कहानी  ::
श्रीविलास सिंह

सड़क दूर-दूर तक सुनसान थी। किसी आदमी का कहीं कोई नामो-निशान नहीं। सन्नाटा बिलकुल तने हुए तार की भांति, हल्की-सी चोट पड़ते ही चीख पड़ने को आतुर था। कहीं कोई चिड़िया, कोई जीव भी नहीं, कोई आवाज़ नहीं। जैसे सब कुछ स्तब्ध हो अभी कल परसों ही गुज़रे हादसे से। कभी-कभार कोई कुत्ता ज़रूर दिख जाता था। पर वह भी सारे वातावरण की तरह सहमा हुआ-सा ही लगता। आतंक और भय हवा में घुला हुआ था। शाम ढलने लगी थी और अँधेरा धीरे-धीरे इमारतों की छतों से होता गलियों तक में फैलने लगा था। उसने सुनसान गली को तेज कदमों से बिना आवाज़ किये पार किया और दूसरी गली में घुस गया। उसने चलते-चलते एक झलक देखी। मुख्य सड़क पर गली के मुहाने के पास पुलिस की गाड़ी खड़ी थी और कुछ पुलिस वाले भी खड़े बतिया रहे थे शायद। उनका ध्यान उसकी तरफ नहीं था।

वह जल्दी से जल्दी किसी तरह अपने घर पहुँच जाना चाहता था। किसी काम के चक्कर में वह पिछले एक हफ्ते से घर से बाहर था। घर पर पता नहीं क्या हुआ होगा। उसकी बीवी और छोटी बहन बस दो ही प्राणी घर पर थे। दंगे के पहले से ही मोबाइल की सेवाएँ पूरे शहर में ठप कर दी गईं थी। कितनी बार तो उसने अपने घर फोन किया होगा पर फोन लगता ही नहीं। पूरे इलाके में कर्फ़्यू लगा हुआ था। यद्यपि दो दिन से दंगे की कोई वारदात नहीं हुई थी, लेकिन अभी भी पुलिस किसी को घर से बाहर निकलने नहीं दे रही थी। सड़क पर बीच-बीच में पुलिस की गश्त भी हो रही थी। उसने एक बार सोचा कि थाने जा कर पुलिस वालों से विनती करे। शायद वे उसे उसके घर पहुँचा दें। पर फिर उसने तरह-तरह की अफवाहें सुनी थी कि पुलिस लोगों को दंगों के फ़र्ज़ी मामलों में फंसा कर बंद कर दे रही है। उन पर भी जल्दी से जल्दी दंगे के अपराधियों को पकड़ने का दबाव है। कहीं उसे भी पकड़ कर बंद कर दिया तो। लेकिन वह तो दंगे वाले दिन शहर में था ही नहीं। मगर उसकी सफाई सुनेगा कौन। उसने अपना इरादा बदल दिया। आज शाम उसने चुपके से छुप कर घर जाने की सोची। यद्यपि इसमें बहुत खतरा था। पुलिस की गोली भी लग सकती थी और पकड़े जाने पर जेल भी जा सकता था। मगर घर पहुँचने के लिए इतना खतरा तो उठाना ही पड़ेगा। उसने सोचा।

गलियाँ बिलकुल सुनसान थीं। वह भरसक कोशिश कर रहा था कि आवाज़ न हो। अँधेरा गहराने लगा था। इन गलियों में वैसे भी बहुत रोशनी नहीं रहती थी। उसे डर था तो आवारा कुत्तों के भौकने का। पर शायद कुत्ते भी वक्त की नज़ाकत पहचानते थे। वे उसे देख कर चुप ही रहे। जगह-जगह जले हुए टायरों, टूटी हुई बोतलों के टुकड़े और पत्थर पड़े थे। कुछ दुकानें थी जो लूट ली गईं थीं और उनका टूटा फूटा फर्नीचर और सामान अधजला-सा इधर उधर बिखरा पड़ा था। ऐसा लग रहा था मानो अभी कुछ समय पहले ही यहाँ कोई युद्ध हुआ हो या भयंकर तूफान आ कर गुज़र गया हो। यह उसी का मुहल्ला था, पहचानना मुश्किल था। मुहल्ला बिलकुल सुनसान पड़ा था। कहीं आदम-जात की कोई गंध नहीं। कोई आहट नहीं। लगता था सब लोग घर छोड़ कर कहीं चले गए थे। उसने अखबार में पढ़ा भी था कि लोग डर कर सुरक्षित जगहों पर जा रहे थे। उसे स्थिति के इतना अधिक बिगड़ जाने की उम्मीद नहीं थी वरना वह पहले ही लौट आया होता। कुछ लोग जो जिद कर के अड़े रहे उसमें से कुछ दंगाइयों के साथी थे और बाकी दंगाइयों का शिकार।

