कविता : आगा शाहिद अली

अनुवाद : अपर्णा अनेकवर्णा

आगा शाहिद अली (4 फ़रवरी 1949 – 8 दिसंबर 2001) चर्चित कश्मीरी शायर और कवि हैं. इन्हें अंग्रेजी ग़ज़ल की परंपरा को समृद्ध और स्थापित करने के लिए जाना जाता है. इनकी रचनाएँ पाठक के स्मृति-पटल पर गहरी छाप छोड़कर अपने कहन को देर तक मन में अंकित करती हैं. उनकी रचनाएँ बिछोह, समर्पण, स्मृति, इतिहास और प्रेम की छवियों से परिपूर्ण हैं. यहाँ चर्चित कवियित्री अपर्णा अनेकवर्णा के द्वारा इनकी कविता ‘बीयोंड द एश रेन्स’ का हिंदी अनुवाद प्रस्तुत है :

राख-वृष्टि के पार

“तुमने खो देने के बारे में ऐसा क्या जान लिया है
जो तुम्हें औरों से अलग करता है?”
– गिलगमेश

सहरा ने नकार दिया जब इतिहास मेरा
मानने से इंकार किया कि जिया था मैंने भी
एक जीवन, तुम्हारे संग..
एक खोये खानाबदोश क़बीले के बीच.

दो.. तीन हज़ार बरस पहले, तुमने खोल दिए थे
मानसून के सबसे घनेरे, भोर की बरसात के परदे
और खामोश इशारे से बुलाया था मुझको
उत्तर के पहाड़ियों की ओर

वहाँ सुर्ख चट्टानों के बीच, अकेले बसर करते थे तुम
मैंने तब तक कहाँ सीखे थे तौर कायदे बंजारों के
बारिश की बूंदों के बीच चलना कि सूखी बनी रहूँ

भीगी, ठिठुरती मैं एक गरीब इंसान की बोली बोल रही थी
बिना तानों के.. तुमने मुझे हमारे बीते कल के निशाँ दिखाए
एक सबूत कि हमने आखिरकार एक दूसरे को पा ही लिया

पर तुम्हारी बाहों में मुझे महसूस हुआ कि मुझे
खोने के लिए चुना गया हो जैसे. जब आग जलायी थी तुमने
और जाम ढाला था, “जा रही हूँ,” बुदबुदा रही थी बारबार मैं,
“वहाँ जहाँ न कोई पहुंचा हो, न ही पहुंचेगा कभी.. क्या संग चलोगे मेरे?”
मेरा हाथ थामा था तुमने और हम उन सड़कों पर भटकते फिरे थे

एक खाली दुनिया की सड़कें.. जो हमारे नंगे इतिहास को
झेल नहीं सकती थी, और मैं.. ठीक वहीँ खड़ी थी
पर तुमने यही तो कहा था ऐसा अब नहीं होगा, नहीं चुनेगा
वक़्त मुझे तुम्हारी बाहों से खो जाने के लिए, फिर किसी
देस-निकाले को, तुम्हारी बाहों से अलग नहीं करेगा कभी भी.

***

अपर्णा अनेकवर्णा हिंदी और अंग्रेजी में लिखती हैं और अनुवादक भी हैं. उनसे aparnaanekvarna@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.

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