लेख::
संजय कुंदन
मंगलेश डबराल ने अपनी कविताओं में अमानवीयता के विरुद्ध एक साधारण मनुष्य के संघर्ष को चित्रित किया। रघुवीर सहाय ने उनकी कविताओं के बारे में लिखा है, “उनकी कविताएं…अपने ही तरीके से लड़ते हुए आदमी की शक्ल दिखलाती हैं। वह खड़े होने भर की जगह में खड़ा हुआ है और उसके साथ है शायद हल्का-सा कोई रंग या शायद उम्मीद या शायद एक मैदान या अंधेरा। ये ही चीज़ें उसके संघर्ष को …अर्थ देती हैं क्योंकि यही संघर्ष है।”
उनकी कविता के केंद्र में एक ऐसा व्यक्ति दिखाई पड़ता है, जो विस्थापित होने को विवश है। वह अपनी जड़ों से कटकर महानगर में रह रहा है, पर यहां के माहौल में खुद को मिसफिट महसूस करता है। वह एक साधारण ईमानदार व्यक्ति है, जो ताकत और बेईमानी के खेल को देख-समझ रहा है और अपने को अलग-थलग और असहाय महसूस कर रहा है। एक अनजान इलाक़े में अनजान लोगों के बीच उसकी स्मृतियां उसे परेशान करती हैं, राहत भी देती हैं। यहां वह उन आत्मीय लोगों को याद करता है जिनकी उपस्थिति कठिन जीवन को भी बेहतर बनाती थी। वह महसूस करता है कि दिन ब दिन स्थितियां भयावह होती जा रही हैं और एक सच्चे व संवेदनशील व्यक्ति का जीना मुश्किल होता जा रहा है। वह अकेला पड़ता जा रहा है, उसके सपने टूट रहे हैं। वह अपना विरोध दर्ज करता है, मनुष्यता के विरोधियों से ज़िरह करता है।
मंगलेश डबराल ने विरोध की एक अलग ही भाषा विकसित की जो बेहद नरम और संयत तरीके से गहरे आक्रोश और प्रतिकार को पूरी मार्मिकता के साथ व्यक्त करती है और इस क्रम में वह जीवन स्थितियों की अनेक जानी-अनजानी परतों में उतरती है।यह प्रतिरोध का नए तरह का स्वर है, जिसमें मनुष्य को जाति-धर्म में बांटने और तमाम संसाधनों पर कब्जे की साजिशों और वित्तीय पूंजी आधारित विकास मॉडल के विरुद्ध आमजन की संस्कृति, प्रकृति के विभिन्न रूपों और इंसानियत के राग को चित्रित करने के प्रयत्न निहित हैं। इसमें आक्रोश या आवेग नहीं है, इसमें विशाल फलक पर किसी बड़े विमर्श की प्रस्तुति नहीं है बल्कि मद्धिम-विनम्र किंतु दृढ़ स्वर में अपना पक्ष रखने की एक निरंतर कोशिश है। यहां तक कि इसमें संगीत भी प्रतिरोध के एक हथियार की तरह आता है।
मंगलेश ने जब लिखना शुरू किया तब हिंदी साहित्य-संस्कृति जगत में संपूर्ण क्रांति, नक्सलबाड़ी आंदोलन और गैर कांग्रेसवाद की ऊष्मा व्याप्त थी और रचनाकारों तथा संस्कृतिकर्मियों को प्रेरित कर रही थी। जनपक्षधरता तमाम विचारों के लेखकों को जोड़ने वाली कड़ी थी। यह वाकई दिलचस्प है कि ग़ैर कम्युनिस्ट रघुवीर सहाय तमाम युवा कम्युनिस्ट लेखकों के भी प्रेरक और रोल मॉडल थे। उस समय के माहौल ने मंगलेश और उनकी पीढ़ी के अनेक कवियों का राजनीतिक शिक्षण किया, जिसका उनके भावबोध पर गहरा असर पड़ा लेकिन यह असर एकदम प्रत्यक्ष या तात्कालिक नहीं था। इसने इन कवियों को उनके निजी अनुभव को एक नई रोशनी में देखने के लिए प्रेरित किया।
