लिखत::
आमिर हमज़ा
तिलिस्म-ए-ख़्वाब-ए-ज़ुलेख़ा ओ दाम-ए-बर्दा-फ़रोश
हज़ार तरह के क़िस्से सफ़र में होते हैं
—अज़ीज़ हामिद मदनी
मरने से नहीं रोने से मरता है दुख
हमारे आसपास लौटना रोज़ होता है। अलग अलग शक्ल में लौटना। वर्तमान का स्मृति में लौटना। कामवालों का घर की ओर लौटना। करवट बदलते शख़्स का मुस्कान में लौटना, लौटना व्यथा में। सुबह के सूरज का शाम के सूरज में लौटना। दिन का रात में लौटना, लौटना सुबह का शाम में। ओस के पनियल का हरे में लौटना। परिंदों की चोंच में दबे दाने का चुग्गे की शक्ल में लौटना। बारिश की बूंदों की छुअन से धरती की कोख से गंध का लौटना। सब दीखा दीखा लौटना हमारे आसपास। अदृश्य सा…रोज़ रोज़। मैं, मेरे भीतर का कवि—दिन-ब-दिन स्याह होती जाती दमघोंटू दुनिया में—जो लगभग मरने की हद तक जा पहुँचा, धुर हिमालय की गोद से लौटा, जैसे मरने से लौटा…!
आग उगलते दिन से मन ख़राब है
देश की राजधानी में गोद में बच्चा लिए, चलती बस में एक स्त्री को चढ़ता देख, एक कवि के मन भीतर कुछ बहुत कुछ दूर तक घिसटता जाता है। वह ‘आत्महत्या के विरुद्ध’ बोलता है। एक कवि ऊब भरे संसार में ऊबने और उदास रहने की हिमायत करता है। वह ‘हवा में हस्ताक्षर’ करता है। एक कवि भ्रमित होता चौराहे पर क़दम रखता प्रत्येक वाणी में महाकाव्य पीड़ा पाता है। उसके लिए ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’। एक कवि को फूलों के बरअक्स रंग बोलते नज़र आते हैं। वह ‘आत्म-गंध’ में खो जाता है। एक कवि मौन में अभिव्यंजना पाता है। वह ‘आंगन के पार द्वार’ देखता है। एक कवि ज़रा से प्यार में डूब जाता है और जीवन बीत जाता है। वह ‘हाशिए का गवाह’ है। रतजगे की नींद में विचरता भटकता एक कवि ‘मैं’(?) अपने इन पुरखों के शब्दों को पीठ पर ढोता हूँ और दिन की शुरुआत आसमान के नीले के नीचे गुलमोहर के लाल को आँखों में भरकर करता हूँ।
मेरे मन में कई मन के दुख हैं।
मेरी यादों में कई लड़कियों की यादें हैं।
मेरी आँखों में विरह के जाले हैं।
मैं तुम्हें अब भी चाहता हूँ
तुम आओ कहीं से भी आओ
कश्ती को समंदर में उतारने में मेरी मदद करो।
मैं पार जाना चाहता हूँ!

कवि अजेय और आमिर
मैं अजेय भाई के पास ‘लाहुल’ जा रहा हूँ—
अजेय भाई लाहुल से आने वाले हिंदी के पहले कवि हैं। भोट देस के कवि। हिंदी के सुदूर इलाक़े के कवि। धुर हिमालय की गोद से आने वाले कवि। हिंदी के मुखौटा कवियों की अदबी राजनीति में गुम हुए कवि। तथाकथित आधुनिकता की चकाचौंध से कोसों दूर कवि। हिमालय की पीड़ा, कराह, वेदना उसकी चीख को अपनी कविता में दर्ज करने वाले कवि। पहाड़ के आँसू देखने वाले कवि। पहाड़ के साथ साथ रोने वाले कवि। पहाड़ का लगाव रचने वाले कवि। अजेय—जिनकी कविताओं में बोदि के फूलों की गुच्छियाँ हैं, चरस और थरड़े की थैलियाँ हैं। जिनकी कविताओं में सुंदर गट्ठरों में बाँधकर मुँडेरों पर सजा दी गईं ब्यूंस की टहनियाँ हैं। जिनकी कविताओं में सूखी हुई खुबानियाँ और भुने हुए जौ के दाने हैं। जिनकी कविताओं में ‘बरफ़’ तितलियों की तरह आता है, सम्राट की तरह विराजता है और चोर की तरह खिसक जाता है। जिनकी कविताओं में बीड़ी के टोटे हैं। चिड़ियों और तितलियों के टूटे हुए पंख हैं, मरे हुए चूहे हैं, धागों से बंधे हुए। अजेय हिंदी के एक महत्वपूर्ण मरहूम कवि सुरेश सेन निशांत को याद करके रोने वाले कवि हैं। अजेय, जिन तक कविताएँ कोरवा की पहाड़ियों और चंबल की घाटियों से पहुँचती हैं। भीमबेटका की गुफा से स्वात और दज़ला से। कारगिल और पुलवामा से। मरयुल, जङ-थङ, अमदो और खम से। कविता उन सभी देशों से जहाँ कवि कभी जा नहीं पाया।
“सहसा ही एक ढहता हुआ बुद्ध हूँ मैं अधलेटा
हिमालय के आर-पार फैल गया एक भगवा चीवर
आधा कंबल में आधा कंबल के बाहर
सो रही है मेरी देह कंचनजंघा से हिंदुकुश तक
पामीर का तकिया बनाया है
मेरा एक हाथ गंगा की खादर में कुछ टटोल रहा है
दूसरे से नेपाल के घाव सहला रहा हूँ
और मेरा छोटा-सा दिल ज़ोर से धड़कता है
हिमालय के बीचों-बीच।“
…..
