इस लिए भी हो रहा था क्यूंकि ये दोनों नाम किताब से थे. काश! बाहर से होते तो रीति के मत्थे मड़ देता.
“कोई इतने कठिन सवाल चौथी क्लास के बच्चे से कैसे पूछ सकता है!”
ये बात रीति ने ही सुबह किताब देख कर बोली थी.
उसे मेरी किताब बहुत कठिन लगी थी. शायद उसने भी इन दोनों लोगों का नाम पढ़ा होगा.
मैं सोच रहा था कि  कैसे रूड लोग हैं ये दोनों, जरूर गली के आखिरी घर वाले आंटी और अंकल की तरह ही होंगे. एक दिन उनका लड़का स्कूल में इसी बात के लिए मार खा रहा था कि उसे अपने मम्मी- पापा का नाम याद नहीं था. बाद में एक दिन घर पर मार खा रहा था क्योंकि उसने अपने पापा को उनके नाम से बुला दिया था.
दोपहर के लंच के बाद आर्ट का एग्जाम शुरू हुआ. रंगों से भरे बॉक्स सबकी मेज पर चढ़ चुके थे. मैंने अपना रंग का बॉक्स नीचे मेज के अंदर रखा था. एग्जाम-कॉपी डेस्क पर आने के बाद मैं ज़ोर से भगवान से प्रार्थना कर रहा था- “हे भगवान! इस बार किताब बनाने को मिल जाए.”
किताब बनाना मुझे आर्ट में सबसे आसान लगता था. स्केल और पेंसिल से कुछ सीधी लाइनें और ऊपर नीचे दो हल्के वक्र. बाद में थोड़ी सी शेडिंग और ऊपर ‘किताब’ लिख देना होता था. लेकिन बनाने के लिए आया “हजारा”. हाय! क्या दुख था! मानो किसी ने दुख के हजारे से हल्की-सी विपत्ति, मुझ नन्हे बालक पर छिड़क दी हो.
दूसरा प्रश्न हमारी सहूलियत का था, प्राकृतिक दृश्य. जो आसान तो नहीं था, मगर प्रैक्टिस में एक दो बार बनाया था. ड्रॉइंग के पेपर में एक बात मुझे हमेशा सुकून देती थी कि पेपर में सवाल सिर्फ दो ही होते थे.
स्वप्निल का चेहरा देखते ही बन रहा था. वो बहुत खुश थी, और मैं उसकी खुशी से और दुखी होता जा रहा था. अपनी पेंसिल को साफ करते हुए उसने धीरे से मुझसे बोला कि “तुम तब तक सीनरी बनाओ, मै तुम्हारा हजारा बना दूंगी.”
हाय मेरी सरस्वती! वो समझ गई थी, हर बार की तरह.

मैंने अपने कलर बॉक्स से रंग निकाले. पेंसिल साफ की और फिर बड़ी शिद्दत से पहाड़, बादल, सूरज, चिड़िया, पेड़, घर और नदी सब खींच दिए. रंग भरने के बाद, ऐसा लग रहा था कि मानो मुझे रंगांधता (कलर ब्लाइंड नेस) हो. भूरे रंग की नदी या मानो तो खुद  पिघलता हुए पहाड़. घर नारंगी रंग का, घास हल्की हरी और पेड़ गाढ़ा हरा. अब मैं परेशान था कि सूरज में क्या रंग भरूं. अंत में चमकीले पीले रंग में सूरज भगवान रंग दिए गए. लानत ये थी कि उनकी फैलती हुई रौशनी को मैंने गलती से काले रंग से बना दिया था. विज्ञान के चरम पर मेरे मस्तिष्क ने ब्लैक होल की कल्पना उसी वक्त, उस सूरज पर कर ली थी. पूरी ड्रॉइंग देख कर ऐसा लग रहा था कि काश ये रंग अपने आप एडजस्ट हो जाते  तो लोगों की आंखों को सुकून मिलता.
