कविता ::
प्रत्यूष चन्द्र मिश्रा

सिवान का  शुक्ल पक्ष
(गुरुजी घनश्याम शुक्ल की स्मृति को नमन करते हुए)

‘नाम तो सुना ही होगा’….
और ‘नाम में क्या रखा है’
इन प्रचलित उक्तियों के बीच—
हम पिछली बार कब ले पाए थे साँस,
कब हँसे थे ठहाके लगाकर,
कब रोये चीखकर।

अपराधियों से जाने जानेवाले हर शहर और गाँव की
एक मुकम्मल सी होती तस्वीर के बरक्स,
तुम खड़े थे सीना तानकर एक आश्वस्ति की तरह,
पर हर शहर और गाँव की किस्मत में तुम कहाँ थे?

एक जटिल समय में इतना सरल होना
कितना मुश्किल रहा होगा तुम्हारे लिए
पर तुम न तो एक तमाशबीन थे,
न झोला उठाकर चल देने वाले फ़क़ीर,
तुम अपने निर्णय में दृढ़ और संवेदना से भरपूर एक आम किरदार थे,
जिसके ‘अभिनय’ के दीवाने हम जैसे तमाम लोग थे।

संगीत, कला, शिक्षा, खेल, तुमने हर वो काम किया
जिसने तुम्हारी उर्जा को द्विगुणित किया
तुम कोई सरकार नहीं थे जो ‘विकास के मॉडल’ पर काम करते
करते ‘बजट’ और ‘योजनाओं’ की हेराफेरी।

तुम ‘गुरु’ थे
तुमने अपना वेतन काटा,
अपनी रोटी कम की,
खद्दर और सूत की तरह काता अपना जीवन,
और एक योद्धा की तरह लड़ते रहे अँधेरे के खिलाफ।
इक्कीसवीं सदी में तुमने हमें बताया—
‘लोग साथ आते हैं’ और ‘कारवां भी बनता है’
तुमने बताया हमें—
‘सपने किसी एक की आँख में पलते हैं
और फिर उसे देखती हैं हजार-हजार आँखें’

प्रचलित नायकों की सूची में तुम कहीं नहीं थे,
तुमने कोई किताब नहीं लिखी,
नहीं लिखा कोई लेख
नहीं कीं दूर देश की यात्राएँ,
अपने काम का कोई लेखा-जोखा नहीं रखा,
राजनेताओं, अफसरों, व्यापारियों के साथ तुम्हारी कोई तस्वीर नहीं थी
पर सिवान के इस इलाके के छात्र-नौजवानों की आँखों में
उम्मीद का बिरवा रोप देना एक आश्चर्य से कम नहीं था।

बिहार के धुर देहाती इलाके में लड़कियों का हॉकी खेलना सुना है आपने ?
सुना है किसी गाँव में ‘बिस्मिल्लाह खां संगीत महाविद्यालय’?
प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करते हजारों छात्रों की भीड़?
क्या अब भी बचा है किसी गाँव में पुस्तकालय कल्चर?
यदि आपने सचमुच यह सब नहीं सुना तो जाइये और
पूछिये अपने टीवी और अखबार के संपादकों से
फेसबुक और  व्हाट्सएप के मित्रों से
कि किन खबरों के पीछे भाग रहे हैं वे

गुरूजी को देखते महसूसते हुए पता चलता था
सचमुच ‘गुरु’ ऐसे ही होते हैं गुरुडम से मुक्त,
‘जो घर जारे आपना’ की राह पर चलते हुए।

एक खूबसूरत कविता, एक खूबसूरत गीत और
एक खूबसूरत फिल्म की तरह तुम्हारे जीवन ने
पंजवार की मिटटी से जो फूल खिलाये
अब वह समय की पीठ पर छोड़ चुके हैं अपने निशान

इतिहास बनने के लिए कभी-कभी
इतिहास होने की जरूरत नहीं होती

तुम्हारी स्मृतियों की थाती अब हमारे वर्तमान का संबल है
खेलते-गाते बच्चे, खेतों में लहलहाती फसल, चारों ओर सौहार्द
रोटी और दवा सब तुम्हारे सपनों से जुड़े थे
तुम्हारे सपने अब हमारी उम्मीद हैं।

एक ऐसे समय में
जबकि बड़े लोगों के ‘छोटे कारनामों’ के बारे में दुनिया जानती है
मगर बहुत कम जानती है छोटे लोगों के बड़े कारनामों के बारे में
पूरे प्रदेश में छाये अमावस के बरक्स हम कितना जानते हैं
सिवान के इस शुक्ल पक्ष के बारे में।

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प्रत्यूष चन्द्र मिश्रा हिन्दी के चर्चित कवि हैं। उनकी कविताई में बार-बार कस्बाई जीवन के महीन और लघु आख्यान नायक की तरह स्थापित होते हैं और किसी नक़ल की तरह नहीं, किसी आदर्श मॉडल पर आधारित नहीं बल्कि एकदम निजी और इतनी परतों के साथ कि कम-से-कम आधुनिकता से जनित अंतर्द्वंद उनकी कविताओं में सहज ही स्थान पाते हैं। स्थानिकता और उसका अन्वेषण ही प्रत्यूष की कविता को विशेष बनाते हैं। उनसे परिचय और उनकी अन्य कविताओं के लिए यहाँ देखें : मेरे भीतर बची हुई है प्रेम करने की ताकत

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