अचानक मेरी नींद उचटती है। मेरी बगल में बैठा बच्चा वीडियो गेम खेल रहा है। मैं शीशे से पर्दा दूर करता हूँ। बस सड़क के किनारे रुकी हुई है। सड़क के उस ओर दिल टंगा ‘I LOVE ROOPNAGAR’ चमचमा रहा है। अब मुझे नींद नहीं आएगी। मैं असरार का रूहदारी सुनना शुरू करता हूँ। असरार गा रहा है—
“वो लड़की थी जो रूपनगर की रानी थी
वो जिसकी अल्हड़ आँखों में हैरानी थी
आज उसने भी पैग़ाम यही भिजवाया है
सब माया है…सब माया है…
सब ढलती फिरती छाया है
इश्क़ में हमने जो खोया जो पाया है
सब माया है…”
मेरा पानी ख़त्म हो गया है। सतलज दीवानगी में डूबी बहे जा रही है….। पानी माँगने पर, बस स्टाफ का एक व्यक्ति पतंजलि की एक बोतल मुझे दे गया है। दफ़अतन, कभी पढ़ी प्रदीप सैनी की कविता याद आ जाती है—
“यात्रा पर निकलते हुए साथ लिया गया पानी
ज़्यादा देर काम नहीं आता।”
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यह सुबह का वक़्त है। यह कुल्लू है। देश की राजधानी दूर छूट गई है। अखरोट के दरख़्त पर अखरोट आने लगे हैं। सेब के दरख़्त पर सेब आने लगे हैं। खुबानी के दरख़्त पर खुबानी आने में अभी वक़्त है। यह अजेय भाई के देस की बात है। अजेय भाई मुझे लेने आए हैं…
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पिछले कुछ बरसों से हिमाचली मुआशरे में एक नया रिवाज शुरू हुआ है—रिटायरमेंट पार्टी! रिटायरमेंट पार्टी याने ख़ूब सारी शराब, ख़ूब सारी ट्राउट फिश और धाम (एक हिमाचली पकवान जिसमें खाने वालों को चावल के साथ कई तरह की सब्ज़ी और दाल परोसी जाती है)। अजेय भाई के कोई एक डॉक्टर मित्र अभी हाल ही में सेवानिवृत्त हुए हैं। आज उनकी रिटायरमेंट पार्टी है। अपने आराम करने के विचार को स्थगित कर, मैं अजेय भाई के साथ वहाँ जा रहा हूँ।
‘पटनी’ पटन के लोगों की दिल की भाषा है
यहाँ मैं यूसुफ़ भाई से मिला हूँ। इसके पहले मैं यूसुफ़ भाई को सिर्फ़ नाम से जानता था, शक्ल से नहीं। यूसुफ़ भाई का मूल नाम सुरेन्द्र सिंह है। वे पटनी भाषी कवि हैं। पटनी रोहतांग दर्रे के पार पटन घाटी की भाषा है। यों वे हिंदी में भी कविताएँ लिखते हैं, छपवाते नहीं हैं। इसलिए यह नाम हिंदी वालों ज़रा नया लग सकता है। इन दिनों यूसुफ़ भाई पटनी में प्रेमगीत रच रहे हैं। बातचीत में वो बताते हैं कि उनकी शुरुआती तालीम केलंग, हिमाचल प्रदेश से हुई है। वो लगभग ३३ साल बैंक में नौकरी करने के बाद अब पूर्ण रूप से संगीत, चित्रकला और लेखन में रमे हुए हैं। कमाल अमरोही निर्देशित फ़िल्म ‘पाकीज़ा’ की किरदार ‘साहिब जान’ उन्हें अब भी याद आती है। बस इतना सा…! यार एक ठंडी बीयर तो देना ज़रा…
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पहाड़ पर पहला दिन गुज़र गया। एक सुंदर दिन। यह रात है….एक ऊँची पहाड़ी पर अजेय भाई का घर बसा है। घर क्या है रंग-बिरंगे फूलों से भरा बग़ीचा है। मैं बालकनी में जाता हूँ और सिगरेट जलाता हूँ। दूर बहती हुई व्यास की आवाज़ सुनाई दे रही है। पहाड़ियों ने तारों की चादर ओढ़ ली है। बादलों पीछे पूरा पूरा चाँद निकला है। सुबह लाहुल जाने के वास्ते अब मुझे सोना है!