मैं फिर भी इस बात से खुश था कि चलो एक सवाल तो ख़त्म हुआ. बला टली. मैंने बगल में अपनी सरस्वती का पेज देखा. एकदम दैवीय. “रजनीश भाई इससे ज़रा सा ही अच्छा बनाते होंगे” यही बात मेरे दिमाग में घूमने लगी. ड्राइंग पेपर में रजनीश भाई याद तो बहुत आते थे. मुझे कभी- कभी ईर्ष्या भी होती थी कि मैं क्यूं नही बना पाता?
ईर्ष्या सवाल के साथ आए तो जल्दी ख़त्म हो जाती है. मगर ये सिर्फ कहने की बात थी.
ऐसा हजारा कि मानो अभी पेज से निकल कर मेज पर आ जाएगा. काश! मेरी सीनरी भी बाहर आ पाती तो मैं स्वप्निल से कहता- “तुम्हारा हजारा मिलेगा प्लीज! मुझे अपने सीनरी में पानी डाल कर फूल उगाने हैं.”
कुछ देर बाद ये तय हुआ कि वो अपने कॉपी के नीचे मेरी कॉपी रख कर अपने हज़ारे पर पेंसिल चला देगी, जिससे वो मेरी कॉपी पर उभर आएगा और फिर मै उसे ड्रॉ कर लूंगा. थोड़ी ही देर में मेरे पास हजारे का ब्लू प्रिंट था. ऐसा मै पहले भी कर चुका था. जब कभी दीदी मेरी क्लास कॉपी पर अपनी मेहरबानी नहीं दिखती थीं तो मैं किताब को अपनी कॉपी पर रख के उस चित्र को छाप लेता था. ये ट्रिक मुझे रीति ने सिखाई थी. इस ट्रिक का नुक़सान यह था कि बहुत ज्यादा ही सटीक ड्रॉइंग बन जाती थी. टीचर देखते ही पकड़ लेती थीं. मैं अभी तक  पकड़ा नहीं गया था, मगर इस बात का खौफ बहुत था कि मैडम यह नहीं बर्दाश्त करेगी.
समय घूम रहा था. मैं अपनी पेंसिल से धीरे धीरे उस ब्लू प्रिंट को बिना समझे एक्जीक्यूट कर रहा था.
कुछ ही देर में हजारा तैयार था. हूबहू सरस्वती की तरह, जिसे देख कर वह भी खुश हो गई. शायद उसकी ही खुशी थी जो मेरे चेहरे पर प्रतिलिपि की तरह चिपक गई थी.

3
रजनीश भाई हताशा से चिल्ला रहे थे.
मेरा आखिर एग्जाम ख़त्म हुआ था. ये बात मेरी चाल से साफ साफ पता चल रही थी. स्कूल, मेरे घर से करीब 500 मीटर ही दूर था, सो तय हुआ था कि मैं आते वक़्त अपने आप ही घर आ जाऊंगा.
स्कूल से कुछ दूर चलकर मैं उस मोड़ तक पहुंचा था जहां से मेरे मुहल्ले का सिरहाना खुलता था. मेरा घर, मेरे घर के बाएं तरफ रजनीश भाई का घर, बड़ा सा सेमल का पेड़ और एक बाँस का गुच्छा, सब कुछ वैसा ही था. सिर्फ रजनीश भाई का शोर था या कहूं तो वेदनाओं का समारोह जारी था. वो ऊंचा बोलते थे, मगर कभी किसी पर चिल्लाते नहीं थे. उनका यह चिल्लाना बिल्कुल नया था ।
जैसे जैसे मैं करीब पहुंच रहा था, आवाज़ में रीति का नाम बढ़ता जा रहा था. आवाज़ में कोई करकश्ता नहीं थी…एक विवशता थी, जिसे किसी भी उम्र में महसूस किया जा सकता था.

