लेख ::
अंचित

मुझे किताब तक पहुँचने में समय लगा। मैंने किताब के बारे में सुना था। चर्चा भी थी लेकिन समकालीन हिन्दी उपन्यासों के साथ चल रहे एक बहुत अग्रेसिव प्रचार तंत्र की वजह से मन में एक पूर्वाग्रह बन गया था। इस उपन्यास को पढ़े बिना वह टूटता भी नहीं। अगर इस उपन्यास पर बात नहीं करनी होती तो शायद इसको पढ़ता भी नहीं । यह बात भी ईमानदारी से स्वीकारता हूँ। उपन्यास पढ़ते हुए कई संदर्भ याद आए, यह लेख उन्हीं से बना है। इसके पहले यह कि यह कोई आलोचनात्मक निबंध नहीं हैं और किताब के पाठ के दौरान बनाए गए कुछ नोट्स भर हैं।
सुज़न सोंटाग की एक किताब है “ Regarding the Pain of Others”.  वे इसमें कहती हैं कि याद रखना खुद में नैतिकता का कार्य है। यह भी कि स्मृति जो है वह मृतकों के साथ हमारा एक मात्र संबंध है। जो गैर (यह शब्द लेखक से उधार लेता हूँ) करार दिए गए, किस तरह गैर बनाए गए और उनको याद रखने की जरूरत और उनको भुला देने की राजनीति की पड़ताल करते रणेंद्र। सत्ता के लिखे इतिहास और हमारे याद रखे गए के बीच के युद्ध की बात – जैसे शाहिद कहता है, my memory comes in the way of your history – किताब का प्रयोजन यही है। वह सब जो सामूहिक स्मृति से मिट रहा है और अभी तक शायद बहुल के लिए इग्ज़िस्ट ही नहीं करता है उसको मुख्यधारा में लाने की जदोजहद।
मैंने किताब किन्डल से खरीदी और फिर अपने सबसे बड़े डरों में से एक से सामना हुआ। देश की यह किताब संगीत घरानों और संगीत के बारे में भी है – जिसकी मुझे बिल्कुल भी समझ नहीं। बिल्कुल ही असंगत आदमी हूँ। यह एक और खतरा। एक संयोग और यह कि शोध के एक अध्याय के चक्कर में, बेगम अख्तर की बायोग्राफियाँ पढ़ रहा हूँ। रीता गांगुली से लेकर यतीन्द्र मिश्र तक कि किताबें। सलीम किदवई और शिवानी के अनूदित लेख। खैर, यतीन्द्र मिश्र वाली किताब में ही मृत्युंजय का एक लेख है। उसी की बात का हवाला दे कर अपनी बात कहता हूँ। मृत्युंजय जो कहते हैं उसका आशय यह है कि अगर संगीत का व्याकरण ना समझ आए तो उसके असर पर बात की जा सकती है। बाउल, शास्त्रीय गायन, सुबह दोपहर गाए जाने वाले राग, संगीत की, संस्कृति की प्लुरैलिटी, ये सब अब खो गया है, और जहां बच गया है मलीन हो गया है।
एक बार किताब में उतरने के बाद एक अजीब तरह का डर पैदा होता है, वही डर जो रसिलनिकोव को पब में बैठे पति पत्नी का झगड़ा देखते देख कर होता है, जो मकबेथ में बुझती हुई सी मोमबत्ती देख कर होता है, जिससे अब उसी तरह का वास्ता है, जितना देश मे सांस लेने का। सुज़न सोंटाग अपनी किताब में ही कहती हैं कि करुणा का तब तक कोई मतलब नहीं जब तक उसको एक्शन में नहीं बदल दिया जाए। हम सरलीकरण और binary से भरे समाज मे जी रहे हैं। अन्य को शत्रु बताकर लगातार उनका शोषण किया जा रहा है, यह कोई नई बात नहीं है। किताब ने इसको लेकर एक फांतासी रची है। कई बार क्या सही में घट रहा और क्या बस एक दृश्य भर है, एक बुरे सपने जैसा यह पता नहीं चलता। वास्तविकता में मनुष्य मनुष्य के प्रति इस तरह हो सकता है, इस तरह की हिंसा कर सकने मे सक्षम है इसका सामना असहज कर देता है। हिंसा के बारे मे जीजेक एक किताब में पिकासो के बारे में एक किस्सा सुनाते हैं। एक जर्मन अधिकारी एक बार पिकासो से मिलने उनके स्टूडियो जाता है और उनका मशहूर काम Guernica देखता है। पूछता है कि यह तुमने किया ? पिकासो जवाब देते हैं कि यह तुमने किया है! किताब यही कह रही है। इसी किताब में जीजेक कहते हैं कि शत्रु वह है जिसकी कहानी हम नहीं जानते। शत्रु निर्माण के लिए जो तंत्र तैयार किया गया है, पिछले सात आठ सालों मे, वह जानबूझ कर कहानियों को गुमाने की कोशिश कर रहा है। शत्रु निर्माण के बिना वह अपना नेरटिव स्थापित नहीं कर सकता। अदर के संदर्भ में ही सेल्फ की सत्ता की स्थापना हो सकती है।