…..
सुबह सुबह कूल्लू को छोड़कर हम लाहुल की ओर निकल पड़े हैं।
सरताज वो मेरा महबूब, वो मेरा दीदावर गा रहा है—
“औखा सोखा वक़्त गुज़र ही जांदा ए
दो वेल्ले ता रोटी हर कोई खांदा ए…
रब जे कर ख़ुश होके झोली भर देवे
तैनू जे कर शीशे वाला घर देवे…
कुज्ज नी घटदा सब नू हस्स्के मिल मित्रा
इस दुनिया विच सबतों नाज़ुक दिल मित्रा
देखि तू जज़्बात किस्से दे नोचि ना…
जम जम लिख सरताज कोई नहीं टोक रेहा
सत असमानें चढ़नों केहा रोक रेहा
कलम नाल पर अल्ले ज़ख़्म ख़रोचि ना…”
मैं उस एक को याद करता हूँ और कल के अपने लिखे में लौट जाता हूँ—
किसी के ख़ालीपन में हिस्सेदार होना और अपने भीतर के हरे को जाने-अजाने धीरे धीरे मिटाते चले जाना ख़ुद से ख़ुद पर ज़्यादती के सिवाय कुछ भी नहीं। यह आपको अपने भीतर के हरे के सूख जाने पर समझ आता है। आप अपने ख़ालीपन के पक्ष में एक जोड़ी आँखें तलाशते हैं और अँधेपन का शिकार होकर वापस लौट आते हैं…..
मैंने हमेशा अपने दुख कम कहे, सुने अधिक।
मैंने उजाला बाँटा, कम से कम ऐसा भरोसा पैदा किया और
मैं अँधेरा होता चला गया।
मेरी पीठ ग़ैर पीड़ाओं की इबारत के बोझ तले दब गई।
मेरी आँखों के नीचे ठीक गाल के ऊपर एक तालाब बना
जहाँ बगुलों ने मेरे भीतर की मछलियों को निगल डाला।
मेरे भीतर का पानी बगुलों की चोच से अब ज़हर है!
तुम बगुलों से बचना और उनकी चोंच से
अपने भीतर के हरे और तालाब और मछलियों की ख़ातिर!
…..
कुल्लू-मनाली पीछे छूट गया है। हमने अभी अभी अटल सुरंग को पार किया है। मनाली और केलोंग को जोड़ने वाली इस सुरंग की कुल लंबाई 9.02 किलोमीटर है। यह पीर पंजाल की पहाड़ियों के सीने में छेद करके बनाई गई है। इस सुरंग के बनने से लेकर बन जाने तक एक कवि के रूप में अजेय भाई की हमेशा से चिंता रही है—
(चित्रकार सुखदास की पेंटिंग्स देखते हुए)
“पर ज़रा सोचो गुरूजी
जब निकल आएगा
इसकी छाती में एक छेद
और घुस आएँगे इस स्वर्ग में
मच्छर
साँप
बन्दर
टूरिस्ट
और ज़हरीली हवा
और शहर की गन्दी नीयत
और घटिया सोच गुरूजी
तब भी आप इन्हें ऐसे ही बनाओगे
अकड़ू और ख़ामोश?”
…..
