कविताएँ::
आलोक रंजन

मलबा

मकान बना,
इश्तिहार  हुआ।
घर ढहा,
इश्तिहार हुआ।
सादे अखबार या
रंगीन स्क्रीन पर नहीं
उस रद्दी पर
जिसके चीथड़ों पर लिखा जा सकता है
सब कुछ,
फट जाने पर उनकी सटाई भी।
नागरिक ढांचा है
मलबों का,
एक कीमती इमारत
जिसके पुर्ज़े गिरवी हैं।
आवासों का बनना,
उनका ढहना,
ईंटों का बँटवारा है
कि मलबों के लोग
न बन जाएं घर।

कहना

निचोड़े जा चुके शब्दों के अंतहीन दुहराव से
बनते हैं स्वादहीन ध्वनियों के जंगल,
निराकार आवाजीय झुंड मारते हैं झपट्टे
मौन, और कहने के लिहाज पर,
बनाते हैं बोलने को सांस्कृतिक धंधा।

इस बोलने में शामिल हैं
लिखे जा रहे  तमाम अर्द्ध-वाक्य, अर्द्ध- शब्द
जिनमें कोई लिखावट नहीं।
निष्ठुर सहगान जो राग – रहित हैं।

इसने मिटाया है वक्ता व व्यक्ति होने का अंतर,
बोलने की अनिवार्यता से
कहने की संभावना को ठेस लगी है।

कहना निर्मित करता है आत्मीयता का आकाश,
जहां भाषा को आती है हिचकी,
शरीक होते हैं समय के असंख्य कण,
भावनाओं के कई उतार – चढ़ाव,
जिसमें कहने, न कह पाने,
कहने के बाद की बेचैनी के बीच
व्यक्ति स्वयं के सिवा भी कोई और होता है।

यह गुंजाइश उम्मीद है हमारे बचे रहने का,
कि हम कहा करें
किसी पहर में,
खिलखिलाकर या स्नेह से,
कुछ सोचकर, या तपाक से,
वाक्यों की खोज जारी रहे,
अनकहे पर भराव न हो।

वो घर तक आएँगे

सरेंडर-मार्च कराया जाए लोकतंत्र,
माई लार्ड न्याय की शर्त लगाएं,
जब वर्दी हाँक रही संविधान,
लहराती मुठ्ठियाँ नहीं चलेंगी।
चश्मे नहीं उतरने चाहिए,
आँखें नहीं मींची जाएँ,
इस रात का अवसान क़बूल नहीं,
ये भोर की अंगड़ाई नहीं चलेगी।
दर्ज हो रही उँगलियों की गलतियाँ
नए शब्द न सीखे, न लिखे जाएँ,
आग लगे कहीं धुआं छाए
रोशनी का बहकना मंज़ूर नहीं,
कायदा सामूहिक भावनाओं के प्रसारण का है,
स्वायत्त जेहनियत नहीं चलेगी।
बूटों से रौंदी जाएंगी बच्चों की कश्तियाँ,
आज़ादी की पतंगे ड्रोन से कटेंगी,
धमाके से गूंजते हैं कान में किसी के,
फैज़-हबीब न गाये जाएँ,
हर नरमी का जवाब कोई वहशी देगा
तुम्हारे लहू का प्रमाण वो मुंशी देगा,
फूलों की बगावत नहीं चलेगी।

जब मुक्त होंगे वो शेष शर्मिंदगी से,
आईपीसी उनके हथौड़े लिखेंगे,
उछाल दिए जाएंगे नकाब,
लेकर इत्मीनान नंगी सूरत
किताबों की सूचियाँ बनाने,
तुम्हारे टीवी का चैनल बदलने,
चौखट की पैमाइश करने,
अपनी शर्मिंदगी तुम्हें ओढ़ाने,
वो घर तक आएँगे,
ये क़ाश ये आह मंज़ूर नहीं,
साँस में शिकन नहीं चलेगी।

***
आलोक रंजन जवाहरलाल नेहरू विश्विद्यालय में शोधार्थी हैं और कविताएँ लिखते हैं. वे मूलत: चतरा, झारखंड के रहने वाले हैं. उनसे alok20063@gmail.com पर बात हो सकती है.

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