उस समय कई नए कवि अपने-अपने वैशिष्ट्य के साथ आए थे, जो समय के साथ एक खास तरह के राजनीतिक आशय से परिपुष्ट होते चले गए। मंगलेश की कविताएं भी इसी प्रक्रिया में आगे बढ़ीं। मंगलेश के पास पहाड़ के जीवन का अनुभव था। एक विराट प्रकृति की भीतरी तहों से लेकर पहाड़ के समाज की विडंबनाओं और एक व्यक्ति की कश्मकश तक पहुंचने की कोशिश से उनका काव्यलोक निर्मित होता था। ‘पहाड़ पर लालटेन’ से लेकर ‘आवाज भी एक जगह है’ तक में मंगलेश छोटी-छोटी और अनदेखी रह जाने वाली चीजों के अंतर्लोक में प्रवेश करते हैं और एक अव्यक्त संसार को उद्घाटित करते हैं। इस क्रम में वे अपने मनोलोक की भी यात्रा करते हैं और उसके भीतर के उखाड़-पछाड़ से हमारा सामना कराते हैं लेकिन ‘नये युग में शत्रु’ के बाद उनका स्वर बदलता है और वे समय के दबाव को रेखांकित करने के लिए उस औजार का इ्स्तेमाल करते हैं, जिसे उन्होंने अपने कई समकालीन कवियों के साथ हिंदी की राजनीतिक कविता की विरासत के रूप में ग्रहण किया था। इस संग्रह में मंगलेश ने सीधे-सीधे सख़्त और कड़वे सामाजिक-राजनीतिक यथार्थ से टकराना शुरू किया। अब उन्होंने मुख्यत: ठोस चीजों और बहिर्जगत पर ध्यान केंद्रित किया। पहली बार उनमें ढेरों ब्योरे आए। इस संग्रह में पहली बार मंगलेश ने ‘डायरेक्ट’ होने का जोखिम उठाया।इस संग्रह की अधिकतर कविताएं जन विरोधी व्यवस्था की पड़ताल करती हैं और शासक वर्ग को एक्सपोज करती हैं। ये असहमति की कविताएं हैं, जो सवाल करती हैं। ये प्रतिरोध की कविताएं हैं जो लगातार ज़िरह करती हैं।इस संग्रह के नाम से ही पहला सवाल कौंधता है: आखिर हमारा शत्रु कौन है? वह है- अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजीवाद। वह भूमंडलीकरण की महा परियोजनाओं के साथ हमारे देश में आया है और उसने हमारी राजनीति और समाज को अपने चंगुल में ले लिया है। इस नव साम्राज्यवादी अभियान के औजार बड़े महीन हैं। अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजीवाद जनतंत्र की खाल ओढ़े और सूचना प्रौद्योगिकी के संयंत्रों से लैस आया है। उसके कारिंदे कहां किस रूप में अपना काम कर रहे हैं, हम ठीक-ठीक नहीं जान पाते। हमें अहसास कराया जा रहा है कि यह सब हमारे लिए ही हो रहा है, लेकिन दरअसल हमें बेड़ियों में जकड़ दिया जा रहा है। इस शत्रु के बारे में मंगलेश कहते हैं:
वह अपने को कंप्यूटरों टेलीविजनों मोबाइलों
आइपैडों की जटिल आंतों के भीतर फैला देता है
अचानक किसी महंगी गाड़ी के भीतर उसकी छाया नजर आती है
लेकिन वहां पहुंचने पर दिखता है वह वहां नहीं है
बल्कि किसी नयी और ज्यादा महंगी गाड़ी में बैठकर चल दिया है
(नये युग में शत्रु)
दरअसल हमारा शत्रु कोई व्यक्ति नहीं, एक विचार है, एक दर्शन है। उसका कोई एक प्रतिनिधि नहीं कि हम उसकी ओर उंगली उठाकर कह दें कि वह है हमारा शत्रु। इस विचार के असंख्य प्रतिनिधि हैं जो अनेक रूपों में सक्रिय हैं। वे हमें सीधे-सीधे आकर चुनौती नहीं दे रहे। बल्कि वे तो हमारे सबसे बड़े हितैषी की तरह आते हैं और कब हमारा इस्तेमाल कर चल देते हैं, हमें पता भी नहीं चलता। मंगलेश लिखते हैं:
हमारा शत्रु कभी हमसे नहीं मिलता सामने नहीं आता
हमें ललकारता नहीं
हालांकि उसके आने-जाने की आहट हमेशा बनी हुई रहती है
कभी-कभी उसका संदेश आता है कि अब कहीं शत्रु नहीं हैं
हम सब एक-दूसरे के मित्र हैं।
(नये युग में शत्रु)