अभी हम एक रेस्त्रां में नाश्ता करने के लिए रुके हैं। भागा नदी के उस ओर बादल घुमड़ रहे हैं। कहीं कहीं पहाड़ पर पिछले बरस की बर्फ़ जमी है। रोहतांग पार लोक देवी-देवताओं का बहुत महत्व है। चहुँओर आस्था से भरे हुए लोग। रेस्त्रां का मालिक हमें नाग देवता की कहानी बता रहा है। हम उससे विदा लेकर आगे बढ़ जाते हैं…..। हमारे एक तरफ़ पीर पंजाल है, एक तरफ़ भागा घाटी। सिस्सू में पर्यटकों की भीड़ लगी है। रास्ते में नीलगार ग्लेशियर पड़ता है और भी कई छोटे छोटे। दूर ‘बलु’ याने बौनों के खेत पड़ते हैं। हाथी की आकृति सा एक पहाड़ पड़ता है। बाढ़ में बहा एक उजड़ा गाँव पड़ता है। ब्यूंस के पेड़ मिलते हैं। एक गुफ़ा पड़ती है जहाँ तपस्या में लीन एक सिद्ध एक जोगिनी को देख बाज़ में तब्दील हो गया था किसी ज़माने में—और उसने इस तरह मुक्ति पाई। हमें अभी दूर तक जाना है। मैं अजेय भाई से कोई कहानी सुनाने की गुज़ारिश करता हूँ। अजेय भाई सुनाते हैं—
“बहुत पहले कुल्लू में एक दैत्य का राज था। और उस आततायी का दमन करने का दायित्व केसर को सौंपा गया। वह अपने उड़ने वाले घोड़े पर सवार हुआ और उड़ चला। पीर पंजाल की चोटियाँ बहुत ऊँची थीं। घोड़े को उसे लाँघने में दिक़्क़त आई। केसर ने अपने चाबुक से पहाड़ पर वार किया। वहाँ एक दर्रा बन गया जिसे आज लोग रोहताँग दर्रा कहते हैं। जब उसने दूसरे वार के लिए चाबुक उठाई, ‘अने कुर्मन’ जो एक खंड्रोमा या जोगिणी थीं, अचानक प्रकट हुई और हाथ पकड़ कर रोक लिया। समझाया कि आवाजाही के लिए इतना-सा रास्ता काफी है। यदि तुम इस पर दूसरा वार करोगे तो लिङ(ट्राँस हिमालय) और मोन(भारतीय हिमालय) एक हो जाएंगे। अब देखिए यह है तो कहानी ही। लेकिन कैसे हमारे पूर्वजों ने ट्राँस हिमालय की इस गाथा का एक लाहुली नेरेटिव गढ़ लिया! यह उन्होंने इसलिए किया कि इस समुदाय का सम्पर्क बाहरी दुनिया से बने तो सही, लेकिन एक सीमित स्तर पर। कि लाहुल की साँस्कृतिक अस्मिता बची रहे!”
…..

सुमनम गांव में चिनाब नदी
यह लाहुल में तांदी संगम है। यहाँ चंद्रा और भागा नदी का संगम होता है। यहीं से इश्क़ की नदी जन्म पाती है। चिनाब जन्म पाती है। कई लोकप्रसिद्ध कहानियाँ जन्म पाती हैं। चिनाब किनारे ‘बल्हः’ के फूल याने जंगली गुलाब ख़ूब ख़ूब खिले हुए हैं। कुछ बिलकुल सुर्ख़ लाल कुछ बिलकुल गुलाबी। मैं ‘आशकां दा दरिया’ के साहिल पर खड़ा सोहणी-महिवाल, हीर-रांझा और साहिबान-मिर्ज़ा को याद कर रहा हूँ। रुलाई फूटती है और मैं याद करता हूँ फ़िराक़ गोरखपुरी का यों कहना—
“सुनते हैं इश्क़ नाम के गुज़रे हैं इक बुज़ुर्ग
हम लोग भी फ़क़ीर उसी सिलसिले के हैं”
एक चरवाहा अपनी रेवड़ हाँक रहा है….। उसे वहाँ दूर बहुत दूर ऊँचाई के पहाड़ों पर जाना है। हमें आगे सुमनम याने अजेय भाई के गाँव। वो चला जा रहा है और वहाँ दूर ऊँचाई के पहाड़ों पर अपनी धोक को याद कर रहा है। उसकी मिटटी लकड़ी पत्थर को याद कर रहा है। वो बादलों की सरपरस्ती को याद कर रहा है! वो देवदार की निगहबानी को याद कर रहा है! वो बकरी के मिमियाने को याद कर रहा है! वो बाघ की दहाड़ को याद कर रहा है! वो भालू की गुर्राहट को याद कर रहा है! वो घोड़े की हिनहिनाहट को याद कर रहा है! वो एक औरत की मुहब्बत को याद कर रहा है!
वो याद कर रहा है और उदास हो रहा है!
वहाँ दूर बहुत दूर ऊँचाई के पहाड़ों पर उसकी धोक की ताख में कब से चिराग़ नहीं जला।
वहाँ दूर बहुत दूर ऊँचाई के पहाड़ों पर उसकी धोक का चूल्हा कब से आबाद नहीं हुआ।
…..