दीदी की उंगली से खून टपक रहा था. गौर से देखने पर पता चला कि उंगली में सूई धंसी हुई थी. गेट खटखटाते ही मैंने देखा, दीदी दर्द से बिलखते हुए गेट की तरफ बढ़ रहीं हैं. मैं उनकी उंगली देख कर सन्न हो गया. पूछने से पहले ही उन्होंने बताया कि सिलाई मशीन चलाते हुए सूई धंस गई.घर में दीदी के रोने के बाद भी सन्नाटा सा था, मगर रजनीश भाई के घर पर उतना ही शोर था. दीदी लॉन में खड़ी बिलख रहीं थीं.रूदाली में ही पता चला कि रीति ऊपर के कमरे में पंखे से लटकी है. मेरे लिए ये समझ से बाहर की बात थी कि वो पंखे से लटक कर क्या कर रही है, और ये रजनीश भाई इतना चिल्ला क्यूं रहे हैं? पंखे से लटकने में ऐसा क्या हो गया? हो सकता है उसने नया झूला डाल लिया हो.ये ख़्याल मेरे दिमाग में आया ही था कि दीदी के बिलखने ने मुझे परेशान कर दिया. मां घर पर नहीं थी. भईया भी घर पर नहीं थे. दीदी जाने क्यूं सिलाई मशीन चला रही थी. वो इससे पहले कभी नहीं चलाती थीं.  रीति को सिलाई मशीन चलाना आता था. वो दीदी की मदद कर सकती थी. वो करती भी थी. तो आज ऐसा क्या हुआ. मैं ये सब कुछ सिर्फ सोच पा रहा था.

देखने पर पता चला कि मां रजनीश भाई के घर पर है. इतने छोटे से समय में इतना कुछ घटित हो गया कि ना चाहते हुए भी मैंने रोना शुरू कर दिया था. मां ने उनकी छत से ही मुझे देख लिया. उसने दीदी से मुझे अन्दर ले जाने को कहा.(मैं खुश था कि मेरे इग्ज़ाम ख़त्म हो गए हैं. मैं अब खुल कर रीति के साथ कैरम खेल सकता हूं. इस बार रजनीश भाई से सीनरी बनाना भी सीखना था.)
दीदी मुझे अपने साथ घर के अंदर ले गईं. उन्होने किसी तरह बिलखते हुए सुई को उंगली से निकाल दिया. उनके भीतर जाने कहां से इतनी हिम्मत आ गई थी. खून अब भी बह रहा था और मेरे आंखों से आंसू भी. दीदी ने किसी तरह से अपने घाव पर एक कपड़ा लपेट दिया. शायद उन्होंने कोई दवा भी लगाई थी. मेरे समझ में कुछ भी आता कि मुझे दीदी ने बिलखते हुए ही बताया कि “रीति मर गई”. ये वाक्य कितना साधारण था. मैं अक्सर पापा के मुंह से गांव के बुजुर्गों की मौत की खबरें सुनता था. मां कहानियों की तरह नाना के मौत की बात बताती थी.
टीवी में तो इस वाक्य का मानो जाप होता था. मगर मैंने दीदी के मुंह से किसी के मौत के बारे में पहली बार सुना था. वो भी मरने वाले का नाम रीति था. (रीति वो अपने घर पर पर बिल्कुल मेरे दीदी की तरह से थी. रजनीश भाई उसे पेंटिंग सिखाते थे. उसकी मम्मी उसे सिलाई  सिखाती थीं. उसके पापा उससे बहुत कम बोलते थे. और रीति सबसे ज्यादा दीदी से बोलती थी.)
दिमाग में अब तक सुनी हुई सारी मौतों की खबरें, एक पल में ही दौड़ गईं. मगर कहीं भी इस वाक्य जितना असाधारण कुछ भी नहीं मिला.
मेरे नाखूनों के पास अब भी रंग लगे हुए थे. मैंने अपना ड्रेस भी नहीं निकाला था.