हिंदी के अनेक कवियों ने जनता के संघर्ष को आवाज दी है। जनता के शोषण की भी चर्चा की है और शोषकों के खिलाफ उठ खड़े होने का आह्वान भी किया है। इन सारी कविताओं में जनता का दुश्मन एक सूत्र रूप में चित्रित हुआ है। एक संकेत किया जाता है कि जनता का एक शत्रु है। शत्रु को लेकर एक सामान्य समझ बनी हई है। लेकिन मंगलेश ने संभवतः पहली बार शोषक का इतना विस्तृत चित्र खींचा है। उसके बारे में इतना विस्तार से बताया है। शोषक के बारे में इतना विस्तार से बताना इस बात की ओर इशारा है कि आम जन के सामने कितनी बड़ी चुनौतियां हैं, उनका संघर्ष कितना जटिल है। मंगलेश बताते हैं कि शत्रु भी बदल गया है। वह इतना साफ-साफ दिखने वाला या प्रकट नहीं है कि उस पर सीधे हमला बोल दिया जाए। निश्चय ही यह एकध्रुवीय और भूमंडलीकरण के बाद की दुनिया का एक कटु यथार्थ है। यह वह समय है जब शोषण के तरीके बेहद बारीक हो गए हैं। ‘गुजरात के मृतक का बयान’ हिंदी की उन श्रेष्ठ कविताओं में एक है, जो क्लासिक का दर्जा पा चुकी हैं। कविता बताती है कि किस तरह सांप्रदायिक टकराव की आड़ में सत्ता द्वारा जनसंहार किया जाता है। जाति, धर्म या संप्रदाय अकसर टूल की तरह इस्तेमाल किए जाते हैं पर असल उद्देश्य होता है अपनी सत्ता स्थापित करना। सत्ताएं अपनी स्वीकृति के लिए इसी तरह जनता का सफाया करती हैं। चाहे वह आश्वित्ज नरसंहार हो या गुजरात जैसे दंगे। एक समूह विशेष को निशाना बनाकर एक बड़े समुदाय में अपनी पैठ बनाई जाती है और अपनी हुकूमत मजबूत की जाती है। सत्ताधारी वर्ग के इस खेल में मुख्यत: पिसता है गरीब आदमी। उसे न जाने कितने तरीकों से मारा जाता है। कविता का कुछ पंक्तियां देखें:
और मुझे इस तरह मारा गया
जैसे एक साथ बहुत से दूसरे लोग मारे जा रहे हों
मेरे जीवित होने का कोई बड़ा मकसद नहीं था
लेकिन मुझे इस तरह मारा गया
जैसे मुझे मारना बड़ा मकसद हो
(गुजरात के मृतक का बयान)
गुजरात के मृतक के बयान में उस अभिशप्त जन समूह की आर्त्त पुकार शामिल है, जो शासक वर्ग की किसी योजना के तहत सुनियोजित तरीके से मारा गया। और उसके मारे जाने पर गर्व किया गया, उत्सव मनाया गया। और लंबे समय तक जिसे तरह-तरह की दलीलों से सही ठहराया गया। इस तरह यह कविता आधुनिक सामाजिक विकास और जनतंत्र की पोल खोलती है।
मंगलेश एक राजनीतिक कवि थे। उनकी कविता और उनका जीवन इसका प्रमाण है। एक प्रतिबद्ध रचनाकार के दायित्व को निभाते हुए वे देश व जनता से जुड़े हर तरह के विमर्शों का हिस्सा बने। मार्क्सवाद ने उन्हें एक वैचारिक ऊर्जा और समाज व व्यवस्था को समझने की दृष्टि दी थी। वे जनता की संगठित शक्ति द्वारा व्यवस्थागत बदलाव के हिमायती थी। इसलिए उनकी नज़र में जनसंगठनों की एक खास भूमिका थी। वे जन संस्कृति मंच से जुड़े हुए थे और उसके राष्ट्रीय उपाध्यक्ष थे। उनसे जितना बन सका, वे जनता के सवालों से जुड़े आयोजनों और विरोध प्रदर्शनों में शरीक हुए। इधर अकसर किसी कवि को राजनीतिक बताए जाने पर यह कहकर आपत्ति जताई जाने लगी है उन्होंने तो प्रेम, मानवीय संबंधों और सौंदर्य का चित्रण किया है। यह बात ऐसे कही जाती है जैसे राजनीतिक होना प्रेम और सौंदर्य का विरोधी होना हो। सचाई है कि उत्कट प्रेम और उन्नत सौंदर्यबोध ही तो जनपक्षधर राजनीति की बुनियाद है। क्रांतिकारी कवियों ने बड़े पैमाने पर प्रेम कविताएं लिखी हैं। दरअसल राजनीति प्रेम और सौंदर्य को समाज व जनजीवन के सापेक्ष रखकर देखती है। राजनीतिक कवि और अराजनीतिक