यह सुमनम है। ‘द ग्रेट हिमालयन रेंज’ पर बसा एक छोटा सा ख़ूबसूरत गाँव। पहाड़ियों से घिरा हुआ। हम यहाँ एक चाय की टपरी पर बैठे हैं। अभी अभी मौसम ने करवट बदली है। बारिश शुरू हुई है। अपने गाँव के लोगों को अजेय भाई मेरा परिचय यों दे रहे हैं : ‘ये आमिर हमज़ा हैं। कविताएँ लिखते हैं। जेएनयू में पढ़ाई कर रहे हैं।‘ मेरे सामने कुछ ही दूरी पर एक पत्थर रखा है। अजेय भाई इशारा करते हुए कहते हैं—‘ऐसी मान्यता है कि यहाँ हर साल डायनों का मेला लगता है।‘ एक व्यक्ति तुरंत इस बात की तस्दीक़ कर देता है।
…..
अभी भी हल्की हल्की बारिश हो रही है। हम एप्पल लॉज में ठहरे हुए हैं। हम जौं से बनी लाहुल की शराब, जिसे वहाँ की अलग अलग भाषाओं में—सरा:, अर्क और पात्र कहा जाता है, में डूबे हुए हैं। सामने एक गोम्पा याने मोनेस्ट्री से पीला प्रकाश छनकर आँखों तक आ रहा है। दूर ऊँचाई के पहाड़ों के पार चाँद खिला हुआ है। बीच बीच में तारे दीखते हैं और ग़ायब हो जाते हैं। मैं अजेय भाई की पहली कविता किताब ‘इन सपनों को कौन गाएगा’ उठाता हूँ और एक कविता ‘माँ, हर्पीज़ और आदिम चाँदनी’ पढ़ने लगता हूँ—
“यह कोई आदिम युग ही होगा।
वे लोग आधी-आधी रात तक जागे रहते हैं
साँसे रोक चाँद उगने की प्रतीक्षा में
जब कि सन्तरई-नीली चाँदनी ने पहले ही
पहाड़ के पीछे वाली घाटी में बिछना शुरू कर दिया है।
चाँद के घटने-बढ़ने का हिसाब
तमाम कलाओं की बारीकियां
भोज पत्रों में दर्ज करते हैं वे सनकी लोग
पल, घड़ी, पहर और तिथियां
उन्होंने इन ब्यौरों के मोटे भूरे ग्रन्थ बना रक्खें हैं।
कुछ लोग एक झाड़ की ओट में
भारी धारदार खाण्डों से दुर्बल मृगशावकों के गले रेत रहे हैं।
और कुछ अन्य
गुपचुप पड़ोसी कबीले पर हमले की योजनाएं बना रहे हैं।
उन्होंने बड़े-बड़े कद्दावर ऊंट और घोडे़ और कुत्ते पाल रखे हैं।
अपने पालतुओं के जैसे ही वहशी दरिन्दे हैं वे—
तगड़े, खूंखार, युद्धातुर।
अपने निश्चयों में प्रतिबद्ध।
अपने प्रारब्ध के प्रति निश्चिन्त।
जाने कब से उनके आस-पास विचर रहा हूँ मैं
बलवान शिकारियों के उच्छिष्ठ पर पलने वाला लकड़बग्घा
हहराते अलाव पर भूने जा रहे लाल गोश्त की आदिम गंध पर आसक्त
मेरे अपने चाँद की प्रतीक्षा में।
मुझे भी नीन्द नहीं आती आधी-आधी रात तक।
मैं भी उतना ही उत्कट
उतना ही आश्वस्त
वैसे ही आँखें बिछाए
उतना ही क्रूर
उतना ही धूर्त
अपने निजी चेतनाकाश के फर्जी़ नक्षत्रों का कालचक्र तय करने
अपना ही एक छद्म पंचांग निर्धारित करने की फिराक में
अपना मनपसन्द अख़बार ओढ़
(जिस में मेरे प्रिय कवि के मौत की ख़बर छपी है)
अपनी ही गुनगुनी चांदनी में सराबोर होने की कल्पना में
उतना ही रोमांचित।
महकती फूल सी गुलाबी रक्कासा
पेश करने ही वाली है मदिरा की बूंदे
कि कैसी भीनी-भीनी खुश्बू आने लगी है
अचानक अख़बार भीगने की!
यह बारिश ही होगी।
चाँदनी में भीगे अक्षरों के पार
मैं बादलों की नीयत पढ़ने का प्रयास करता हूँ।
मेरे प्रिय कवि के गाढे़ अक्षर रह-रह कर उभरते हैं
बारिश में घुलमिल कर लुप्त हो जाते हैं
मैं पलकें झपकाता रह जाता हूँ निरक्षरों सा
युगों से मैंने किसी और की कविता नहीं पढ़ी
किसी और का दर्द नहीं समझा
और भीतर की टीस गहराता ही गया है।…..”