दिन रात धर्म और मज़हब के नाम पर शांति और अमन का पैगाम बांटने वाले लोग कितने निर्लज्ज रूप से एक दूसरे के खून के प्यासे थे, क्या वह जानता नहीं था। उसे ही उनकी बात न सुनने पर कितनी बार धर्म-भ्रष्ट और गद्दार बताया जा चुका था। ईश्वर, अल्लाह या गॉड जो भी था, उसने तो नहीं कहा किसी को अपने नाम पर लड़ने को। उनके नाम पर खून ख़राबा करने को। पर ये स्वयंभू पैरोकार गली-गली धर्म युद्ध का नारा बुलंद किये बैठे हैं। एक दूसरे के ईश्वर को नीचा दिखाते, गालियाँ देते। बताते कि बस उन्हीं का ईश्वर सही है। सब की दुकान इस नफ़रत के दम पर ही फल-फूल रही है। उसके जैसे लोगों को इन से कोई निजात नहीं थी। ईश्वर को भी कहाँ निजात थी अपने इन ठेकेदारों से। उसने सोचा।

उसका घर पास ही था। एकाएक उसके कानों में पुलिस के सायरन की आवाज़ और किसी गाड़ी के आने की आहट पड़ी। गाड़ी की हेडलाईट की रोशनी भी दिखाई देने लगी थी। वह एक दम से कूड़े के ढेर के पीछे कूद गया। “कौन है” किसी की ज़ोरदार आवाज़ सुनाई पड़ी। उसे लगा कि शायद यह पुलिस की गाड़ी थी और उन लोगों ने उसे देख लिया था। टार्च की रोशनी कूड़े के ढेर पर से होती दूर चली गयी। “अरे कौन होगा यहाँ, सब साले भाग गए हैं। कोई कुत्ता-उत्ता रहा होगा।” किसी दूसरे आदमी ने कहा। गाड़ी की दूर जाती आवाज़ उसे सुनाई दे रही थी। उसके चले जाने के बाद भी वह काफी देर कूड़े के ढेर के पीछे छिपा रहा। एकाएक उसने महसूस किया कि कूड़े के ढेर से असहनीय बदबू आ रही थी। वह तेजी से उठ कर आगे बढ़ गया।

वह अपने घर के सामने खड़ा था। पर यह क्या? घर में तो ताला लगा हुआ था। तो फिर वे लोग कहाँ गए? किसी से पूछे। पर किससे? आसपास के सब लोग तो जा चुके थे। वैसे भी उसे इस मोहल्ले में आये अभी पांच छः महीने ही हुए थे और उसका किसी के यहाँ कुछ खास आना जाना भी नहीं था। उसने एक बार फिर मोबाइल मिलाने की नाकाम कोशिश की। वह किंकर्तव्यविमूढ़-सा घर के सामने खड़ा था। पास ही एक टूटा हुआ ठेला पड़ा था और चारों ओर फल बिखरे थे और सड़ने लगे थे। शायद उसी ठेले वाले के रहे होंगे। सामने की परचून की दुकान का शटर टूटा हुआ था और दुकान जल कर बरबाद हो चुकी थी। चारों ओर जैसे आदमी के भीतर की घृणा बिखरी हुई थी। उसने एक नज़र फिर अपने घर के दरवाज़े पर डाली और लंबी सांस ली। कहाँ गए वे लोग। कहीं दंगाइयों के हाथ तो नहीं पड़ गए। इस खयाल से ही उसे पसीने आ गए। वे लोग कितने हृदयहीन, कितने खतरनाक हो सकते हैं यह बात उसे अच्छे से पता थी। उसने अखबार में पढ़ा था कि दंगे में दोनों ओर के कई लोग मारे गए हैं। कई औरतें बलात्कार का शिकार हुई हैं। कई आदमी और औरतें ग़ायब हैं। कुछ की लाशें सीवर के नालों से बरामद हुई हैं। सैकड़ों घर और दुकानें जला दी गईं हैं। आदमी के भीतर का शैतान पूरी तरह नाचता रहा है इन गलियों में। उन लोगों ने कितनी बार उसे भी तो अपने साथ मिलाने की नाकाम कोशिश की थी। सारी भावनाओं से शून्य, सनकी और खूंखार लोग। जिनका धर्म और मज़हब से कुछ भी लेना देना नहीं था सिवाए अपनी ना-पाक साजिशों के लिए उसका इस्तेमाल करने को।