कवि की प्रेम के प्रति दृष्टि में भी फ़र्क़ होता है। मंगलेश वस्तुओं या किसी दृश्य के सौंदर्य को उसकी आंतरिक गतिशीलता के साथ रचते हैं लेकिन वह सामाजिकता से निरपेक्ष या तटस्थ नहीं होता। उसमें भी मनुष्य का संघर्ष और करुणा शामिल रहती है। यही बात संबंधों के साथ भी देखी जाती है। एक अराजनीतिक कवि, संभव है अपनी मां या प्रेमिका को अलौकिक स्त्री या देवी का दर्जा दे दे, पर एक राजनीतिक कवि उन्हें हमेशा जीवन के ठोस यथार्थ और विडंबनाओं के बीच ही चित्रित करता है। मंगलेश की कविता ‘मां की तस्वीर’ की इन पंक्तियों को देखें:
घर में माँ की कोई तस्वीर नहीं
जब भी तस्वीर खिंचवाने का मौक़ा आता है
माँ घर में खोई हुई किसी चीज़ को ढूंढ रही होती है
या लकड़ी घास और पानी लेने गई होती है
यहां मां एक औसत घरेलू स्त्री है, जिसके श्रम पर पूरा घर चलता है। उसे क्षण भर का आराम तक नसीब नहीं है। परिवार के और लोग फोटो खिंचाने या दूसरे तरह से मन बहला रहे होते हैं तो भी वह काम में ही लगी रहती है। स्त्री जीवन की विडंबना को समझने की दृष्टि राजनीतिक समझ से ही और मज़बूत होती है। इसी तरह ‘टॉर्च’ कविता की उनकी पंक्तियां देखी जा सकती हैं:
दादी ने कहा बेटा उजाले में थोडा आग भी रहती तो कितना अच्छा था
मुझे रात को भी सुबह चूल्हा जलाने की फ़िक्र रहती है
घर-गिरस्ती वालों के लिए रात में उजाले का क्या काम
बड़े-बड़े लोगों को ही होती है अँधेरे में देखने की ज़रूरत
पिता कुछ बोले नहीं बस ख़ामोश रहे देर तक।
यहां भी ग्रामीण जीवन का कठोर यथार्थ दिखता है। गांवों में आग को संजोए रखना औरतों के लिए मामूली संघर्ष नहीं रहा है। उजाले में थोड़ी आग रहने की बात भी अर्थपूर्ण है। यानी वही विकास सार्थक है जो हर आदमी की ठोस-भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करे। सिर्फ उजाले या चमक-दमक से जीवन नहीं चलना है, आग चाहिए ताकि उस पर खाना बन सके। इसी तरह तुम्हारा प्यार शीर्षक कविता में वे लिखते हैं:
तुम्हारा प्यार लड्डुओं का थाल है
जिसे मैं खा जाना चाहता हूँ
तुम्हारा प्यार एक लाल रूमाल है
जिसे मैं झंडे-सा फहराना चाहता हूँ
तुम्हारा प्यार एक पेड़ है
जिसकी हरी ओट से मैं तारॊं को देखता हूँ
तुम्हारा प्यार एक झील है
जहाँ मैं तैरता हूँ और डूब रहता हूँ
तुम्हारा प्यार पूरा गाँव है
जहाँ मैं होता हूँ…!”
जाहिर है, उनके लिए प्रेम भी इस लौकिक यथार्थ और संघर्षपूर्ण जीवन का हिस्सा है। वह जीवन की लड़ाइयों में उन्हें ताक़त देता है। शायद इसलिए वह उसे झंडे की तरह लहराने की बात करते हैं। उनके लिए प्रेम पूरा गांव है। यानी प्रेम अपने समाज से हटकर या उससे इतर कोई सत्ता नहीं है। इस जीवन से इसकी चुनौतियों से भागकर प्रेम हासिल करने की बात वे नहीं कहते। इस तरह मंगलेश डबराल हिंदी की उस प्रगतिशील धारा के अहम प्रतिनिधि कहे जाएंगे, जिसने जनतांत्रिकता, धर्मनिरपेक्षता और न्याय के पक्ष में हमेशा आवाज बुलंद की और हर तरह की सत्ताओं के बरक्स विपक्ष की भूमिका निभाई।
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संजय कुंदन हिंदी के चर्चित कवि लेखक हैं। उनसे sanjaykundan2@gmail.com पर बात की जा सकती है।
इतनी बारीकी से लिखा हुआ लेख, काफ़ी दिनों बाद कुछ अच्छा पढ़ना हुआ, धन्यवाद।