मुझे अभी और ‘अर्क’ पीना है। मुझे नशे में डूब जाना है।
…..

पीर पंजाल की पहाड़ियाँ
रातभर बारिश होती रही। सामने चिनाब के उस ओर पीर पंजाल पर बादल सोये हैं। हम अभी उदयपुर जा रहे हैं, उसके पहले हम कुछ वक़्त के लिए रास्ते में ‘कुकुम्सेरी डिग्री कॉलेज’ में रुकेंगे। वहाँ से अक्षय भाई को साथ लेकर हमें आगे मयाड़ घाटी जाना है। अक्षय भाई म्यूज़िक के प्रोफ़ेसर हैं। बच्चों को सितार सिखाते हैं। यह ‘द ग्रेट हिमालयन रेंज’ है। अभी हमने सुरेन्द्र कौर को सुनना शुरू किया है। बल्हः और दीगर रंग-बिरंगे फूलों से घिरी हुई चिनाब साथ साथ चल रही है। सुरेन्द्र कौर गा रही हैं—
“जदों कोई बाग़ वेखेंगा, खिड हुवे फुल वेखेंगा
मैं हसदी नज़र आवांगी, तू मेरे बोल वेखेंगा
मैं हसदी नज़र आवांगी, तू मेरे बैल वेखेंगा
मैं तेनु याद आवांगी
याद आवांगी, तेनु याद आवांगी”
…..
हम मयाड़ घाटी में हैं। बहुत तेज़ बारिश हो रही है। रास्ता बहुत ख़राब है। ख़राब रास्ते में एक ‘ककशोटी’ चिड़िया मयाड़ नदी के साथ गीत गा रही है। यहाँ के लोग मयाड़ नदी को नदी नहीं, नाला बोलते हैं। मैं मैदानी आदमी, पहाड़ी लोगों को मैदानी नाले के बारे में बता रहा हूँ। मैदान में नाला मतलब—बदबू और शहर भर का कूड़ा। पहाड़ में नाला मतलब—कलकल बहता धवल पानी। अभी मैंने भोजपत्र के दरख़्त को छूकर देखा है। मुझे बहुत सी ऋचाएँ याद आई हैं। यह मयाड़ घाटी का आख़िरी गाँव है। इसके आगे रास्ता बंद है।
कृपया संभलकर कदम रखें…!
आज की रात हम अजेय भाई के पुराने दिनों के एक किसान मित्र सहदेव के लकड़ी और मिट्टी के घर ठहरे हुए हैं। सहदेव ने हमारा स्वागत ‘शागुण’ से किया है। एक पात्र में सत्तू, कुछ जुनिपर की हरी ख़ुशबूदार पत्तियां, एक अगरबत्ती, कुछ मंत्र और ‘अर्क’ की बोतल पर लगा मक्खन। उसके बाद आधी रात तक ख़ूब ‘सरा:नोशी’।
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हम मयाड़ घाटी से वापस ‘कुकुम्सेरी डिग्री कॉलेज’ लौट आए हैं। अभी हम कॉलेज घूमेंगे। यहाँ छात्र कम शिक्षक ज़्यादा हैं। लाइब्रेरी बेशक अच्छी है। यहाँ हिंदी की बहुत सी पुरानी किताबें—वे दिन(निर्मल वर्मा), हिंदी साहित्य का इतिहास(रामचंद्र शुक्ल),हिंदी साहित्य का समीक्षात्मक इतिहास(डॉ. खेलचंद आनन्द) और भीष्म साहनी की कहानियाँ हैं। लेकिन, अफ़सोस पढ़ने वाला यहाँ कोई नहीं! इधर का साहित्य तो बिकुल नदारद है। त्रिपाठी जी गोरखपुर से हैं और यहाँ अर्थशास्त्र के शिक्षक हैं। उन्होंने हमें अपने घर चाय पर आमंत्रित किया है। उनकी बेटी जो अभी स्कूल में है, हमें अपनी कविताएँ सुना रही है। कुछ शिक्षक मिलकर किचन गार्डन तैयार कर रहे हैं।
अक्षय भाई हमें कॉलेज से लगभग दो सौ मीटर की दूरी पर स्थित ‘ट्राइबल म्यूज़ियम’ दिखाने लाए हैं। यह कुकुम्सेरी के हिंदी कवि छेपराम के व्यक्तिगत प्रयासों से उनके घर के ऊपरी मंज़िल पर बना हुआ है। छेपराम न सिर्फ़ ‘हडूका की मौत’ के कवि हैं, वो एक सरकारी स्कूल में हिंदी के अध्यापक भी हैं। छेपराम पिछले आठ साल से लाहुल की संस्कृति, भूगोल और इतिहास से संबंधित किताब तैयार कर रहे हैं। ऐसा उन्होंने न सिर्फ़ बताया बल्कि, कुछ हिस्सा हमें पढ़कर भी सुनाया है।