कहाँ गए होंगे वे लोग? उसने एक बार फिर सोचा। उसका पास का कोई रिश्तेदार तो था नहीं। उसके माँ-बाप भी नहीं थे और उसकी बीवी के भी। हो सकता है वे दोनों किसी और रिश्तेदार के घर चले गए हों। उसने सोचा। कहीं चल कर लैंडलाइन फोन से फोन कर पूछना पड़ेगा। फिर तो उसे तुरंत चुपचाप यहाँ से निकल लेना चाहिए। पता नहीं फिर पुलिस की कोई गाड़ी न आ जाये। वह फिर धीरे से अंधेरी गलियों में खो गया। बीच-बीच में पुलिस के सायरन की आवाज़ वातावरण में गूँज जाती थी।

वह दंगे वाले इलाके से काफी दूर आ चुका था। इतनी दूर और इतनी देर तक पैदल वह कब चला था, उसे याद नहीं आ रहा था। बहरहाल अब उसे कर्फ्यू के उल्लंघन के लिए पुलिस द्वारा पकड़े जाने का डर नहीं था। उसने ऐसी जगह ढूँढनी शुरू की जहाँ से दो चार जगह फोन कर सके। मोबाइल के इस जमाने में पब्लिक फोन जल्दी कहाँ मिलने थे। रात गहरा रही थी। दुकानें भी बंद होने लगी थी। उसे याद आया पास ही एक अस्पताल था जहाँ दवा की दो तीन दुकानें रात भर खुली रहती थी। उसने वहीं जाने का निश्चय किया।

“क्या मैं यहाँ से कुछ फोन कर सकता हूँ?” उसने पूछा “मैं उसके पैसे दे दूँगा।”

“कोई बात नहीं, कर लीजिए।” दुकानदार ने कहा।

उसने उन सभी रिश्तेदारों को फोन लगाया जहाँ उसे अपनी पत्नी और बहन के होने की उम्मीद थी। पर सब ने उनके अपने पास आने से इनकार किया। फिर वे दोनों कहाँ गयी? उसकी बेचैनी बढ़ने लगी थी। उस की समझ में नहीं आ रहा था कि वे दोनों कहाँ जा सकती हैं।

“क्या हुआ भाई साहब?” दुकानदार ने, जो फोन पर उसकी बातें सुन कर काफी कुछ समझ चुका था, जिज्ञासा से पूछा।

उसने उसे सारी बात बताई।

“क्या करेंगे साहब, बड़ा बुरा वक्त आ गया है। आदमी-आदमी का ही दुश्मन बन बैठा है। आप ऐसा करिए पुलिस में रिपोर्ट लिखा दीजिए। अगर सुरक्षित होंगी तो मिल जाएंगी नहीं तो मुआवजा तो मिलेगा।” उसने निःस्पृह भाव से सलाह दी।

दुकानदार की बात सुन उसके कान झनझना उठे। उसे लगा कि वह दुकानदार को एक ज़ोरदार तमाचा जड़ दे। पर उसने खुद को रोक लिया। आखिर वह भी क्या ग़लत कह रहा था। रोज-रोज के हादसों ने लोगों को उनके प्रति तटस्थ-सा बना दिया था। अब तो पुलिस में रिपोर्ट करना ही ठीक होगा। पर वह तो किसी को जानता भी नहीं और पहले कभी उसका पुलिस थाने जाना भी नहीं हुआ। एकाएक उसे प्रोफेसर साहब का ख़याल आया। उनकी अच्छी जान पहचान है और वे दूसरे संप्रदाय का होने के बावजूद भी शायद उसे मना न करें। उन्हें साथ ले लेना ठीक रहेगा। एक बार कोशिश कर के देखता है। उसने सोचा और फिर से फोन मिलाने लगा।

“अरे कहाँ हो भाई” उसकी आवाज़ पहचानते ही दूसरी ओर से प्रोफेसर साहब ने पूछा। “यहाँ तुम्हारी बीवी और बहन तुम्हारी चिंता में हलकान हैं।”

उसे लगा किसी ने उसके सीने पर रखा हुआ बहुत बड़ा पत्थर एकाएक हटा दिया हो और उसका सारा शरीर हल्का हो कर हवा में उड़ने लगा हो। वह कुछ देर अपनी सांस व्यवस्थित करता रहा।