“मां अभी उन्हीं के घर गई है. रजनीश भाई आए थे, रोते हुए.” दीदी कई बार ये बोल चुकी थी.
मैंने रीति को न ही लटके हुए देखा, न ही मरने के बाद उसका चेहरा. उसकी लाश उतार कर चद्दर में में लपेट दी गई थी. मां रीति के बगल में बैठी थी. रजनीश भाई हताशा के मारे अब मौन हो चुके थे. मैं सिर्फ मां को और रजनीश भाई को देख सकता था. तीनों बरामदे में थे. बरामदे में लोहे का चैनल था जिसे बंद कर दिया था. किसी की भी आवाजाही नहीं थी. मुझे मां को देख कर और रोना आ रहा था. अगर रीति का चेहरा दिखाई देता तो और भी रोना आता. मैं छुप कर अपने छत से उनके बरामदे में देख रहा था. ऐसा लग रहा था कि मां और रजनीश भाई को जेल में बंद कर दिया गया हो.मुहल्ले में बात फैल तो चुकी थी. लोगों का आना शुरू हो गया था. कुछ लोग जो उनके घर के करीबी थे, उन्होंने तय किया कि जब तक घर के गार्जियन नहीं आते, तब तक आगे कोई काम नहीं किया जायेगा.
शायद पांडेय अंकल को फोन कर दिया गया था. हाय! वो फोन जिससे उन्होंने ये खबर सुनी होगी.
उस जमाने में स्मार्ट फोन नहीं था, सिर्फ मोबाइल फोन थे.
शाम थोड़ी गाढ़ी हुई थी कि लोगों ने अपने अपने घर जाना शुरू कर दिया. मै भी मां के इंतजार में था. लेकिन मां सबके जाने के बाद भी उन्हीं के घर रही. पापा आ चुके थे. पापा ने उनके घर जाने से ज्यादा जरूरी हम तीनों लोगों के साथ रहना समझा. भईया और दीदी ने उन्हें तफ्तीश से सब कुछ बताया. पापा ने दीदी की उंगली देखी. शायद वो भी मां के इंतजार में थे. उनके पास एक ही सवाल था कि आखिर क्या कारण था? उन्होंने इसी ऊहापोह में दीदी से पूछ लिया कि “क्या कारण रहा होगा , तुम से तो वो सब कुछ बताती थी?” पापा को पता था दीदी के पास इसका कोई जवाब नहीं होगा, वो शायद अब दीदी के लिए डर रहे थे. दीदी को समझ नहीं आ रहा था कि वो अपने दर्द पर रोएं या अपने दोस्त के लिए.
ये कितना दयनीय था कि आप किसी एक दर्द से पूरी सहानुभूति भी नहीं रख सकते थे.
मेरे पास मां का इंतजार था. मेरे पास रीति को बताने को वो दो नाम थे और ये भी साबित करना था कि बुक के बाहर से कुछ भी नहीं आया था.
मेरे पास डर था. मेरे पास सवाल थे कि इसे ही मरना कहते हैं या इसे ही रबड़ से मिटाना कहते हैं? लेकिन वो तो लटक कर मरी थी. मुझे रजनीश भाई पर एक बार को यकीन हो गया कि उन्होंने ही रीति को पेंसिल से बनाया था और आज उन्होंने ही उसे मिटा दिया होगा. लेकिन रजनीश भाई मौन थे. अगर ये उनका जादू होता तो वो खुश होते. जादूगर अपने हर ट्रिक से खुश रहता है, चाहे वो दर्शक को कितना ही भयावह लगे. रीति के बारे में सोचते हुए मै यह सोच रहा था कि उसने मौत को अपने ऊपर छाप लिया था.

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सौरभ पाण्डेय हिंदी की सबसे नयी पीढ़ी के कवि-लेखक हैं. उनसे sourabhkavi123@gmail.com पर बात हो सकती है.

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