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सैन्नी अशेष, अजेय और आमिर
स्नोवा बॉर्नों और सैन्नी अशेष
हमारी लाहुल यात्रा का यह आख़िरी दिन है। बारिश थम गई है—रातभर बारिश होती रही। अभी चटख धूप निकली है। हम सुमनम लौट आए हैं। अमरजीत भाई जो एप्पल लॉज के मालिक और सुमनम के रहवासी हैं, पानी के सिलसिले में आज एक और जगह मीटिंग में जा रहे हैं। फिर से आने का वादा करके हम उन्हें विदा कहते हैं। कुछ ही देर में हम मनाली की ओर रवाना होंगे। मन का ख़ूब सारा कूड़ा यहीं छोड़े जा रहा हूँ। अजेय भाई ने अभी-अभी सैन्नी अशेष को फोन किया है। मिलने का समय चार बजे तय हुआ है। अब से कुछ ही घंटों बाद हम सैन्नी अशेष और स्नोवा बॉर्नों से मिलेंगे। मैं पूछता हूँ ये सैन्नी अशेष और स्नोवा बॉर्नों कौन हैं? अजेय भाई मुस्कुराते हुए कहते हैं : ‘साल 2008-09 में हिंदी जगत की सनसनी’! मन में और अधिक जानने की जिज्ञासा पैदा होती है। गूगल करता हूँ तो ‘शब्दांकन’ पर एक ख़बर मिलती है—
“क्या वह हिंदी साहित्य-जगत का स्टिंग ऑपरेशन था? : अख़बार, पत्रिकाएं और टीवी चैनल चिल्ला रहे थे : इतनी अनोखी कहानियां और उपन्यास लिखने वाली स्नोवा बॉर्नों कौन है और कहाँ है? हिंदी साहित्य के प्रमुख समीक्षक नामवरसिंह, परमानंद श्रीवास्तव, सूरज पालीवाल और भारत भारद्वाज तक सारे समीक्षक रहस्यमयी लेखिका की कहानियों को अभूतपूर्व बता रहे थे। सूरज पालीवाल ने स्नोवा की कहानी ‘मुझे घर तक छोड़ आइए’ को रेणु की ‘तीसरी कसम’ और गुलेरी की ‘उसने कहा था’ कहानियों की बराबरी में रखा। इस स्थापना को नामवरसिंह ने मुहर लगाई। नामवरसिंह ने कहा कि उन्होंने आज तक ऐसी स्तब्धकारक कहानी किसी भाषा में नहीं पढ़ी और इस कहानी को गहराई से समझने की ज़रूरत है और भविष्य में इस कहानी के नए नए अर्थ सामने आएँगे।“
…..
मनाली में कोई न्यू शेर-ए-पंजाबी ढाबा है। सैन्नी अशेष हमें वहाँ मिलेंगे। अजेय भाई ने आते हुए पवन को भी बुला लिया है। पवन मनाली के पास ही एक गाँव में रहते हैं और ख़ूब सारी किताबें पढ़ते हैं—ऐसा अजेय भाई का कहना है। हम न्यू शेर-ए-पंजाबी ढाबा के अहाते में बैठे हैं। एक व्यक्ति हमारी ओर चला आ रहा है। वो मेरे बगल में आकर बैठ जाता है। उसके पैरों में काले जूते हैं—रबड़ के। उसके सिर पर डर्बी हैट है—एक तरफ़ से फटी हुई। हम दोनों एक दूसरे को देखते हैं। औपचारिक परिचय के बाद हम दोनों चुप हो जाते हैं। कुछ देर बाद चुप्पी को तोड़ता हुआ मैं फिर पूछता हूँ : ‘आप कैसे हैं’? जवाब मिलता है : ‘बिलकुल अभी जैसा’! मन में आता है कि पूछूँ : स्नोवा बॉर्नों कैसी है, कहाँ है? लेकिन, अभी मुझे सिगरेट पीने बाहर जाना है…
…..