“मगर सर, वे दोनों आपके पास कैसे पहुँची?” उसने खुशी मिश्रित आश्चर्य से पूछा।

“पहुँची क्या। दंगे की खबर लगने पर मैं जा कर गाड़ी से ले आया। मुझे पता था कि तुम शहर से बाहर हो और तुम्हारा मुहल्ला सुरक्षित नहीं था। कहाँ हो? जल्दी आओ फिर बात करेंगे।” प्रोफेसर साहब ने अधिकार से कहा।

“जी आता हूँ।” उसने कहा और राहत की लंबी सांस ली। दुकानदार को पैसे दिए और ऑटो ढूढ़ने लगा।

आज दंगों को दस दिन हो गए थे। अब कर्फ्यू केवल रात सात बजे से सुबह सात बजे तक रहता था और दस ही दिन उसके परिवार को भी प्रोफेसर साहब के घर रहते हुए-हुए थे। उनके धर्म अलग-अलग होने के बाद भी कितना ध्यान रखा था उन लोगों ने उसके परिवार का। शायद कोई अपना सगा भी इतना ध्यान न रखता और फिर आस पास के लोगों की आंखों में झांकती हिकारत भी देखी थी उसने। उन लोगों से अधिक प्रोफेसर साहब और उनकी पत्नी के लिए। एक विधर्मी को, एक दुश्मन के परिवार को बचाने के लिए। शायद यही असली धर्म था, ईश्वर की असली मंशा भी।

वह देख आया था कि अब उसके मोहल्ले में भी अधिकांश लोग वापस लौट आये थे और रोज़मर्रा का जीवन धीरे-धीरे पटरी पर आने लगा था। दंगों के घाव अभी हरे थे पर वक्त का मरहम और रोज़गार की मजबूरियाँ जल्दी ही सब चीजों को भुला देती हैं। भले ही पीड़ा का नासूर जीवन भर मन के भीतर टीसता रहे। उसने प्रोफेसर साहब से घर जाने की इजाज़त मांगी।

“अभी दो चार दिन और देख लो बेटा।” उनकी पत्नी ने कहा।

“अब सब ठीक है मैडम।” उसने धीरे से कहा।

“फिर तो ठीक है। चलो कल चले जाना।” प्रोफेसर साहब ने बात समाप्त की।

वे तीनों ऑटो में बैठ चुके थे। प्रोफेसर साहब और उनकी पत्नी बाहर तक उन्हें छोड़ने आये थे।

“तुम लोग अपना ध्यान रखना और कोई परेशानी हो तो हमें फोन करना।” प्रोफेसर साहब की पत्नी ने उन्हें हिदायत दी।

सामने के नुक्कड़ पर खड़े तीन चार लड़के उन्हीं की ओर देख कर बतिया रहे थे। ऑटो चलने ही वाला था कि उसके कानों में एक लड़के की आवाज़ आई जो शायद उन लोगों को सुनाने के लिए ही अपेक्षाकृत तेज आवाज़ में बोल रहा था।

“इन प्रोफेसर जैसे बुड्ढों के कारण ही तो हम लोगों की यह हालत है। वरना इन सालों को तो अब तक ठीक कर देते।”

उसने एक बार प्रोफेसर साहब की तरफ देखा। उन्होंने भी उन लड़कों की बात सुन ली थी। पर उनके चेहरे पर अब भी एक शालीन मुस्कराहट थी। पता नहीं इन लोगों से उसका क्या रिश्ता है। उसने सोचा। शायद इंसानियत का रिश्ता ही सब से बड़ा रिश्ता है। उसने प्रोफेसर साहब और उन की पत्नी को कृतज्ञता से विदा के लिए हाथ जोड़े। ऑटो चलने लगा था।

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श्रीविलास सिंह सुपरिचित कवि, कथाकार और अनुवादक हैं। ‘रोशनी के मुहाने तक’ शीर्षक से उनका एक कविता-सँग्रह ‘परिंदे प्रकाशन’ से प्रकाशित है। उनसे sbsinghirs@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है। इंद्रधनुष पर उनके पूर्व प्रकाशित कार्यों के लिए यहाँ देखें : चैत का पुराना उदास गीत | मेरे लिए एक खिड़की पर्याप्त है | क्रांति उपजती है शोक के घावों से | स्मृतियों में होते हैं भविष्य के बीज

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