किताब की शुरुआत में ही एक स्त्री रो रही है। आपको डरा रही है। एक एक कर सभी मुख्य पात्रों की पहचान को एक लेबल में रीडूस किया जाना है। एक एक कर के उनकी वीभत्स हत्या होनी है। रोना सुन कर,उसकी वजह ना जानते हुए भी यह आशंका आपके मन में पैदा हो जाती है। मुझे पैरलेल दिखाई दिए – नानू की हत्या और गांधी की हत्या – जो प्लुरैलिटी की वकालत करेगा, मार दिया जाएगा। अब्बू की हत्या, जो विस्मृति से लड़ेगा उसको मार दिया जाएगा। भालो कमोल की हत्या, जो बची हुई मासूमियत है, उसकी नफरत से बनी हुई दुनिया कोई जगह नहीं है। रणेंद्र की worlding मुझे रुषदी की याद दिलाती रही। उनके शुरुआती उपन्यासों की। उसी तरह की फांतासी का निर्माण किताब करती है। परमहंस और नरेंद्र के आने से लेकर कमोल का अपनी मृत्यु को लेकर सपने देखना। बीच में बहुत कुछ ऐसा भी होता है जो घटित है या काल्पनिक इसको लेकर सोचना पड़ता है। मिडनाइट चिल्ड्रन में सलीम के दादा की नाक से जुड़े किस्से, सलीम का अपने साथ पैदा हुए बच्चों से टेलिपथी से बात कर पान आदि दृश्य भी इसी तरह के बदलाव और परिघटना की तरफ इशारा करते हैं। ऐज़ाज अहमद ने जेमिसन की एक किताब पर एक लेख लिखा है। उस लेख में वह राष्ट्रीय रूपकों की बात करते हैं और इस बात के लिए जेमिसन की आलोचना करते हैं कि जेमिसन को लगता है, एकरसता वाले नेरटिव से तीसरी दुनिया के अनुभवों को सही सही बताया जा सकता है। रणेंद्र इस सरलीकरण के विपरीत ठीक रुषदी की तरह बढ़ते हैं। मुझे यह भी लगा कि अगर कोई राष्ट्रीय रुपक वाली कथा होगी जो अभी के समय की बात करेगी तो वह इसी किताब की कथा की तरह बनेगी। एक आयामी नेरटिव से भारत जैसे देश की महागाथा नहीं कही जा सकती। यात्रा 81 मे आई एक किताब के चालीस साल बाद यहाँ पहुँच गई है – इंदिरा से मोदी तक।
किताब में जो दवंद हैं उनमें सबसे नुमायाँ है प्रेम और नफरत के बीच का डाइअलेक्टिक्स, फिर यूनिफोर्मिटी और डाइवर्सिटी का डाइअलेक्टिक्स। हाल के दिनों में आया यह शायद पहला उपन्यास है जो समग्रता से, एक डाइअलेक्टिकल दृष्टि से अभी के समाज को देखता है। इसी से जुड़ी एक बात और, राष्ट्रवाद के संदर्भ में। औपनिवेशिक नैशन स्टेट की परिकल्पना में जो मुख्य दिक्कतें हैं , उसके बारे में बेनेडिक्ट एंडर्सन के काम से हम सभी परिचित हैं। राष्ट्रवाद अपने जिस हिंसक रूप में हमारे सामने काबिज है और रोज हमें पतन की ओर ले जा रहा है, उसकी प्रमुख वजह, एंडर्सन राष्ट्रवाद मे निहित दार्शनिक दरिद्रता को मानते हैं। सत्ता केंद्र होते हुए भी, राष्ट्रवाद के पास किसी तरह की विचारधारा नहीं है और वह खुद को एक छद्म विचारधारा की तरह प्रस्तुत करता है। यह सब एक हीन भावना की उत्पत्ति करता है – कच्छप महाराज के टैटू वाले युवा, जो अंधे हो चुके हैं, जिनका इस्तेमाल पूंजीवाद आराम से अपने उद्देश्य सिद्धि के लिए कर लेगा, उसकी जड़ मे यहीं दार्शनिक दरिद्रता है।
इस किताब के जरिए मैं वहाँ तक पहुँच पाया जिसकी स्मृति आम तौर पर मेरी पीढ़ी से दूर हो गई है। भारत की समृद्ध संगीत परंपरा के बारे मे ज्ञान अब बहुत कम जगहों पर बच गया है। spotify और प्रतीक कूहड़ वाली जनरेशन, थोड़ा बहुत कोक स्टूडियो के जरिए वहाँ तक पहुँचती तो है पर उसको consume करती है, उसकी सांस्कृतिक विरासत से मरहूम ही रहती है। मैंने स्मृति से अपनी बात शुरू की थी। उसी से खत्म करता हूँ। मातम की परंपरा, नौहों से याद करना, बड़ी प्राचीन बात है- ट्रॉमा किस तरह से याद किया जाए, उससे क्या सीख मिल सकती है, और वह किस तरह एम्पथी की समझ पैदा करता है, इस पर किताब के संदर्भ में सोचा जा सकता है। फिर भी कई पक्ष मुझसे छूट गए हैं। जिनपर अभी और सोचना है। एक पोखर है आश्रम के पास। बाउल लोगों के गाँव का प्रकृति चित्रण है।  फिर हर अध्याय किसी कवितांश, किसी शेर, किसी गीत से शुरू होता है। उस पर सोचना है। संगीत घरानों के बारे मे और पढ़ना होगा। शाहिद की एक कविता है,ज़ैनब, अली की शहादत की खबर लेकर दूसरे देश गई हैं। वह किस्सा, चूंकि उनके रुदन से बार बार रुकता है इसीलिए गीत में ही कहा जा सकता है। बार बार याद करना। जो नहीं रहे, उनको याद करना। उनकी शहादत को याद रखना यानि हर तरह की हिंसा का प्रतिरोध।

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अंचित कवि हैं। उनसे anchitthepoet@gmail.com पर बात हो सकती है।

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