हम अजेय भाई की कार में बैठ कहीं कोई शांत जगह की तलाश में जा रहे हैं। यों ही मेरे मन में आता है और मैं सैन्नी अशेष को अपने एक दोस्त ‘हामिद’ का शेर सुनाता हूँ—
“कुछ इन्तक़ाम यूँ भी लिए जाएँगे
ख़त लिखे जाएँगे और लिखकर जला दिए जाएँगे।“
इस शेर से हमारे बीच औपचारिकता की दीवार ढह जाती है। मैं आँखों में आँखें डाल सैन्नी अशेष से सवाल करता हूँ “आप कौन हैं? और स्नोवा बॉर्नों कौन है?” सैन्नी अशेष कहते हैं कि वे एक रहस्यदर्शी घुमंतू रचनाकार हैं। जीवन और मृत्यु के रहस्यों पर लेखन एवं सैर-संवाद से उन्हें मुहब्बत है। वे स्नोवा बॉर्नो के सह-लेखक हैं। स्नोवा बॉर्नो उनके भीतर बसती है। पहले धर्मयुग के ज़माने में वह ‘हिमबाला’ हुआ करती थी। स्नोवा बॉर्नो हिंदी की एक रहस्यमयी लेखिका हैं, जिनकी तस्वीर लगभग सबने देखी है लेकिन, हकीक़त में उसे किसी ने नहीं देखा—अलावा मेरे। ‘देह गगन के सात समंदर’, ‘मुझे घर तक छोड़ आइए’, ‘एक जोगन ज़िन्दगी’ और ‘ओशो कृष्णा और उनकी संगिनियाँ’ उनकी प्रकाशित किताबें हैं। ‘मेरी ज़िन्दगी में सौ स्त्रियाँ’ का अभी प्रकाशन होना बाक़ी है। वे नदी किनारे टहलते हैं और जंगल-जंगल ठहरते हैं। फोन करके उनसे किसी नदी किनारे या जंगल में किसी पेड़ की छांह में मिला जा सकता है।
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सैन्नी अशेष मनाली के बस स्टेशन की बगल से गुज़रती, व्यास नदी के पास बैठने की इच्छा ज़ाहिर करते है। हम मनाली की भीड़ से होते हुए पैदल-पैदल बस स्टेशन पहुँचते हैं। पिछली बार की तबाही के बाद, जब व्यास में आई बाढ़ में बसें बह गई थीं, को ध्यान में रखते हुए बस स्टेशन की चारदीवारी कर दी गई है, जहाँ से नदी को सिर्फ़ देखा जा सकता है, उसके पास बैठा या टहला नहीं जा सकता। हम उदास होते हैं। हम बस स्टेशन के भीतर ही चहलकदमी करने लगते हैं। दिल्ली वाली बस के निकलने में अभी कुछ वक़्त शेष है। सैन्नी अशेष हमें ओशो के आसपास भटकने की अपनी कहानियाँ बता रहे हैं। और सब्जियाँ बेचने की और स्नोवा बॉर्नो की और अपने कवि-कहानीकार होने की और स्नोवा बॉर्नो के नाम हिंदी के प्रतिष्ठित लेखकों में शुमार—राजेन्द्र यादव की चिठ्ठियों की। शाम जाने को है….! अजेय भाई के कहने पर मैं सैन्नी अशेष को अपनी एक कविता सुना रहा हूँ—
“तुम यहाँ से चली गई कभी न आने के लिए
मैं तुम्हारा जाना अब भी देखता हूँ
तुम चले जा रही हो…
मेरी ज़िन्दगी
मेरी अपनी ज़िन्दगी
तुम्हारे चलते चले जाने में खो गई है।“
सैन्नी अशेष ‘चलते चले जाने’ वाली पंक्ति को दोबारा सुनाने को कहते हैं। मैं फिर से पढ़ता हूँ—‘मेरी ज़िन्दगी, मेरी अपनी ज़िन्दगी तुम्हारे चलते चले जाने में खो गई है!’ सैन्नी अशेष एक गहरी साँस लेते हैं। मुझे दिखलाई पड़ता है—सैन्नी अशेष आज भी स्नोवा बॉर्नो से बेइंतहा इश्क़ करते हैं।
शाम जा चुकी है…
एक यादगार शाम!
आमिर हमज़ा हिंदी के चर्चित युवा कवियों में से हैं। उनकी कविताएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं। उन्होंने कुछ बहुत ही अनूठी किताबों—‘क्या फ़र्ज़ है कि सबको मिले एक सा जवाब’ और ‘तोप की नली से दिखती ज़मीन’ संपादन भी किया है। वे दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में अकाल आधारित साहित्य पर शोधकार्य कर रहे हैं। इंद्रधनुष पर उनके पूर्व-प्रकाशित कार्य के लिए यहाँ देखें: उसके घर रास्ते बीच मदार के फूल आते हैं